कर्नल सुशील तंवर की कहानी ‘लाल रंग की जैकेट’

अयूब के कहने पर गौतम ने अपने सिपाहियों को चारों तरफ तैनात कर दिया था। अयूब का इशारा नजदीक ही एक छोटे से नाले की तरफ था।

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कर्नल सुशील तंवर की कहानी ‘लाल रंग की जैकेट’। ऑपरेशन की नाकामयाबी सेना के किसी भी अधिकारी या जवान के लिए कभी अच्छी खबर नहीं होती। उसकी टीस अरसे तक साथ रहती है। पर इस ऑपरेशन में कुछ ऐसा हुआ कि मेजर गौतम को कामयाबी की परवाह नहीं थी। खुशी थी असली मिशन के सफल होने की।

‘नींद तो नहीं आ रही ना तुम लोगों को?’

सफेद जिप्सी में बैठते हुए मेजर गौतम द्वारा किए गए इस सवाल पर गाड़ी के अंदर बैठे दोनों सिपाही एक साथ ही पूरे जोश में बोल पड़े थे- ‘नहीं साहिब।’

लेकिन साथ ही सिपाही नज़ीर अहमद ने हिचकिचाते हुए अपने जवाब में थोड़ा सा फौजी तड़का भी लगा दिया था- ‘साहिब, आपके साथ रहकर सुबह-सुबह मार्च करने की आदत हो गई है। शुरू-शुरू में बहुत नींद आती थी, लेकिन अब नहीं।’

‘हां-हां ठीक है। ज़िन्दगी में अगर थोड़ी बहुत आशिक़ी कर लेगा तो फिर कभी नींद नहीं आएगी…’

अपने मेजर साहिब के इस फिल्मी डायलॉग को सुनकर नज़ीर के साथ-साथ ड्राइवर रवि भी हंसने लगा था।

मेजर गौतम की इसी आदत से उनकी यूनिट में सभी लोग काफ़ी सहज महसूस करते थे। सबसे नरम तरीके से बात करना। अपने जवानों का ख्याल रखना। हल्का-फुल्का मज़ाक करना, लेकिन काम में कोई ढिलाई बर्दाश्त नहीं करना। वो सभी बातें जो वैसे तो बहुत साधारण प्रतीत होती हैं, लेकिन जिनके कारण किसी भी फौजी यूनिट में बहुत खुशनुमा और कारगर माहौल बना रहता है।

उस दिन सुबह के तकरीबन पांच बजे थे। कश्मीर की खूबसूरत वादियों में अभी सर्दियों का पूरी तरह आग़ाज़ नहीं हुआ था। दिन भर चहल-पहल से भरा बारामुला शहर अभी गहरी नींद में सोया हुआ था। मेजर गौतम की यूनिट पिछले कई सालों से पुराने बारामुला शहर के आखिरी वाले छोर पर तैनात थी। इस शहर में अमन बनाए रखने की जिम्मेदारी उन्हीं के सिर पर थी और वो अपने फर्ज को बखूबी अदा भी कर रहे थे।

इसके लिए ना सिर्फ आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन करना ज़रूरी था बल्कि उससे कहीं ज्यादा जरूरी था अवाम को अपने साथ मिलाकर रखना। गौतम को जब भी आस-पास के इलाकों में जाना होता तो वो अक्सर सुबह-सुबह निकल जाता था। आज उसका इरादा ऊरी जाने का था। वैसे तो अमूमन बारामुला से ऊरी जाने में करीब दो घंटे लगते थे, लेकिन इस वक्त ट्रैफिक न होने के कारण ये सफ़र एक घंटे में ही तय हो जाता था और इस वीराने में बारामुला से ऊरी तक का खूबसूरत रास्ता और भी हसीन लगता था।

