कर्नल सुशील तंवर की कहानी ‘लव जिहाद’

उस अंधेरी रात में जल्द ही फुरकान उसकी आंखों से दूर हो गया। ऋषभ के दिल में किसी अनहोनी का अंदेशा अब भी था। लाइन ऑफ कंट्रोल पर Indian Army हमेशा मुस्तैद थी। ऐसे में रात को किसी भी तरह की हरकत होती देख कर उनका कार्रवाई करना लाज़िमी था।

Security Forces

सांकेतिक तस्वीर

कर्नल सुशील तंवर की कहानी ‘लव जिहाद’। धर्म के नाम पर जिहाद के ढेरों किस्से सुनने-पढ़ने को मिलते हैं, लेकिन इश्क की खातिर जिहाद के किस्से बेहद कम। इश्क का जुनून जितना ज्यादा, जिहाद की शिद्दत भी उतनी ही पुरकश। आखिर, क्या रिश्ता था रुखसार और नवीद का? और इस कहानी में कर्नल ऋषभ कहां से आ गया? फौज और लोकल पुलिस की मुस्तैदी के बावजूद लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी फुरकान का कोई सुराग क्यों नहीं मिल पा रहा था?

नवीद अहमद ऊर्फ अबू फ़ुरक़ान। उम्र तकरीबन 24 साल। सरगोधा पाकिस्तान के एक बेहद गरीब परिवार में उसका जन्म हुआ था। चार भाईयों और दो बहनों के लाडले नवीद को उसके घर वालों ने छोटी सी उम्र में ही गांव के नज़दीक वाले मदरसे में दाखिल करा दिया था।

वो तकरीबन बारह साल का होगा जब उसके गांव में एक बहुत बड़ा दीनी जलसा हुआ था। लाहौर से एक बहुत मशहूर मौलवी साहिब तशरीफ लाए थे उस जलसे में तक़रीर करने के लिए।

उस दिन नवीद ने पहली बार कश्मीर का नाम सुना था। मौलवी साहिब ने बड़े ज़बरदस्त और जोशीले अंदाज़ में जिहाद की बात की थी। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि जिन कच्ची उम्र के लड़कों को वह कश्मीर, अफ़ग़ानिस्तान और फिलीस्तीन की कहानियां सुना रहे हैं उन बेचारों को तो शायद लाहौर और कराची के बीच का फर्क भी नहीं मालूम था।

जलसे के बाद नवीद के वालिद ने मौलवी साहिब के साथियों द्वारा बनाई जा रही एक सूची में उसका भी नाम लिखवा दिया था। नवीद को नहीं पता कि ऐसा उसके वालिद साहिब ने क्यों किया। न कभी उसने पूछने की जरूरत समझी और न उसके वालिद ने कभी बताया।

वैसे भी पूरे पाकिस्तान में मानो एक होड़ लगी थी जिहाद में शिरकत करके अपने आप को अल्लाह के सामने साबित करने की। हां, ये बात अलग है कि इस जिहाद में शामिल होने वाले ज्यादातर लोग क़ौम के बेहद गरीब तबके से ताल्लुक रखते थे।

नवीद के गांव वाला वह मदरसा भी बहुत मशहूर था। कहते हैं कि वहां से जितने नौजवान जिहाद के लिए दुनिया के अलग-अलग कोनों में गए थे, उतने शायद पूरे पाकिस्तान के किसी मदरसे से नहीं गए होंगे। हर दूसरे दिन वहां किसी शहीद का जनाज़ा पढ़ा जाता।

नवीद उन्नीस बरस का होगा जब लश्कर-ऐ-तैयबा के लोग रज़ामंद नौजवानों के लिए तंज़ीम में शामिल होने का पैगाम लेकर आए थे। तब तक, दिन-रात जिहाद की बातें सुनकर नवीद के दिल में भी कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा हो गया था। उसके घर वालों को भी नवीद के इस नए शौक़ पर कोई ऐतराज़ नहीं बल्कि गुमान था।

बस इसी तरह नवीद अपने गांव के चंद लड़कों के साथ लाहौर के नजदीक मुरिदके शहर पहुंच गया था। वहीं लश्कर-ए-तैयबा का सबसे बड़ा मरकज़ है। नवीद समेत तकरीबन सौ नौजवान लड़कों को वहां से मनशेरा जिले के उस इलाक़े में ले जाया गया जहां पर पहाड़ियों के बीच एक घने जंगल में लश्कर-ए-तैयबा का बहुत अहम ट्रेनिंग सेंटर था।

यहीं पर नए लड़कों को तीन महीने की ट्रेनिंग दी जाती, जिसे दौरा-ए-आम कहा जाता था। इस कड़ी ट्रेनिंग के दौरान उनको हथियार चलाना, घात लगा कर हमला करना जैसी सिखलाई के साथ साथ दीनी तालीम भी दी जाती। रोज़ शाम को उनको कश्मीर में हो रहे ज़ुल्म के बारे में बताया जाता।

नवीद जल्द ही अपने उस्तादों की आंखों का तारा बन गया था। बाक़ी सब लड़कों से ज्यादा होशियार, तेज और मज़बूत था नवीद।

ट्रेनिंग खत्म होने से चंद रोज़ पहले नवीद को वहां के इंचार्ज ने अपने दफ्तर में बुलाया, “शाबाश नवीद! आपने खुद को हर तरीके से अव्वल साबित किया है। आप जैसे होशियार बंदों को हम स्पेशल ट्रेनिंग कराते हैं। ख़ास चुने हुए तीस लड़के होंगे उसमें।

दो हफ़्तों बाद नवीद की स्पेशल ट्रेनिंग शुरू हो गई। एक महीने की इस ट्रेनिंग को दौरा-ए-खास का नाम दिया गया था। इसमें बारूदी सुरंग बिछाने और बड़े हथियारों को चलाने पर ज्यादा ज़ोर था। नवीद ने वो सब भी खूब मन लगाकर सीखा। अक्सर जब पाकिस्तान आर्मी के अफसर मुआयना करने वहां आते तो नवीद को उनसे मुखातिब कराया जाता।

ट्रेनिंग खत्म होने के बाद सभी मुजाहिदों को कुछ दिनों के लिए घर भेज दिया गया। लश्कर-ए-तैयबा की तंज़ीम इसी तरह अपने मुजाहिद तैयार करती थी। कश्मीर में घुसपैठ करने से चंद रोज़ पहले लश्कर के दफ्तर से उनको घर पर पैगाम दिया जाता और फिर उनको लॉन्चिंग पैड में लाया जाता। लॉन्चिंग पैड, यानी लाइन ऑफ़ कंट्रोल के नज़दीक वो जगह जहां घुसपैठ करने से पहले ग्रुप को इकट्ठा करके पूरी तैयारी की जाती।

नवीद भी बाकी लड़कों की तरह घर वापस आ गया था। अब उसे बस इंतज़ार था जिहाद में शामिल होने का। उसको कुछ ज्यादा वक़्त नहीं रहना पड़ा अपने घर। कुछ ही हफ़्तों बाद जब लश्कर के लोगों का पैगाम आया तो वो ख़ुशी-ख़ुशी घर से निकल पडा था। उसकी मां भी ग़ज़ब की इंसान थी। उसने अपने बेटे को बस, “जा पुत्तर…अल्लाह के हवाले कित्ता” कह कर विदा कर दिया था।

Indian Army
कर्नल सुशील तंवर

मुरीदके के मरकज में पहुंचने के बाद, उनको अगली हिदायतें दी गई।

“आप सबको मुबारक हो! वो वक़्त आ गया है जिसका आप सब को इंतज़ार था। हम यहां से आप सब को आज़ाद कश्मीर भेजेंगे। वहां अथमुकाम शहर के पास में हमारा ऑफिस है। उधर पहुंचने के कुछ दिन बाद आपकी लॉन्चिंग होगी। उस पार मकबूजा कश्मीर में आपके साथी आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं।”

अथमुकाम नीलम नदी के किनारे बसा एक छोटा सा कस्बा है। लाइन ऑफ कंट्रोल से इतना नज़दीक कि हिंदुस्तानी फ़ौज के गोले अक्सर इस कस्बे के बीचों बीच गिरते थे। वहीं पाकिस्तानी फ़ौज के कैंप के पास एक दोमंजिला इमारत में लश्कर का ऑफिस है जहां से वो मुजाहिदों को इंफिल्ट्रेशन के लिए भेजने का इंतज़ाम करते थे।

वैसे कुछ सालों से सीमा पर लगी तार के कारण लाइन ऑफ कंट्रोल को पार करना बहुत मुश्किल हो गया था। ऊपर से भारतीय फ़ौज ने अपनी गश्त और मुस्तैदी काफी बढ़ा दी थी।

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उन दिनों अथमुकाम में अदनान भाई इंचार्ज था। वो कश्मीर में कुछ साल बिताने के बाद वापस पाकिस्तान आ गया था। इसलिए, लश्कर के अलावा बाकी तंज़ीम वाले भी उसकी इज़्ज़त करते थे। पाकिस्तानी फ़ौज से भी उसका अच्छा तालमेल था। वैसे भी पाकिस्तानी फ़ौज की मर्ज़ी के बग़ैर भारतीय सीमा के अंदर घुसना नामुमकिन था।
वहां दो तीन दिन गुजारने के बाद आखिर वो पल आ ही गया जिसका नवीद और उसके साथी बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। अदनान भाई ने नवीद को अलग से बुलाकर समझाया था।

“आपके साथ छह साथी बॉर्डर क्रॉस करेंगे। जीपीएस में हमने रूट डाल दिया है। तार काटने का सामान चलते वक़्त आपको मिल जाएगा। दो कश्मीरी भाई मजीद और अयूब भी आपके साथ जा रहे हैं। इनको सबसे आगे रखना। इनको रास्ते का अंदाज़ा है। और अगर हिन्दुस्तानी फौज से मुठभेड़ हो गई तो यही शहीद होंगे।”

“वो क्या है न कि जब कश्मीरी शहीद होते हैं तो ज्यादा असर पड़ता है। और हां, अगर तार तक पहुंचने से पहले ही वहां से फायरिंग हो जाये तो वापस आ जाना लेकिन अगर तार के पार पहुंच गए तो फिर कश्मीर के अंदर मुक़र्रर की हुई जगह पर पहुंच जाना। ये ध्यान रहे कि रास्ते में जंगलों में ही रूकना है। किसी कश्मीरी के घर में मत जाना। पता नहीं कौन मुखबिरी कर के फौज को बुला लाए।”

नवीद अदनान भाई की बातें सुन कर थोड़ा हैरत में पड़ गया था। उसको तो लगा था कि वो कश्मीरियों की मदद के लिए जा रहे हैं। और यहां अदनान भाई उसको कश्मीरियों के बारे में ये सब बोल रहा था।

तीन दिन के मुश्किल सफ़र के बाद आखिर नवीद अपने ग्रुप को लेकर हफरूदा के जंगल में पहुंच ही गया। वहीं उसका लश्कर के बाकी मुजाहिदों से राब्ता हुआ। तक़रीबन बीस मुजाहिद वहीं जंगल में रहते थे। कई किलोमीटर तक फैला था हफरूदा का जंगल।

जब से कश्मीर में आतंकवाद शुरू हुआ तब से उन दरख्तों ने अनगिनत मौतें देखी थीं। वहां के कमांडर वलीद भाई ने उसका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया और उसके ग्रुप को दो हिस्सों में बांट दिया। नवीद और उसके साथ दो साथी वहीं वलीद भाई के पास रुक गए और बाकी साथियों ने आगे का सफर शुरू किया।

तब से नवीद अपने साथियों के साथ उन्हीं जंगलों में रहने लगा। वो इतना घना जंगल था कि फ़ौज बगल से भी गुज़र जाए तो वो उनको नज़र नहीं आते थे। जब कभी फ़ौज का सर्च ऑपरेशन होता तो वो पहाड़ी चट्टानों और नालों के बीच बनाए हुए हाइड आउट में घुस जाते और अल्लाह से दुआ करते कि वो फ़ौज को नज़र न आएं।

नवीद अक्सर सोचता था कि ये कैसा जिहाद है। पूरे दिन जंगल में छुपकर बैठना और दिन में एक बार पाकिस्तान में मुज़्ज़फ़राबाद स्थित कंट्रोल स्टेशन से बात करके अपनी सलामती के बारे में बताना। फिर रात को चोरी छुपे किसी घर में से खाना लाने जाना। हर वक़्त फ़ौज से बचने की कोशिश करना। ये सब अच्छा नहीं लगा था नवीद को।
पहले कुछ दिनों तक तो वलीद भाई ने उसको जंगल से बाहर जाने की इज़ाज़त नहीं दी।

“देखो, अभी तुम नए हो। यहां गांव में बड़े एहतियात से जाना पड़ता है। हम सिर्फ भरोसे वाले घर में ही जाते हैं। बहुत मुखबिर हैं यहां। धीरे-धीरे तुम भी सीख जाओगे।”

इसी तरह वक़्त गुजरता गया। सब ये जानते थे कि कश्मीर की वादियों में एक आतंकवादी की शेल्फ लाइफ ज्यादा नहीं होती। एक से दो साल के अंदर सभी मारे जाते हैं। उस दौरान नवीद के कई साथी भी मारे गए लेकिन उसकी किस्मत अच्छी थी। वो कभी भी फ़ौज के घेरे में नहीं फंसा।

एक दिन सुबह-सुबह नवीद की नींद दूर चलती हुई गोलियों की आवाज़ से खुली। लगता था कि फ़ौज का कोई बड़ा ऑपरेशन चल रहा है। जल्दी से इलाक़े में मौजूद अपने साथियों से राब्ता किया तो पता लगा कि दो साथी फ़ौज के घेरे में फंस गए हैं।

इस पूरे दौरान नवीद बहुत बेचैन रहा। वो चाहता था कि सब मुजाहिद मिलकर फंसे हुए साथियों को फ़ौज के घेरे से निकालने की कोशिश करें, लेकिन वलीद ने उनको पहले अपने आपको महफूज़ रखने को कहा था।

उस दिन नवीद का जोश और हिम्मत देखकर वलीद काफी प्रभावित हुआ। धीरे-धीरे उसको अपना सबसे भरोसेमंद साथी बन लिया था। वैसे भी पाकिस्तान से आए मुजाहिद कश्मीरी साथियों पर कम भरोसा करते थे और नवीद तो सबसे होशियार भी था। जंगल के रास्तों का इस्तेमाल करना व छुपने की जगह बनाना। मुज़्ज़फ़राबाद वाले ऑफिस से राब्ता करना और उनकी हिदायतें बाकी साथियों को समझाना। सभी कुछ नवीद के जिम्मे आ गया था। धीरे-धीरे वो आस पास के गांव में भी जाने लगा था। सारे लोग अब उसको अबू फ़ुरक़ान के नाम से जानते थे। कुछ ही वक़्त में बड़ा मशहूर हो गया था वो।

उन्हीं दिनों कश्मीर में कर्नल ऋषभ चौधरी की पोस्टिंग हुई। ऋषभ जब वादी में पहुंचा तो वो बहुत उत्साहित था। उसने जल्द ही अपने काम से लोगों का दिल जीत लिया था। चाहे अवाम हो या फिर नेता और पुलिस। सभी से ऋषभ ने अच्छे ताल्लुक बना लिए थे। सबके साथ मिल-जुल कर रहने की गजब की काबिलियत थी उसमें।

इसी कारण, काफी सफलता मिलने लगी थी ऋषभ की यूनिट को आतंकवादियों के खिलाफ। वैसे तो ऋषभ को तकरीबन हर आतंकी के बारे में कुछ ना कुछ खबर मिल रही थी और उनमें से बहुतों को फौज उनके अंजाम तक पहुंचाने में कामयाब भी हो गई थी। लेकिन फुरकान अब तक फ़ौज की गिरफ्त से बिल्कुल बाहर था। बहुत नाम तो था फ़ुरक़ान का लेकिन कोई सुराग नहीं था।

फ़ौज ने कई सर्च ऑपरेशन किए पर हर बार फुरकान उनके चंगुल से निकल जाता। पता नहीं कैसे उसको फ़ौज के आने से पहले ही खबर लग जाती। ऋषभ की काफी कोशिशों के बावजूद भी फुरकान का कोई पता नहीं लग रहा था।

वैसे, अब तक उस इलाक़े में सब ये तो भली-भांति समझ चुके थे कि आतंकवाद की लड़ाई भी किस्मत का खेल है। कभी-कभी महीनों कुछ हाथ नहीं लगता और कभी मिनटों में पासा पलट जाता है। एक ही पल में जान बच भी सकती है और एक पल ही काफी होता है जान गंवाने के लिए।