ऊंची पहाड़ियों की कोख में बसे घने जंगल, ठंडी हवाओं में लहराते बादल और इन सब के बीच हाईवे के साथ-साथ बहती हुई झेलम नदी। इस रास्ते पर आते-जाते गौतम अक्सर अपनी सरकारी जिप्सी और झेलम के बीच हो रही किसी दौड़ की कल्पना करता था। लम्बे सुनसान रास्ते में वक्त जाया करने का ये उसका अपना तरीका था। इस रेस में कभी उसकी गाड़ी आगे निकल जाती तो कभी बेपरवाह बहती झेलम नदी। दिल बहलाने के लिए ये बचपना वाला ख्याल अच्छा था।

वैसे ये मुकाबला एक तरफा था क्योंकि गौतम की जिप्सी सिर्फ ऊरी शहर तक ही जा सकती थी और झेलम वहां से बहुत आगे पाकिस्तान में भी उसी उमंग से अपना रास्ता तय करती थी। मगर किसी भी फौजी के लिए इन कुदरती नज़ारों में गुम जाने से कहीं ज्यादा अहम था अपनी हिफाजत करना और इसलिए गौतम और उसके दोनों साथियों की नज़रें सड़क के आस-पास के इलाकों पर भी थीं। कुछ पता नहीं कब, किस तरफ से कोई छुपा हुआ आतंकवादी हमला बोल दे।

वैसे तो फौज अपनी खुद की और आने-जाने वाली सभी गाड़ियों को हिफाजत के लिए रोड ओपनिंग यानी सड़क के दोनों तरफ सुरक्षा प्रबंध तो करती थी, लेकिन वो सब कार्रवाई दिन निकलने के बाद ही होती थी। इतनी जल्दी सुबह के वक्त तो हर तरफ सिर्फ सन्नाटा था और इसलिए गौतम और उसके साथी बिल्कुल सावधान थे। इसी रास्ते में बसा था बोनियार। वो छोटा सा कस्बा जहां पर आतंकवाद के चरम दौर में भी ज्यादातर अमन का ही माहौल बना रहा था।

इक्का-दुक्का वाकयों के बावजूद फौज और अवाम के दरमियान काफ़ी दोस्ताना ताल्लुकात थे। लेकिन सब जानते थे कि लाइन ऑफ कंट्रोल के नजदीक होने के कारण पाकिस्तान से घुसपैठ करने वाले आतंकवादी ऊरी और बोनियार के रास्ते ही कश्मीर की वादी में दाखिल होते थे। शायद इसलिए वो इस इलाक़े में कोई गड़बड़ नहीं करते थे ताकि सुरक्षा बलों का ध्यान उन पर न जाए।

‘थोड़ा धीरे चला भाई। जल्दबाजी में ऊरी की बजाए अस्पताल मत पहुंचा देना।’

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कर्नल सुशील तंवर

गौतम हमेशा की तरह ड्राइवर रवि को समझा रहा था कि तभी उसकी नज़र दूर एक बड़े दरख़्त पर पड़ी। उसको शक हुआ कि शायद वहां कोई है। उसके इशारे पर रवि ने गाड़ी धीरे की तो गौतम ने ज़रा बारीकी से इलाक़े का नज़री मुआयना किया। उन्हें कोई और हरकत तो नजर नहीं आई, लेकिन उस बड़े से पेड़ के भारी तने से सट कर शायद कोई इन्सान बैठा हुआ था। इतनी सुबह-सुबह सड़क किनारे इस तरह छुप कर बैठे किसी शख्स को देख कर शक करना लाज़िमी था।

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‘नज़ीर, देख तो ज़रा। कोई हथियार वगैरह तो नहीं दिख रहा। ज़रा एहतियात बरतना, समझे…’

गौतम के इशारे पर सिपाही नज़ीर बड़ी होशियारी से आगे बढ़ा और कुछ कदम चलने के बाद एकदम वापिस लौट आया।

‘कोई पागल नशेड़ी लगता है साहिब। पता नहीं कहां से आया होगा।’