उस दिन हल्की-हल्की बर्फ पड़ रही थी जब ऋषभ ने हंदवाड़ा पुलिस के एसपी जावेद को फ़ोन किया।

“बस थोड़ी देर में आ रहा हूं जावेद। तुम्हारे साथ गरमा-गरम कहवा पीने का दिल कर रहा है।”

“आ जाओ सर। रेजिडेंस पर ही हूं। आपको तो कहवा ही पिलाना पड़ेगा। गोश्त तो आप खाते नहीं हो।”

बातों-बातों में फ़ुरक़ान का भी ज़िक्र हुआ था। जावेद भी बहुत परेशान था।

“इसका कोई पता ही नहीं चलता सर। कोई कुछ बताता ही नहीं। पता नहीं अपने लोगों के साथ कैसे राब्ता करता है ये फुरकान। इसके किसी बंदे का फ़ोन नंबर ही मिल जाए तो ट्रेस कर लें। बहुत प्रेशर है सर। इसको जल्दी निबटाना पडेगा।”

वापस लौटते वक़्त पूरे रास्ते ऋषभ के कानों में जावेद की बात गूंज रही थी। यूं तो कुछ नया नहीं कहा था जावेद ने। पिछले कुछ सालों में मोबाइल फ़ोन ट्रेसिंग से बहुत सफलता हासिल हुई थी सुरक्षा बलों को। इसलिए आतंकवादी भी अब फ़ोन का इस्तेमाल करते वक़्त बहुत एहतियात बरतने लगे थे।

“कोई तो होगा जो उससे बात करता होगा। उससे मिलता होगा।

बस यही सोच कर उस दिन से ऋषभ ने अपनी टीम के साथ मिल कर एक नए सिरे से फ़ुरक़ान का सुराग लगाना शुरू किया। वो घंटों नक़्शे के सामने बैठा रहता। पिछले चंद महीनों में जहां जहां फुरकान की मौजूदगी की खबर आई थी उस इलाक़े की निशानदेही करने के बाद वहां पर हर संदिग्ध इंसान की शिनाख्त की गयी। उस इलाके के मोबाइल टावर के कॉल रिकॉर्ड। वहां आने जाने वाली गाडियों की जानकारी। लोगों से बातचीत। इस सब में दिन कैसे बीत रहे थे कुछ पता ही नहीं चल रहा था। ऋषभ के छोटे से दफ्तर में टंगा बड़ा सा नक़्शा उसके जुनून की चश्मदीद गवाही दे रहा था। उस पर लगे आड़े तिरछे निशान और चिपकाई हुए तस्वीरें। कई तरीके के पिन और रंग-बिरंगे धागे। मानो नक़्शा नहीं कोई जंग का मैदान हो।

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फिर कई दिन की मेहनत के बाद ऋषभ की टीम को आखिर एक छोटा सा सुराग हासिल हुआ।

“सर ये फ़ुरक़ान जब भी किसी इलाक़े में होता है तो उस इलाके के मोबाइल टावर से एक नंबर पर हमेशा कॉल जाता है।”

उसके साथी आशीष की उत्सुकता से भरी आवाज़ इस सुराग की अहमियत बयां कर रही थी।

“सर वैसे तो हर इलाके से अलग अलग नंबर का इस्तेमाल होता है लेकिन जिस नंबर को कॉल किया जाता है वो नहीं बदलता है। और देखिये सर। कॉल दस पंद्रह सेकंड से ज्यादा नहीं चलती। जैसे बस एक इशारा हो। इस नंबर को हमें चेक करना चाहिए 9419004641 बीएसएनएल का नंबर है सर। किसी रुखसार बानो के नाम पर है।”
“गुड। इसको और डिटेल में चेक करो और अभी किसी से इसका ज़िक्र नहीं करना।”

ऋषभ को अब एक उम्मीद की किरण नज़र आ रही थी। अगले दिन ही रुख्सार बानो की पूरी जन्म कुन्डली ऋषभ के सामने थी। 24 साल की रुख्सार एक प्राइवेट स्कूल में टीचर थी। उसने कुपवाड़ा डिग्री कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के बाद श्रीनगर से बीएड किया था। उसके पापा सरकारी मुलाजिम थे। एजुकेशन डिपार्टमेंट में। बड़ा अच्छा-खासा घर था उनका हंदवाड़ा शहर से थोड़ी ही दूर।

कई दिनों तक रूखसार की तफ्तीश की गई। बहुत मुश्किल था फ़ौज के लिए किसी खातून का चोरी-छिपे पीछा करना और शायद इसलिए उनको फुरकान के बारे में कोई सुराग नहीं मालूम हुआ। पता नहीं वो फुरकान से कहां मिलती थी? या फिर मिलती भी थी या नहीं? कई ऐसे सवाल थे जिनके जवाबों की ऋषभ को तलाश थी।

फिर एक दिन उसने तय किया कि वो रुखसार से सीधा बात करेगा। इसके अलावा, अब कोई चारा भी नहीं था उसके पास।

“हेलो, जी आप रुखसार बानो बोल रही हैं? मैं कर्नल ऋषभ चौधरी। कुपवाड़ा आर्मी कैंप से। आप से कुछ बात करनी है।”

“देखो मुझे आपसे या किसी भी आर्मी वाले से कोई बात नहीं करनी है। और आप मुझे ऐसे कैसे फ़ोन कर रहे हैं।”

उस आवाज़ की खूबसूरती और बेरूख़ी दोनों ने ऋषभ को हैरत में डाल दिया और इससे पहले वो कुछ बोल पाता रुखसार ने फ़ोन काट दिया था।

अब तो ऋषभ की दुविधा और बढ़ गई। उससे इस तरह का बर्ताव तो आज तक किसी ने भी नहीं किया था। पहले तो उसने मन में सोचा कि इस रुखसार को सबक सिखाना पड़ेगा लेकिन फिर ख्याल आया कि ऐसे किसी लड़की का वो कर भी क्या सकते हैं।”

थोड़ी और तफ्तीश की गई। वो कब स्कूल जाती है। कब वापस आती है। कौन सा रास्ता लेती है। ये सब कुछ तो साधारण ही था उसकी जिंदगी में। उसके फेसबुक और इंस्टाग्राम को भी चेक किया गया पर वहां पर भी कुछ उल्टा-पुल्टा नज़र नहीं आ रहा था।

मगर ऋषभ भी हार मानने वालों में से नहीं था। कुछ दिन बाद उसने फिर रुखसार को फ़ोन लगाया।

“हेलो, कर्नल ऋषभ दिस साइड। मुझे आपसे कुछ बात करनी है।”

‘देखिये मैंने आपको पहले भी बोला था न कि मुझे ऐसे…”

“दिस इज अबाउट फुरकान”, ऋषभ ने उसको बीच में ही टोक दिया था।

“जी कौन फुरकान। मैं किसी फ़ुरक़ान को नहीं जानती”, रुखसार की आवाज़ थोड़ी तो फीकी पड़ गई थी।

“देखो रुखसार। ये मेरा नंबर है। मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूं। जब तुम्हें ठीक लगे मुझे कॉल कर लेना।”

बस इतना कह कर ऋषभ ने फ़ोन काट दिया। इस तरह से सीधा फुरकान की बात करना शायद बेवकूफी थी लेकिन पता नहीं क्यों ऋषभ को लगा कि रुखसार उससे ज़रूर राब्ता करेगी।

वैसे उसने ये भी सोचा था कि रुखसार अगर न भी तैयार हो तो क्या फर्क पड़ेगा। वैसे भी उसकी टीम रुखसार और फुरकान के बारे में कुछ ख़ास तो पता लगा नहीं पा रही थी। ऐसी हालत में बस यही उसका आखरी दांव था।