नज़ीर उसी इलाक़े का रहने वाला था। कम रोशनी में भी उसको लोगों की अच्छी-खासी पहचान थी। वैसे दिखने में भी वो इन्सान बहुत कमज़ोर और गरीब ही लग रहा था। ठंड में ठिठुरते हुए वो चुपचाप मुंह नीचे किए बैठा रहा और किसी भी सवाल का जवाब देने की बजाय उनको बस टक-टकी लगा कर देखता रहा। बढ़े हुए गंदे बाल और लंबी दाढ़ी में वो बड़ा ही बीमार महसूस हो रहा था। उसकी इस दयनीय हालत को देख कर गौतम से रहा नहीं गया।

‘ऐसा कर नज़ीर, ये जैकेट उसको दे दे और बिस्कुट के पैकेट भी रख देना उसके पास।’

गौतम की आदत थी अपनी गाड़ी में कपड़े और खाने-पीने का सामान रखना। अगर बे-वक्त कहीं रुकना पड़ जाए तो फिर कोई ज्यादा तकलीफ नहीं होती थी। नज़ीर हुक्म के अनुसार सब सामान उस इन्सान के पास रखने लगा, तब भी वो चुपचाप ही बैठा रहा। शायद सच में वो अपने होश-हवास में नहीं था। उनकी गाड़ी थोड़ी दूर आगे बढ़ी तो नज़ीर से रहा नहीं गया।

‘साहिब बुरा न मानो तो एक बात कहूं।’

और गौतम की अनुमति का इंतजार किए बगैर ही वो फिर बोल पड़ा।

‘साहिब, हमें ऐसे रास्ते में नहीं रुकना चाहिए। पता नहीं कौन कहां से छुपकर वार कर दे। यहां पर किसी के ऊपर कोई भरोसा नहीं है।’

गौतम ये सुन कर सिर्फ हल्के से मुस्कुराया था। वो सोच रहा था कि यहीं का रहने वाला नज़ीर उसको यहीं के लोगों पर भरोसा नहीं करने की सलाह दे रहा है और ठीक ही तो कहा रहा था वो। कश्मीर में पहले भी तो इसी कारण कई हादसे हो चुके थे। धरती पर जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर में आतंकवाद के कारण सबसे ज्यादा नुकसान इन्सानियत को ही तो हो रहा था।

‘चिंता मत करो नज़ीर। हम आस-पास के इलाक़े को ध्यान से देखने के बाद ही यहां रुके थे। पर वैसे तुम बिल्कुल सही बोल रहे हो। हमें हमेशा पूरा एहतियात बरतना चाहिए।’

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इसी तरह बातें करते वो जल्द ही ऊरी पहुंच गए थे। उन दिनों वहां हालात थोड़े संजीदा थे। कुछ महीनों पहले पाकिस्तान से घुसपैठ कर के आए कुछ आतंकवादी एक फौजी कैंप में दाखिल होने में कामयाब हो गए थे। बदकिस्मती से सोते हुए सिपाहियों के टेंट में बड़ी बर्बरता से आग लगा कर उन्होंने दर्जनों सैनिकों को हमेशा के लिए सुला दिया था।

इस दर्दनाक दुर्घटना के बाद लाइन ऑफ कंट्रोल पर दोनों तरफ से गोलीबारी में तेज़ी आ गई थी और इसी का फायदा उठा कर पाकिस्तानी फौज आतंकवादियों को सीमा पार भेजने कि कोशिश करती रहती थी। उस दिन गौतम के ऊरी जाने का मकसद भी यही था। थोड़े दिनों बाद ही बर्फबारी शुरू होने का अंदेशा था और अक्सर आतंकवादी सर्दियों के मौसम की शुरुआत से ठीक पहले ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ की कोशिश करते थे।

ऊरी इलाक़े के कई लोग फौज के साथ काम करते थे। वो अक्सर फौज से माली मदद जैसे कि पैसे और राशन वगैरह लिया करते थे। आमतौर पर उनका काम कहीं भी संदिग्ध हरकत होने पर फौज को जानकारी देना था। ये अलग बात है कि कुछ लोग तो इस काम को पूरी संजीदगी से करते थे, जबकि कुछ चालाक लोग फौज के अजनबी होने का फायदा उठा कर झूठी कहानियां सुनाते। ऊरी पहुंचते ही गौतम ने तमाम लोगों से मिलने का सिलसिला शुरू किया। वो इसी में मशगूल था कि तभी उसका ध्यान अपने मोबाइल की बजती हुई घंटी की तरफ गया।

‘हेलो, पहुंच गए क्या? फोन क्यों नहीं किया? पता है कितनी देर से फोन ट्राई कर रही हूं? कितनी चिंता हो रही थी मुझे। वहां सर्दी कैसी है और कुछ खाया या नहीं?’

फोन पर सवालों की बेतहाशा बौछार सुन कर गौतम की हंसी छूट गई।

‘सॉरी यार, कुछ लोगों से मिलना था। तुम्हें फोन करने का मौका ही नहीं मिला।’

जब से सिमरन गौतम की ज़िन्दगी में आयी थी, तब से बस यही सिलसिला चल रहा था। हजारों किलोमीटर दूर रहने के बावजूद दोनों एक-दूसरे की पल-पल की खबर रखते। चूक अक्सर गौतम से होती थी। शायद जानबूझ कर, इसलिए भी कि सिमरन की प्यार भरी डांट उसे बहुत पसंद थी।

‘अच्छा, सिम वो याद है तुमने मुझे लाल रंग का जैकेट दिया था।’
‘हां-हां बिलकुल याद है। वो मैनचेस्टर यूनाइटेड वाला जैकेट, वही ना।’
‘हां यार, वो जैकेट आज मैंने रास्ते में किसी को दे दिया। बेचारा ठंड में बैठा था। मुझसे रहा नहीं गया।’
‘तुम भी कमाल हो। मदर टेरेसा बनने का बड़ा शौक है ना तुम्हें। चलो कोई बात नहीं। वैसे भी मैनचेस्टर यूनाइटेड आज-कल बहुत खराब खेल रही है। परसों ही तो लिवरपूल से कितनी बुरी तरह पिटी है तुम्हारी फेवरेट टीम।’

उसकी इस बात पर गौतम चिढ़ने की बजाय मुस्कुराने लगा था। किसी भी खेल में कोई दिलचस्पी नहीं रखने वाली सिमरन सिर्फ गौतम के कारण फुटबॉल के सभी मैचों का लेखा-जोखा रखने लगी थी।

‘अच्छा अभी रखता हूं। शाम होने से पहले वापिस बारामुला पहुंचना है। बाय-बाय।’

पूरा दिन गौतम ने ऊरी में गुजारा और देर रात वापिस बारामुला पहुंच गया। उसको यह तो यकीन हो गया था कि जल्द ही उस इलाक़े से आतंकवादी घुसपैठ की कोशिश करेंगे और आखिर वही हुआ, जिसका अंदेशा था। कुछ दिनों बाद लाइन आफ कंट्रोल पर तैनात एक यूनिट ने रिपोर्ट किया कि उनके इलाक़े में लगी तार किसी ने काटी हुई है। बॉर्डर पर रोज़ सुबह-सुबह हर यूनिट अपने इलाक़े में लगी तार का मुआयना करती है। तार कटी मिलने का मतलब साफ होता है कि वहां से घुसपैठ हुई है।

इससे फौज को अक्सर अंदाज़ा हो जाता है कि आतंकवादी किस इलाक़े की तरफ जाएंगे और अगर वक्त पर उस इलाक़े की घेराबंदी हो जाए तो फिर आतंकवादियों का बच पाना मुश्किल होता है। जब से सन् 2001 में लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर घुसपैठ रोकने के लिए तार लगाई गई थी, तब से हजारों आतंकवादी इसी तरह मारे गए थे। इस बार भी जैसे ही रिपोर्ट मिली तो फौज ने चारों तरफ सर्च ऑपरेशन शुरू कर दिया था।