उधर रुखसार एक अजीब कशमकश में थी। एक फौजी अफसर के इस तरह अचानक फ़ोन करने से वो थोड़ा घबरा गई थी। उसने बचपन से ही भारतीय फ़ौज को अपने गांव में गश्त लगाते हुए देखा था। बहुत बार फौजी उसके घर और मोहल्ले में तलाशी लेने भी आए थे। जब भी वो वो शहर जाने वाली सड़क पर लगे चेक पोस्ट से गुजरती थी तो मन ही मन फौजियों को पक्का कोसती थी। वैसे आज तक किसी फौजी ने उससे ग़लत तरीक़े से बात नहीं की थी लेकिन फिर भी जाने क्यों उसके मन में फ़ौज का बहुत डर था। और ये कर्नल ऋषभ ने तो उसको सीधे-सीधे राब्ता करने की गुजारिश कर दी थी। उसको गुस्सा तो बहुत आया था लेकिन इस पागल कर्नल की आवाज़ में कुछ संजीदगी का भी एहसास हुआ था।

रुखसार का परेशान होना भी लाज़िमी था। एक तरफ कर्नल ऋषभ चौधरी का संदेश था और दूसरी तरफ फ़ुरक़ान।

उसने कर्नल से झूठ बोला था। बहुत अच्छी तरह से जानती थी वो फुरकान को। वो दो साल पहले उनके घर में आया था। जंगल में फौज का सर्च ऑपरेशन चल रहा था और फ़ुरक़ान अपने दो साथियों के साथ उनके घर में घुस कर छिप गया था। उनके गांव का तारिक़ मीर भी साथ में था। वही तो लाया था उनको वहां। रुखसार को बहुत गुस्सा आया था ये सोच कर कि अगर फ़ौज आ गई तो उनका पूरा घर तबाह हो जायेगा। लेकिन उसके वालिद ने उसको मजहब का हवाला दे कर चुप करा दिया था।

अपने नए मेहमानों की काफ़ी खातिरदारी की थी उन्होंने। फुरकान ने उस दिन पहली बार रुखसार से बात की थी। बस उस दिन की मुलाकात के बाद फुरकान ने किसी न किसी बहाने उनके घर आना शुरू कर दिया था। और पता नहीं कब वो मुलाक़ातें मोहब्बत में बदल गईं।

इतनी पढ़ी-लिखी और खूबसूरत रुखसार कैसे जंगलों में अपना वक़्त बिताने वाले आतंकी फ़ुरक़ान से मोहब्बत कर बैठी ये तो खुदा ही जानता था। उसको जल्दी है अंदाज़ा हो गया था कि कितना मुश्किल है ऐसे इंसान से मोहब्बत करना जो खुद अपनी जान बचाने के लिए दर-बदर भटक रहा हो। हर तरफ फौज का पहरा रहता था और गांव में कौन मुखबिर है, कौन नहीं, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल था। ऐसे हालात में दोनों को बहुत सोच समझ कर मिलने के मौके तलाशने पड़ते थे। रुखसार के घर वाले तो एक गैर मुल्की मुजाहिद की खिदमत करने को अपना मज़हबी फ़र्ज़ मानने लगे थे।

रुखसार जानती थी कि ये सब ज्यादा देर तक नहीं चल सकता। कश्मीर में हज़ारों की तादाद में मुजाहिद पाकिस्तान से आए थे और यहीं मारे गए थे। शुरू-शुरू में उनका तहे दिल से इस्तकबाल करने वाले कश्मीरी भी अब इस सब खून-खराबे से परेशान हो चुके थे। तभी तो ये मुजाहिद रिहायशी इलाकों में कम से कम वक़्त बिताते थे। पता नहीं कब उनकी मौजूदगी की इत्तिला कोई पुलिस या फौज को दे दे। रुखसार को ये इल्म था कि कभी न कभी तो फ़ुरक़ान का भी वही हश्र होना है। उसने एक दो बार फुरकान से ज़िक्र करने की भी कोशिश की थी लेकिन फिर कोई जवाब न मिलने पर वो अक्सर मायूस हो जाती।

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बहुत मोहब्बत करती थी रुख्सार फ़ुरक़ान से और इसी मोहब्बत ने रुखसार को ऋषभ की बात पर गौर करने को मजबूर कर दिया। न वो ऋषभ को जानती थी और न ही उसको फ़ौज पर कोई भरोसा था। लेकिन वो लाचार थी और ऋषभ की बात में उसको उम्मीद की एक छोटी सी किरण नज़र आई थी।

सात-आठ दिन के बाद जब ऋषभ के पास रुखसार का फ़ोन आया तो वो तैयार था। उसके दिमाग में जो योजना पनप रही थी अब उसको अंजाम देने का वक़्त आ गया था।
उसने रुख्सार को श्रीनगर में मिलने को बोला तो वो थोड़ा सहम गई थी।

आप घबराओ मत। वहां इतनी भीड़ होती है कि कोई हमें नहीं पहचानेगा। वैसे चाहो तो आप हमारे कैंप में भी आ सकती हो।”

ऋषभ जानता था कि वो कैंप में अकेली नहीं आएगी और इसलिए वो उसे श्रीनगर शहर में मिलना चाहता था।

“नहीं सर। श्रीनगर में ही मिलते हैं।”

“ठीक है, वो गुपकार रोड पर कैफ़े कॉफ़ी डे है न। वहीं मिलेंगे इस जुम्मे को दो बजे।”

ऋषभ ने बड़ा सोच समझकर वो वक़्त और जगह चुनी थी। हाई सिक्योरिटी एरिया में स्थित उस सीसीडी में अक्सर टूरिस्ट और शहरी तबके के लोग आते थे। और वैसे भी जुम्मे को ज्यादातर लोग उस वक़्त नमाज़ पढ़ते थे। ऐसे में वहां मिलना आसान था।

पूरे इलाके का मुआयना करने के बाद ही कैफ़े में अंदर घुसा था ऋषभ और फिर ऐसी जगह बैठ गया था जहां से पूरे कैफ़े पर नज़र रख सके। जीन्स के अंदर ठूंसी हुई पिस्तौल उसको बैठने में थोड़ा दिक्कत दे रही थी। उसके साथ सिविल ड्रेस में आए दो सिपाही गेट के बाहर ही रुक गए थे। हर तरह की एहतियात बरतना बहुत ज़रूरी था।
पहली मुलाक़ात की बहुत अहमियत थी ऋषभ के लिए। रुखसार जब कैफ़े के अंदर आई तो कोने में बैठे ऋषभ ने उसको अपनी तरफ आने का बड़े सलीके से इशारा किया।

“आपको तकलीफ तो नहीं हुई आने में?”

“नहीं नहीं। मैं अक्सर श्रीनगर आती हूं। बीएड यहीं से तो किया है।” थोड़ा असहज थी रुखसार। उसने किसी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि वो किसी अजनबी से, वो भी गैर कश्मीरी और उस पर से एक फौजी के साथ इस तरह किसी कैफ़े में चोरी छिपे मिलेगी।”

“रुखसार आपके यहां आने से मुझे कितनी खुशी हुई है, इसका आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकतीं। मैं ये तो जानता हूं कि आप फुरकान के साथ राब्ते में हो पर मैं ये नहीं जानता कि क्यों और कैसे। लेकिन इतना यकीन से कह सकता हूं कि इस रास्ते में सिर्फ तबाही है।”

ऋषभ बोले जा रहा था और रुखसार चुपचाप सुन रही थी। इसके अलावा, वो कर भी क्या सकती थी। ये तो उनकी पहली मुलाक़ात थी। ऐसे-कैसे भला वो इस फौजी पर भरोसा करती।

ऋषभ भी बातें बनाने में बहुत माहिर था। वो शुरुआत में सिर्फ रुखसार का भरोसा जीतना चाहता था और इसलिए उसने फुरकान के बारे में जानने की ज्यादा कोशिश नहीं की।

बस उनके बीच इधर-उधर की बातें होती रहीं और दोनों को पता ही नहीं चला कि कैसे दो घंटे बीत गए।

“चलिए बहुत वक़्त हो गया। आपको जाना होगा। सच में बहुत अच्छा लगा आपसे मिलकर।”

ऋषभ ने मुस्कुराते हुए उससे विदा ली।

“एंड आई विल वेट फॉर यॉर कॉल”

वापस जाते वक़्त पूरे रास्ते रुखसार ऋषभ से हुई मुलाक़ात के बारे में सोचती रही। अच्छा लगा था उसको इस तरह किसी के साथ कॉफ़ी पीना।
लेकिन उसकी हर सोच फुरकान का ध्यान आते ही रुक जाती और अब यही ख्याल उसको परेशान कर रहा था।

उसे यकीन था कि अगर वो ऋषभ से मुलाक़ात का ज़िक्र भी करेगी तो फ़ुरक़ान को पसंद नहीं आएगा। इसी उधेड़ बुन में रुखसार के दिन गुजरने लगे। उसने ऋषभ से फ़ोन पर बात करना शुरू कर दिया था। और फिर धीरे-धीरे उस पर भरोसा करना भी।

कई बार फुरकान को भी लगा कि कुछ तो अजीब है और यही सोच कर उसने एक दिन रुखसार को टोका भी था।

“आजकल कहां गुम रहती हो। सब खैरियत तो है।

“कुछ नहीं। बस तुम्हारी फ़िक्र है मुझे फुरकान। ऐसे कब तक जंगलों में घूमते रहोगे। हम साथ नहीं रह सकते क्या?”