गौतम ने भी अपने साथ काम करने वाले सभी लोगों को आगाह कर दिया था और वो उनकी खबर हासिल करने में जुट गया था। लेकिन आतंकवादियों के इस ग्रुप की शायद किस्मत अच्छी थी। दो-तीन दिन गुजर जाने के बाद भी उनका कोई सुराग नहीं मिल रहा था। इसी दौरान ऊपर पहाड़ों में हल्की-हल्की बर्फ भी पड़नी शुरू हो गई थी। फौज की एक टोली को लच्छीपुरा गांव के पास बर्फ में पांव के कुछ निशान ज़रूर दिखाई दिए थे, लेकिन फिर उसके आगे कोई और सुराग नहीं मिलने के कारण फौज ने अपना ऑपरेशन मुअत्तल कर दिया था।

बारामुला में फौज के उच्च अधिकारी इस पूरे घटनाक्रम से काफी नाराज़ थे। उनका एक ही सवाल था कि आखिर सीमा पार से घुसे आतंकवादी कहां गायब हो गए। पिछले तीन-चार दिनों से कमांडर साहिब अक्सर गौतम से इसी सवाल का जवाब मांग रहे थे। उस दिन गौतम सुबह दफ्तर में बैठा इसी गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कर रहा था कि अचानक सूबेदार राजीव की आवाज उसके कानों में गूंजी।

‘साहिब, ऊरी से अयूब आया है। साथ में वो पुलिस वाला मोहम्मद शफी भी है। कह रहे हैं कि अभी मिलना है। कुछ ज़रूरी काम है।’
‘ठीक है, आने दो और हमारे लिए थोड़ी चाय भी भिजवाना।’

अयूब ऊर्फ मास्टर कई सालों से फौज के साथ काम करता था। 2002 में पाकिस्तान जा कर मुज्जफराबाद स्थित कैंप में ट्रेनिंग लेने के बाद उसने हिज्बुल मुजाहिद्दीन तंजीम के साथ तकरीबन चार साल बिताए थे। फिर एक जेहादी की खतरों भरी मुश्किल ज़िन्दगी से परेशान होकर उसने आत्मसर्पण कर दिया था और बस तभी से फौज के साथ काम कर रहा था। बहुत तेज़-तर्रार और होशियार था अयूब।

‘हां भाई, इतनी सुबह कैसे आना हुआ और आज तो साथ में पुलिस भी लाए हो।’
‘सलाम वालेकुम जनाब। इसके पास एक अच्छी खबर है।’

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कांस्टेबल शफी बिना कोई भूमिका बांधे सीधा मुद्दे पर आ गया था। यही खास बात थी शफी में। वो कई साल से सीआईडी में था और इतने सालों में वो बारामुला के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हो गया था। गौतम के साथ तो उसकी अच्छी-खासी दोस्ती थी। अपने डिपार्टमेंट को रिपोर्ट करने के अलावा वो गौतम को भी अनौपचारिक तरीके से कुछ-न-कुछ काम की बात बताता रहता।

हां, उसके बदले अपनी कीमत भी पूरी वसूल करता था वो। गौतम को शुरू-शुरू में तो ये थोड़ा अजीबोगरीब लगा था, लेकिन अब इतने सालों में कश्मीर को अच्छी तरह समझने के बाद वो जान गया था कि यहां हर काम की कुछ-न-कुछ कीमत होती है। शायद हर आतंकवाद ग्रस्त इलाक़े का ये एक प्राकृतिक पहलू है। शफी की खबर वाली बात सुनकर किसी का भी उत्सुक हो जाना स्वाभाविक था। लेकिन गौतम तो एक मंझा हुआ खिलाड़ी था। वो हमेशा ये मानता था कि इन मामलों में भावुक होने से फायदा कम और नुकसान ज्यादा होता है। उसने बड़े इत्मीनान से दोनों को बैठने का इशारा किया।