“क्या कह रही हो मेरी जान। ज्यादा मत सोचो। जो अल्लाह को मंजूर होगा, बस वही होगा।”

फुरकान को समझाना मुश्किल था और उधर ऋषभ धीरे-धीरे रुखसार का भरोसा जीत रहा था। उसे ये तो यकीन हो गया था कि रुख्सार को फ़ुरक़ान से इश्क़ है लेकिन वो अब ये पता करना चाहता था कि फुरकान उससे किस कदर मोहब्बत करता है और उसकी मोहब्बत में क्या कर सकता है।

वैसे तो कश्मीर में पहले भी ऐसे कई वाकये हुए थे जब इसी तरह कई लड़कियों ने अपने रिश्तों का फ़ायदा उठा कर मुजाहिदों की ही खबर फ़ौज को दी थी। अभी तक ऋषभ को नहीं पता था कि क्या रुखसार से ये करवाना मुमकिन है।

वो ये कोशिश कर सकता था लेकिन ऋषभ फुरकान को मारना नहीं बल्कि इस्तेमाल करना चाहता था।

“देखो रुख्सार तुम्हें उसे मनाना होगा। तुम उसके साथ पूरी उम्र ख़ुशी-ख़ुशी गुजार सकती हो मगर उसके लिए ये जिहाद का भूत उसके सर से उतारना पड़ेगा। इससे पहले भी कितने लोग पाकिस्तान से आए और यहां पर अपनी जान दे दी। भला किसके लिए? और अब वो यहां पर क्या कर रहे हां। बस जंगलों में हथियार उठाए घूम रहे हैं। जिन लोगों के लिए जिहाद करने आए हैं उन्हीं से बच कर। एक दिन बाकियों की तरह फ़ुरक़ान भी मारा जाएगा। उसके बाद पछतावे के अलावा कोई चारा नहीं रह जाएगा तुम्हारे पास।”

“लेकिन सर, वो मेरी बात क्यों मानेगा?”

“क्योंकि वो तुमसे मोहब्बत करता है। है न? और अगर नहीं करता तो फिर वो तैयार नहीं होगा। साफ़ मना कर देगा। बस फिर तो कोई मसला ही नहीं रहेगा। मारा तो जाएगा वो भी एक दिन हमारे हाथों।”

“नहीं नहीं सर। आप मुझे थोड़ा वक़्त दीजिए”, फुरकान की मौत के ख्याल से ही रुखसार बेचैन हो गई थी।

“ठीक है रुख्सार। देख लो क्या करना है। मैं वादा करता हूं कि अगले दो हफ़्तों में फ़ौज की तरफ से फ़ुरक़ान के ख़िलाफ़ कोई भी ऑपरेशन नहीं होगा। फिर भी अगर वो कहीं फंस जाए, तो मुझे इत्तिला कर देना।”

ऋषभ ने वादा तो कर दिया लेकिन फुरकान के बारे में अब तक उसने किसी को कुछ नहीं बताया था। अभी तो शुरुआत थी और बिना किसी को कुछ बताए फौज और पुलिस से पूरे दो हफ्ते तक कोई ऑपरेशन नहीं होने देना बहुत मुश्किल था।

ऋषभ सोच रहा था कि इतने सालों तक जब फुरकान बच गया है तो दो हफ़्तों में भी बच ही जाएगा। उसे थोड़ा बुरा लगा रुखसार को झूठ बोलते हुए लेकिन उसके पास इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था।”

वक़्त यूं ही बीतता जा रहा था। आख़िर एक दिन मौका देख कर रुखसार ने फुरकान से बात छेड़ ही दी।

“सुनो, एक बात कहनी थी। वो क्या है कि कुछ दिन पहले मेरी एक फौजी अफसर से बात हुई थी।”

“क्या? ये कब हुआ? तुमने बताया क्यों नहीं? परेशान तो नहीं किया हरामजादों ने?” फुरकान के तेवर एकदम बदल गए थे।

नहीं नहीं। ऐसा कुछ नहीं है। वो तो बहुत अच्छा इंसान है। मैं सोच रही थी कि तुम बात करोगे क्या उससे। बस एक बार। हो सकता है कि…”

“तुम पागल हो गयी हो क्या? उसने तुमसे राब्ता कैसे किया। और तुमने उसको हमारे बारे में कुछ बोला तो नहीं। तुम बहुत भोली हो रुखसार। इन सब चक्करों में मत पड़ो।”

“देखो, मुझे किसी से कोई बात नहीं करनी है और ख़बरदार तुमने अगर उससे दोबारा बात की तो। मिली भी हो क्या उससे?” फुरकान गुस्से में बड़बड़ाते हुए वहां से चला गया था।

रुखसार को बुरा तो लगा था लेकिन उस पर इसका ज्यादा फर्क नहीं पड़ा। उसे अब ऋषभ की बातों पर भरोसा होने लगा था। उसने जब ऋषभ को फुरकान के आग-बबूला होने के बारे में बताया तो ऋषभ ने उसको हिम्मत न हारने की सलाह दी थी।

“तुम घबराओ मत। मैं हूं न तुम्हारे साथ। तुम उसको मनाने की कोशिश करती रहो। बस मेरी एक बार फ़ोन पर बात हो जाए उससे।”

ये समझाने के साथ ही उसने रुख्सार को एक मोबाइल और सिम कार्ड पकड़ा दिया।

“देखो, इस फ़ोन से सिर्फ दो ही लोगों से बात करना। मुझसे और फुरकान से। बाक़ी किसी और को ये नंबर नहीं देना।”

उधर, रुखसार फुरकान को मनाने की कोशिश तो करती रही लेकिन फुरकान पर ज्यादा असर नहीं पड़ रहा था। ऋषभ को ये सब साफ़ पता चल रहा था क्योंकि अब उसकी टीम उन दोनों की सारी बातें ऋषभ के दिए हुए मोबाइल के ज़रिए सुन रही थी।

आखिर, रुखसार ने फुरकान को मना ही लिया और वो ऋषभ से एक बार बात करने के लिए तैयार हो गया लेकिन सिर्फ अपनी मोहब्बत की खातिर।

“कैसे हो फ़ुरक़ान? मुबारक हो तुम्हें! बहुत खुश किस्मत हो जो रुखसार जैसी लड़की मोहब्बत करती है तुमसे।“

“जी, मुबारकबाद तो आपको है। आपने इस बेचारी को पता नहीं क्या पट्टी पढाई है कि इसने मुझे मजबूर कर दिया। आखिर क्यों परेशान कर रहे हो हमें।”
फुरकान की आवाज़ और लहजा दोनों में बेरूख़ी साफ़ महसूस हो रही थी।

उस दिन थोड़ी देर ही गुफ्तगू कर पाए थे वो दोनों। फुरकान को उससे बात करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी।

“चलो अब बात हो गयी है तो इंशाअल्ला मुलाक़ात भी हो जाएगी। अपना ख्याल रखना फुरकान। और हम पर भरोसा करो। रुखसार की खातिर।”

ऋषभ की योजना में अगला कदम फ़ुरक़ान से मुलाकात करना था। इसमें काफ़ी खतरा तो था लेकिन इसके अलावा कोई और चारा भी नहीं था। अब तो ऋषभ फुरकान की हरकतों के बारे में अच्छी तरह जानता ही था जो रुखसार उसको अक्सर बता दिया करती थी। जब कभी कहीं और से भी फुरकान की खबर आती तो वो बहाना बना कर खुद को और बाकी फौजी दस्तों को वहां ऑपरेशन करने से रोक देता। इस सब में जावेद भी उसकी पूरी मदद कर रहा था।

आखिर दो चार दफा बात करने के बाद फुरकान भी ऋषभ से मिलने को राज़ी हो गया था। पर उसने श्रीनगर आने से साफ़ मना कर दिया। उसे डर था की कहीं रास्ते में ही फ़ौज उसे न पकड़ ले। इसके साथ ही उसने ऋषभ के अकेले आने की शर्त भी रखी।

बहुत टाल-मटोल के बाद आखिर दोनों बारामुल्ला में मिलने को राज़ी हो गए।

“वो सेंट जोसफ हॉस्पिटल है न। उसके सामने मिलते हैं। रविवार को 3 बजे। रुखसार को अपने साथ रखना। और देखो फेरन मत लगा कर आना। वो क्या है न कि फेरन के अंदर छिपाए हुए हथियार का अंदाज़ा नहीं होता।”

ऋषभ ने उसको ये सब हिदायतें दीं तो फ़ुरक़ान हंसने लगा था।

बारामुल्ला शहर के पास बने सेंट जोसफ हॉस्पिटल में अक्सर भीड़ रहती थी। वहीं, सड़क के पार एक छोटा सा फ़ौजी कैंप भी था। ऋषभ पूरी सावधानी के साथ मिलना चाहता था और इसलिए उसने ये जगह चुनी थी।

उस पहली मुलाक़ात में दोनों ही बहुत असहज थे। दोनों को ही एक दूसरे पर भरोसा नहीं था। फुरकान रुखसार के साथ थोड़ा देरी से आया। शायद वो इलाक़े की निगरानी कर रहा था। जब उसे लगा कि आस-पास फ़ौज का कोई खतरा नहीं है तभी वो हॉस्पिटल के सामने बताई हुई जगह पर पहुंचा था।

इस बार ऋषभ ने उन दोनों को नए सिरे से समझाने की कोशिश की। भरोसा दिलाया कि अगर फुरकान उनकी मदद करे तो वो दोनों को वापस पाकिस्तान भेज सकता है ताकि वो अपनी जिंदगी एक साथ बसर कर सकें।

“मैं तुम्हारे जवाब का इंतज़ार करूंगा। ज्यादा वक़्त नहीं है हमारे पास फुरकान। बाकि तुम दोनों की मर्ज़ी है।”

इस मुलाकात ने फुरकान को बहुत असमंजस में डाल दिया था। एक तरफ रुखसार की मोहब्बत और दूसरी तरफ उसके मुजाहिद साथियों का भरोसा। उसने सोचने में थोड़ा वक़्त लिया। इस खानाबदोशी की जिंदगी से परेशान था वो। अपने मुल्क वापस जाने का और घर बसाने का लालच बहुत लुभावना था।

वैसे पहले भी तो कई मुजाहिद तीन चार साल यहां लगा कर वापस गए थे और तंज़ीम के मुख्तलिफ काम संभाल रहे रहे थे। ऐसे मुजाहिदों की तो पाकिस्तान में बहुत इज़्ज़त भी होती थी। उसे लगा कि अगर वो तंज़ीम से बात करे तो शायद वो इज़ाज़त दे दें। फ़ुरक़ान के दिलो दिमाग में अब कई मनसूबे पनपने लगे थे।

आखिरकार, बहुत सोचने के बाद उसने ऋषभ को ये संदेश भेज ही दिया कि वो मदद करने को तैयार है बशर्ते उस पर कोई आंच न आए।

बस उस दिन से ऋषभ ने फुरकान को अपने हिसाब से काम करवाना शुरू कर दिया।

“सबसे पहले तुम वहां पर बैठे लश्कर के बाकी कमांडर से राब्ता करने का तरीका बदलो। वो तुम्हें बहुत मानते हैं। अब उनको यकीन दिलाओ कि तुम अपना नेटवर्क बढ़ा रहे हो। और इसके लिए यहां पर उनके जो लोग हैं उनके बारे में जितनी ज्यादा खबर हो सके वहां से हासिल करो। और आज के बाद फ़ौज पर कोई कारवाई मत करना।”

इसी तरह दिन गुजरते गए। फुरकान पाकिस्तान में तंज़ीम से राब्ता और उनकी सब बातें ऋषभ को बताता। वो दोनों बहुत होशियारी से एक दूसरे के साथ भी राब्ता करते। अक्सर रुखसार ऋषभ से मिलने आती। तीनों ये जानते थे कि अगर इस बात की किसी को ज़रा भी भनक लगी जाएगी तो ये पूरा खेल शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाएगा।
ऋषभ को यकीन था कि इस पूरी योजना में पुलिस को साथ लेना भी बेहद ज़रूरी है लेकिन पुलिस को सब कुछ बताने में खतरा भी था। यही सोच कर उसने अपना अगला दांव फेंका।

“जावेद, क्या हाल हैं। कहां गायब हो?”

“सब खैरियत है सर। गायब तो आप हो। बहुत मशरूफ हो आजकल। मुलाकात ही नहीं होती।”

“अच्छा। आज शाम को मिलते हैं। कुछ बात करनी है।”

जावेद इतना तो तजुर्बेकार था कि वो झट से समझ गया कि बात कुछ ख़ास ही है। वैसे भी पुलिसवालों का सिक्स्थ सेंस बहुत तेज़ होता है।

ठीक पांच बजे पहुंच गया था जावेद ऋषभ के पास। उन दोनों के ताल्लुकात इतने अच्छे थे कि किसी औपचारिकता और आवभगत की ज़रूरत नहीं थी।

“देखो जावेद, हमने अब तक बहुत आतंकवादी मारे हैं और आगे भी मारेंगे पर यह केस अलग है। हम फुरकान की जान बचा सकते हैं। उसको नई जिंदगी दे सकते हैं और इसमें सबका फायदा है।”

“वो तो है सर, लेकिन हम उसके लिए अगर इतना सब कर रहे हैं तो उसको भी तो तावन्न करना चाहिए। हमारा भी कुछ काम करे। हम उसकी जिंदगी बक्श रहे हैं तो वो भी अपने तीन चार साथियों की जान हमारे हवाले कर दे। तभी तो दोनों का फ़ायदा होगा। ठीक है न सर।” जावेद पक्का पुलिसिया था। बिना सौदे के कोई काम नहीं करना चाहता था।

“अरे यार वो बाद में देखेंगे। तुम बस अपने डिपार्टमेंट को संभालो। एक बार फुरकान काबू में आ जाए तो फिर आगे का सोचेंगे कि क्या काम लेना है।”

ऋषभ जानता था कि पुलिस की मदद के बगैर वो इस मामले में आगे नहीं बढ़ सकता और जावेद पर भरोसा करने के अलावा कोई चारा नहीं था।
जावेद ने जाते हुए जो सलाह दी थी वो ऋषभ के कानों में बहुत देर तक गूंजती रही थी।

“देख लेना सर। कुछ गड़बड़ न हो जाए। इन सालों का भरोसा करना ठीक नहीं है।”

“हां हां ठीक है। लेट्स सी। बस तुम मदद करो। अगर उसकी खबर आए तो ऑपरेशन करने मत भाग जाना। हमें बड़ी गेम खेलनी है।”

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इंसानी ज़िंदगियों के इतने संजीदा मसलों को सिर्फ एक गेम समझना ऋषभ को खुद थोड़ा अजीब सा लगा था लेकिन अब तो ऋषभ को सिर्फ इसी गेम का जूनून था।
जावेद के कारण पुलिस की तरफ से तो ऋषभ मुतमईन हो गया था लेकिन फ़ौज के आला अफसरों को राज़ी करना उससे भी मुश्किल था। बादामी बाग में कमांडर साहब के पास जब ये प्लान बताया गया तो वो थोड़ा तिलमिला उठे थे।

“नो वे। ये पाकिस्तान से हमारे देश और हमारी फ़ौज को नुकसान पहुंचाने आया है और तुम इसकी हिमायत कर रहे हो। इतने सालों में इसने पता नहीं कितनी बार फ़ौज पर फायरिंग की होगी और हम इसे ज़िंदा वापस भेज दें। क्योंकि वो यहां जिहाद के बजाय इश्क़ फरमा रहा है।”

“आई अंडरस्टैंड सर।”

ऋषभ को कमांडर साहब के मूड का तुरंत ही अंदाज़ा हो गया था।

“सर हम उसको वापस अपनी शर्तों पर भेजेंगे। उससे काम लेंगे। देयर विल बी नो फ्री लंचेज़ सर।”

ये बात सुन कर कमांडर साहब थोड़ा नरम हो गए थे, “लेट्स सी। लेकिन वो है कहां? कैसे मदद करेगा हमारी?”