‘साहिब, वो पिछले दिनों जो ग्रुप क्रॉस हुआ है न, वो लच्छीपुरा के ऊपर वाले रास्ते से रफियाबाद की तरफ गया है।’

अयूब ने कहना शुरू किया। ऐसा लग रहा था जैसे वो बहुत जल्दी में है।

‘अच्छा तुम्हें कैसे पता?’
‘मुझे पता है साहिब। पक्की खबर है। कल-परसों बर्फ पड़ने के बाद हमारे बकरवाल लोग मवेशी ले कर जब नीचे उतर रहे थे, तब उन्होंने देखा।’ 
‘अरे तो फिर तब क्यों नहीं बताया? अब तक तो वो पता नहीं कहां पहुंच गए होंगे। पहले पुख्ता जगह का पता करो। फिर देखेंगे, समझे।’

गौतम जानबूझ कर अपनी आवाज़ में बेरूखी का रंग उड़ेल ही रहा था कि अयूब फिर से बोल पड़ा।

‘साहिब, उनमें से एक पाकिस्तानी को चोट लगी है। उससे चला नहीं जा रहा। वो वहीं जो गब्बेवार वाला नाला है, उसी के पास रुक गया है। शायद उसके साथी उसको बाद में ले जाएंगे।’
‘और ये भी तुम्हें उन्हीं मवेशी वाले बकरवालों ने बताया है क्या? ऐसे कैसे वो अपने साथी को अकेला छोड़ देंगे?’
‘साहिब, मैं खुद देख कर आया हूं। तभी तो एक दिन लग गया। पूछ लो इस शफी से।’

अयूब और शफी की बातों में बहुत उतावलापन था। काफी सोच विचार के बाद ये तय हुआ कि अयूब द्वारा बताई हुई जगह की तलाशी ली जाए। वैसे भी अयूब खुद फौज के साथ वहां जाने को तैयार था ही। पहले भी कई बार वो फौज के साथ ऑपरेशन में भाग ले चुका था। कश्मीर में ये बहुत आम बात है कि फौज के साथ काम करने वाले और उनको खबर देने वाले लोग रास्ता बताने और पहचान करने के लिए फौज के ऑपरेशन में साथ जाते हैं। गौतम ने कमांडर साहिब को सारी इतिल्ला दी तो वो काफी उत्सुक हो गए थे। इतने दिनों से आतंकवादियों के उस ग्रुप का कोई भी सुराग नहीं मिलने के कारण वो भी काफी हताश थे।

‘This sounds good so Go and get him fast. Good luck.’

उसके बाद गौतम का पूरा दिन ऑपरेशन की तैयारी करने में निकल गया था। सभी इंतजाम पुख्ता करने के बाद रात के अंधेरे में वो निकल पड़े थे लच्छीपुरा गांव की तरफ। उनका इरादा था कि सुबह-सुबह वहां पहुंच कर तफसील से तफ्तीश की जाए। अयूब ने कहा था कि वो उनको लच्छीपुरा गांव के बाहर ही मिलेगा। गौतम ने शफी को भी अयूब के साथ रहने की जिम्मेदारी थमा दी थी।

‘शफी, तुम इसको लेकर आ जाना। ऐसा ना हो कि हम पूरी तैयारी के साथ वहां पहुंचें और ये भाईसाहब गायब हो जाएं।’
‘नहीं-नहीं साहिब। ये काम पक्का है। देखना मैं आपको उस पाकिस्तानी तक खुद लेकर जाऊंगा।’

अयूब की इस उत्साह से भरी गुहार को गौतम ने जानबूझ कर नजरअंदाज कर दिया था। अंधेरी रात को हल्की-हल्की बर्फबारी ने और ज्यादा सर्द कर दिया था। वैसे रास्ता ज्यादा मुश्किल नहीं था और सुबह-सुबह गौतम सिपाहियों के साथ अपने गंतव्य पर पहुंच गया था। अयूब भी उनके साथ था। लच्छीपुरा गांव के पास मिलने के बाद वही तो उनको आगे का रास्ता बता रहा था।