ऋषभ ने कमांडर साहब को ये नहीं बताया कि वो फ़ुरक़ान से मिल चुका है और कई बार तो उसने फ़ुरक़ान को अपने पास ही रखा है। उसे डर था कि कमांडर साहब उसको फुरकान की गिरफ्तारी का हुकूम ही ना दे दें। या फिर उससे मिलने की ख्वाहिश कर बैठें। वैसे भी किश्तों में सच बोलने की आदत पड़ चुकी थी ऋषभ को।
और इस पूरे मामले में उसे कमांडर साहब की रजामंदी चाहिए थी। दखलअंदाजी नहीं।

अब वो अक्सर रुखसार और फुरकान से मिलता था। धीरे-धीरे दोनों को ऋषभ पर भरोसा होने लगा था और वो ऋषभ की हर बात मानने लगे थे।

“सच बताओ फुरकान बहुत मुश्किल होगा न तुम्हारे लिए इस तरह सब कुछ छोड़ देना। अपने साथियों के राज़ हमें बताना। उनको नुकसान पहुंचाना।”

“मुश्किल तो है साहिब। पर सच कहूं तो कोई ज्यादा गिला भी नहीं है। जब हम पाकिस्तान में थे तो हमें बताया गया था कि यहां मुसलमानों पर जुल्म हो रहा है। उनको नमाज़ तक पढ़ने की भी इज़ाज़त नहीं है। मस्जिदों में ताले लगे हैं। लेकिन यहां पहुंचा तो मैंने हालात बिलकुल अलग देखे। यहां तो हर मोहल्ले की अपनी मस्जिद है और हर किस्म की अज़ान सुनाई देती है। हमें सिखाया गया कि कश्मीरियों के हक की लड़ाई लड़नी है और यहां हम किसी के घर में इस डर से नहीं बैठते कि कोई कश्मीरी हमें मरवा न दे।”

“हर मुसलमान का फ़र्ज़ है जिहाद, साहिब, लेकिन यक़ीनन ये वो जिहाद नहीं है। खैर मेरी छोड़ो। ये बताओ कि आपको अजीब नहीं लगता। आपके दुश्मन मुल्क से आपकी फौज के खिलाफ लड़ने आया पाकिस्तानी आतंकी आपके साथ इतने आराम से गुफ्तगू कर रहा है। आपके जवान मेरी मेहमान नवाजी कर रहे हैं। कैसा महसूस होता होगा इनको और आपको।”

“कुछ गलत नहीं लगता नवीद। यही तो हमारी फ़ौज की खासियत है। हम मारने से लेकर बचाने तक का काम बखूबी करते हैं।”

ऋषभ ने पिछले कुछ दिनों से जानबूझ कर फुरकान के असली नाम का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। उसने रुखसार को भी ऐसा ही करने को राज़ी कर लिया था। उसके ख्याल में फुरकान को मिटाने की शुरुआत उसके नाम से करना बहुत ज़रूरी था।

अगले चार महीने में फुरकान की बदौलत फ़ौज को कई सफलताएं मिलीं। ऋषभ की टीम के पास आतंकी गतिविधियों की बहुत खबरें आ रही थीं लेकिन फुरकान पर किसी को शक न हो इसलिए वो बहुत सावधानी से उन खबरों का इस्तेमाल करते। वो कई बार सब कुछ पता होने के बाद भी ऑपरेशन नहीं करते और कई बार जानबूझ कर गलत जगह ऑपरेशन कर देते।

इस दौरान फुरकान की बेसब्री थोड़ी बढ़ रही थी। उसने तंज़ीम वालों को अपने वापस पाकिस्तान आने के प्लान का ज़िक्र कर दिया था। वो राज़ी भी हो गए थे लेकिन हमेशा फुरकान को वापस आने से पहले किसी बड़े काम को अंजाम देने की बात कहते थे।

ऋषभ को भी फ़ुरक़ान की हालत का अंदाज़ा था। लश्कर का वादी में अच्छा खासा नेटवर्क था और ज्यादा देर तक वो पाकिस्तानी आकाओं को अंधेरे में नहीं रख सकता था।

“तुम घबराओ मत। जल्दी ही कुछ तरीक़ा निकालेंगे। अच्छा ये बताओ नवीद। जिहाद करना मुश्किल है या इश्क़ करना।”

ऋषभ के इस तरह चतुराई से बात बदलने पर नवीद हल्का सा मुस्कराया था।

“साहिब सबसे मुश्किल है जिहाद में इश्क़ करना। काश कि जिहाद भी इश्क़ की तरह होता। करना नहीं पड़ता बस हो जाता।”

उन दोनों की बातों को चुपचाप सुन रही रुखसार से तब रहा नहीं गया था।

“आप दोनों भी न बस। अल्लाह को आपके हाथों में बंदूक नहीं कलम थमानी चाहिए थी।”

रुखसार आजकल ऋषभ को अफसर कम और दोस्त ज्यादा समझने लगी थी।

“नवीद को जल्दी वापस भेजो न सर। अब डर लगने लगा है।”

वैसे ऋषभ अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा था लेकिन उसके कई बार समझाने के बावजूद आला कमांडर तैयार ही नहीं हो रहे थे। उनके ख्याल में फुरकान से ज्यादा से ज्यादा काम लेने के बाद उसको मार देना ही ठीक था। इससे ये साबित भी हो जाता कि पाकिस्तानी जिहादी यहां आ तो सकते हैं लेकिन बच कर वापस जा नहीं सकते।
दिन बीते जा रहे थे और फुरकान को वापस भेजने के निर्णय लेने पर उच्च अधिकारी टाल-मटोल कर रहे थे। फुरकान भी बहुत बेचैन था। अक्सर ऋषभ से सवाल करता।
“क्या हुआ साहिब? कुछ तय हुआ या नहीं। मुझे तो लगता है कि आप मेरा एनकाउंटर कर दोगे। वैसे आर्मी का तो काम है ही आतंकवादियों को मारना।”

फुरकान के ऐसे कटाक्ष करने से भी ऋषभ पर कोई असर नहीं पड़ा था।

“देखो नवीद, हमारा काम आतंकवाद को खत्म करना है और अगर किसी आतंकवादी को ज़िंदा रख कर आतंकवाद खत्म होता है तो फिर इस से अच्छी बात क्या होगी। और तुम तो वापस जाओगे चाहे इसके लिए मुझे कुछ भी करना पड़े।”

ऋषभ के पास वक़्त कम था। इस साल बर्फ गिरने से पहले कुछ न कुछ तो करना था लेकिन फ़ौज के आला अफसर इतनी आसानी से कहां मानने वाले थे। उनके विचार में अब भी एक पाकिस्तानी आतंकवादी पर भरोसा करना ठीक नहीं था।

बात बहुत ऊपर तक गई। ऋषभ ने सबको यकीन दिलाया कि फुरकान ने अब तक उनकी बहुत मदद की है और आगे भी करेगा। सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मारने जैसे तुलना भी की थी। एक बार तो उसने तैश में आकर अपना इस्तीफ़ा देने की पेशकश भी कर दी थी।

कुछ ऋषभ की ज़िद का असर था। कुछ उसकी छवि का और शायद किस्मत का चमत्कार कि आखिरकार फुरकान को वापस भेजने की अनुमति मिल ही गई।

“ठीक है ऋषभ, लेकिन वो अपने हथियार के साथ नहीं जाएगा। रास्ते में कुछ गडबड कर दी तो कौन ज़िम्मेदारी लेगा।”

“बट सर। वो ऐसे खाली हाथ कैसे जाएगा। वहां पर लश्कर वालों को शक हो जाएगा। वैसे भी वो आजकल इससे कुछ ज्यादा ही सवाल पूछ रहे हैं।”

“मेरे ख्याल से हमें ये सब ठीक वैसे करना चाहिए जैसे कि आम तौर पर होता है। प्लीज सर, सिर्फ एक एक-47 का ही तो सवाल है। ले जाने दीजिए।”

“तुम बहुत ज़िद्दी हो ऋषभ। ठीक है। हथियार भी ले जाने दो। लेकिन अगर इस को बॉर्डर पर लगे हमारे एम्बुश में से किसी ने ठोक दिया तो मुझसे शिकायत मत करना।”