‘थोड़ा ध्यान से साहिब। बस यहीं पास में है वो जगह।’

अयूब के कहने पर गौतम ने अपने सिपाहियों को चारों तरफ तैनात कर दिया था। अयूब का इशारा नजदीक ही एक पहाड़ी के बीचो-बीच बहते एक छोटे से नाले की तरफ था। बड़े-बड़े पत्थरों और घनी झाड़ियों में छुपे उस नाले को कोई अनजान आदमी ठीक से देख भी नहीं सकता था। छुपने के लिए ये यकीनन बहुत उचित जगह थी। फिर क्या था। किसी स्वचालित मशीन की तरह वो सब छोटी-छोटी टुकड़ियों में बंट गए थे।

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फौज की ट्रेनिंग और तजुर्बा इस दर्जे का होता है कि ऐसे हालात में किसी को कुछ ज्यादा समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। गौतम के इशारों को भली-भांति जानते थे उसके सिपाही। एक टोली पास वाली टेकरी पर, एक कच्चे रास्ते के बगल में, एक नाले के नीचे की तरफ और एक टोली दूर वाली पहाड़ी पर बिना वक्त गंवाए तैनात हो गई थी। गौतम चंद सिपाहियों के साथ नाले की ओर बड़ी सावधानी से आगे बढ़ा। अयूब और शफी उनके थोड़ा आगे थे।

‘वो देखो साहिब। झाड़ी में उस बड़े पत्थर की बाईं तरफ। मैंने कहा था न, यहीं छुपा हुआ है वो।’

अयूब सही कह रहा था। गौतम के सिपाही दो-चार कदम आगे बढ़े और थोड़ा ज्यादा ध्यान से देखने की कोशिश करने लगे।

‘ये सही बोल रहा है साहिब। झाड़ी के पीछे एक बंदा दिख रहा है। छुप कर बैठा है। साथ में एक पिट्ठू भी रखा है।’
‘हां साहिब, मैं तो कहता हूं यहीं से रॉकेट लॉन्चर मार देते हैं। पास जाने का खतरा क्यों लेना?’

एनकाउंटर का मौका देख कर गौतम के जवान जोश में आ गए थे। अब उनको बस अपने साहिब के हुक्म का इंतजार था। गौतम लंबे-चौड़े दरख्तों की आड़ लेते हुए आगे बढ़ा। उसकी नज़रें बड़े पत्थर और झाड़ियों की तरफ टिकी थीं।

‘हरजीत, कोई हथियार दिख रहा है क्या उसके पास?’
‘नहीं साहिब, हथियार तो नजर नहीं आ रहा। शायद उसने एक तरफ रखा हुआ हो।’

गौतम की नज़रें वहीं टिकी हुई थीं। बहुत ध्यान से देख रहा था वो। उसने अयूब और शफी को इशारे से अपनी तरफ बुलाया।

‘क्या कहते हो अयूब मास्टर?’
‘साहिब सोचना क्या है। देखो कैसे छुप कर बैठा है। यहीं से उड़ा देते हैं इस हरामी को।’
‘अच्छा। लेकिन हथियार तो दिख नहीं रहा उसके पास। क्यों शफी?’
‘वो तो है साहिब, लेकिन हथियार दिखने का इंतजार तो नहीं कर सकते न और इस जंगल में ऐसे छुप कर बैठना तो हमारे शक को और पुख्ता करता है। वो पिट्ठू भी तो है उसके पास।’

गौतम ने थोड़ी देर सोचा और दो कदम आगे बढ़ा। अगले ही पल जो आवाज़ पहाड़ियों में गूंजी वो गोलियों कि नहीं बल्कि उस थप्पड़ की गूंज थी जो गौतम ने पूरे कस के अयूब के गाल पर जड़ा था।

‘शर्म नहीं आती तुम्हें। बहुत होशियार समझते हो अपने आप को।’

गौतम अयूब पर अचानक ही बरस पड़ा था।

‘ओए नज़ीर, ज़रा पास जा कर देख। थोड़ा ध्यान से जाना मगर और इस बदमाश को भी ले जा अपने साथ।’

मेजर गौतम के कहने पर नज़ीर और अयूब धीरे-धीरे आगे बढ़े और जल्द ही उस कथित पाकिस्तानी के नजदीक पहुंच गए।

‘साहिब।’

थोड़ी देर बाद नज़ीर वहीं से चिल्लाया।

‘साहिब, ये तो वो बोनियार वाला पागल लग रहा है।’
‘हां-हां मुझे पता है। उसको यहां ले आओ।’

गौतम को नज़ीर की बात सुन कर ज़रा भी अचंभा नहीं हुआ था,  क्योंकि उसने तो पहले ही दूर से ही अपने मैनचेस्टर यूनाइटेड वाले लाल जैकेट को पहचान लिया था। फिर इसके आगे कुछ कहने-सुनने की ज़रूरत नहीं थी। सारा मामला बिल्कुल साफ था। अयूब जान-बूझ कर उस पागल को बहला-फुसलाकर उस पहाड़ी नाले में ले आया था।

पूरे इलाके में न कोई उस पागल को जानता था और न किसी को उसके रहने या न रहने से कोई मतलब था। अयूब को पता था कि फौज आतंकवादियों के नए ग्रुप की बहुत बैचेनी से तलाश कर रही है। उसे लगा था कि एक बार एनकाउंटर हो गया तो उस पागल को पाकिस्तानी समझ कर कोई इस पर बवाल नहीं करेगा। हथियार की कमी को पूरा करने के लिए उसने एक पिट्ठू भी वहीं रख दिया था। ठीक वैसा ही बैग जैसा आतंकवादी आमतौर पर इस्तेमाल करते हैं। शफी को भी उसने अपने साथ शामिल किया ताकि बाद में कोई मसला न बन जाए।

लेकिन ये किस्मत का खेल ही था कि वो अपनी कहानी लेकर मेजर गौतम के पास जा पहुंचे और शायद वो कामयाब भी हो जाते, लेकिन गौतम ने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई और फिर उसने अपनी पसंदीदा जैकेट को पहचान कर उनके पूरे प्लान पर पानी फेर दिया। शाम को गौतम और उसके सिपाही थक-हारकर बारामुला वापिस आ गए। आमतौर पर तो किसी ऑपरेशन में अगर कोई आतंकवादी मारा या पकड़ा न जाए तो वो ऑपरेशन नाकामयाब माना जाता था लेकिन आज गौतम को इस नाकामयाबी का कोई अफसोस नहीं था। रोज़ की तरह उस शाम को भी सिमरन ने उसे फोन किया था।

‘कहां हो जनाब? कल रात से फोन आउट ऑफ रीच है…खाना खाया या नहीं? बर्फबारी शुरू हो गई ना? कितनी बर्फ पड़ी है?’ 
‘हां-हां, थोड़ा ज़रूरी काम था। बस अभी वापिस आया हूं।’
‘अच्छा सिम सुनो। वो लाल जैकेट था न…’
‘अरे यार। तुम अब तक उस जैकेट के पीछे पड़े हो, वो तो तुमने किसी को दे दिया था न। अगली बार छुट्टी आओगे तो एक और ले लेंगे। और यहां बंगलौर में थोड़े दिन पहले ही मैनचेस्टर यूनाइटेड का आउटलेट और कैफे खुला है। you will love it…’

‘अरे पता है, आज उस जैकेट के कारण एक इन्सान की जान बच गई।’

गौतम ने सब-कुछ बताना शुरू किया और फिर बहुत देर तक सिमरन बस चुप-चाप सुनती रही।

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