“थैंक यू सर।आई विल मैनेज दैट।”

अब तो ऋषभ की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। आखिर वो दिन आ ही गया जिसके लिए उन्होंने इतनी मेहनत की थी। ये तो उन्होंने पहले ही तय कर लिया था कि गुरेज़ के इलाक़े से फ़ुरक़ान वापस जाएगा।

सब तैयारी करने के बाद ऋषभ और फ़ुरक़ान श्रीनगर से निकले तो रुखसार की आंखें बहुत नम थीं। मानो पूरा झेलम दरिया ही उनमें उमड़ आया हो।

फ़ुरक़ान के चेहरे पर कोई शिकन न थी। उसको नहीं पता था कि आगे क्या होने वाला है। उन दोनों को ऋषभ पर बहुत यकीन था लेकिन फिर भी दोनों थोड़ा बेचैन भी थे। पता नहीं फिर कब मुलाकात हो। और ये भी नहीं पता था कि मिलेंगे भी या नहीं। लाइन ऑफ़ कंट्रोल को पार जो करना था। वहां दोनों तरफ फौज थी और उधर कब क्या हो जाए ये सिर्फ खुदा ही जानता है।

“जानते हो नवीद। गुरेज़ की खासियत क्या है?”

“हां हां साहिब। सुना है बड़ा खूबसूरत और वीरान इलाका है। ऊंचे पहाड़। गहरे नाले। घने जंगल और उनमें छिपकर पार जाने के अनगिनत रास्ते हैं वहां। हमारे कई साथी वहीं से तो अंदर आते हैं।”

“हां वो तो है लेकिन वहां हब्बा खातून की पहाड़ी भी है। कश्मीर के इतिहास की सबसे मशहूर गायिका। उसकी और राजा युसूफ चाक की मोहब्बत से भरी दास्तां को बयान करता है गुरेज़। कहते हैं कि अपने प्रेमी की याद में हब्बा खातून यहीं आंसू बहाते हुए घूमती थी।”

रुखसार ये सुन कर सहम गयी थी और उसके आंसू ने भी और रफ़्तार पकड़ ली थी। वैसे ऋषभ के दिल में भी एक अजीब सा डर था। आज उसकी जिंदगी का सबसे अहम ऑपरेशन था।

तकरीबन चार घंटे का रास्ता था गुरेज़ का। हमेशा हंसते हुए बात करने वाला ऋषभ चुप था।

“क्या हुआ साहिब, आपकी ख़ामोशी बहुत खौफ पैदा कर रही है। कहीं आपने इरादा बदल तो नहीं दिया।”

फुरकान के मज़ाक को ऋषभ ने नज़रंदाज़ कर दिया था।

“थोड़ा सो जाओ नवीद। रात को आराम का बिलकुल मौका नहीं मिलेगा।”

“नहीं साहिब, आज नींद नहीं आएगी और फिर आज के बाद आपसे मुलाक़ात भी पता नहीं कब होगी।”

“मुलाकात तो मुश्किल है नवीद लेकिन मैंने जैसा समझाया है, वहां पहुंच कर वैसा ही करना। भूल मत जाना हमें।”

इसी तरह उस उबड़-खाबड़ रास्ते पर चंद घंटे गुजारने के बाद वो गुरेज़ पहुंच गए। वहां से थोड़ी दूर तक पहाड़ी रास्ता था जिस पर पैदल सफर करना था। रात और गहरी हो चली थी।

“यहाँ से तकरीबन दो किलोमीटर दूर है लाइन ऑफ़ कंट्रोल। उसी के पार है लोसर गांव जहां पर तुम्हें जाना है। ये जो नाला है ना। बस इसी में चलते रहना। नाले के ठीक ऊपर हमारी दो चौकियां हैं और उस तरफ उनके ठीक सामने पाकिस्तानी फ़ौज की। थोड़ा ध्यान से जाना।”

“ठीक है साहिब। वहां तो मैंने बता दिया है। तंज़ीम वाले मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे। बस आप इस तरफ ख्याल रखना। ऐसा न हो कि कल अखबार की सुर्खियों में एक मुजाहिद की मौत की खबर हो।”

“चलो अब जाओ नावेद। खुदा पर भरोसा रखो। हमारा साथ शायद यहीं तक था।”

उस अंधेरी रात में जल्द ही फुरकान उसकी आंखों से दूर हो गया। ऋषभ के दिल में किसी अनहोनी का अंदेशा अब भी था। लाइन ऑफ कंट्रोल पर देश की फौज हमेशा मुस्तैद थी। ऐसे में रात को किसी भी तरह की हरकत होती देख कर उनका कार्रवाई करना लाज़िमी था।

ऋषभ अपने साथियों के साथ अगले कुछ घंटे वहीं रुका रहा। उस दौरान कोई फायरिंग की आवाज़ नहीं होने का मतलब था कि कोई हादसा नहीं हुआ है। लेकिन फुरकान का वहां पर पहुंच कर क्या हुआ होगा इसका ऋषभ को बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था।

वापस आने के बाद अब उसे फुरकान के संदेश का इंतज़ार था। इसी इंतज़ार में कई दिन बीत गए। इस दौरान रुखसार अक्सर उससे फ़ोन पर बात करती। ऋषभ को अब उसके रोने की और उसको सांत्वना देने की आदत हो गई थी।

फिर एक दिन अचानक रुखसार उससे मिलने सीधे उसके दफ़्तर आ गई।

“अरे रुखसार। बिना बताए सुबह-सुबह अचानक यहां। सब ठीक तो है।

“हां सर। मैंने फ़ोन नहीं किया क्योंकि आपसे खुद मिल कर आपको ये बताना चाहती थी। नवीद से बात हुई कल। वो बिल्कुल ठीक है। पहले थोड़ी परेशानी ज़रूर हुई। वहां लोगों को थोड़ा शक था कि वो इस तरह अकेला कैसे वापिस आ गया। उन्होंने तफ्तीश भी की लेकिन नवीद ने अपने जवाबों से सबको मुतमईन कर दिया।” रुखसार का चेहरा ख़ुशी से झूम रहा था।

“अरे वाह। सब खुदा की रहमत है। अब तुम भी तैयारी करो। पासपोर्ट तो पहले ही बना लिया था। बस अब वीज़ा लगवाना है। जल्दी से जल्दी कोशिश करेंगे। और देखो, इस बात का जिक्र यहां पर किसी से भी न करना। अपनी प्रेम कहानी का ढिंढोरा मत पीटना। समझी।”

कुछ दिनों में वीज़ा भी आ गया। रुखसार को श्रीनगर एयरपोर्ट तक छोड़ने गया था ऋषभ। दोनों रास्ते भर खामोश थे और मायूस भी। शायद ये सोचकर कि वो हमेशा के लिए बिछड़ने वाले हैं।

“सर एक बात पूछूं। क्या आपको सच में लगता है कि मुझे यहां सबकुछ छोड़ कर पाकिस्तान चले जाना चाहिए।”

एयरपोर्ट पहुंचने पर जब रुखसार ने ये सवाल किया तो ऋषभ थोड़ा सकपका गया था।

“तुम्हारी मर्ज़ी है रुखसार। अगर रुकना चाहती हो तो रुक जाओ। लेकिन ये याद रखना कि नवीद ने सिर्फ तुम्हारे लिए इतना अहम फैसला लिया था।”

“हां। सही बोल रहे हो सर। मुझे जाना चाहिए। वैसे फ्लाइट का टाइम भी हो गया। वहां पहुंच कर किसी तरीके से राब्ता करूंगी। मेरे घर वालों का ख्याल रखना सर। प्लीज।”

“अरे चिंता मत करो। खुशी-खुशी जाओ। रूखसार आखिर तुमने साबित कर ही दिया कि मोहब्बत की कोई सरहद नहीं होती।”

“सब आपकी वजह से हुआ सर। आपने ये साबित कर दिया कि ख्वाबों की भी कोई सरहद नहीं होती।”

ऋषभ से दूर जाते वक़्त रुखसार की खूबसूरत आंखों में फिर से एक सैलाब उमड़ पड़ा था।

इस तरह फुरकान और रुखसार की नयी जिंदगी की शुरुआत हुई। उनको थोड़ी दिक्कतें जरूर आईं लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक हो गया। ऋषभ ने कई दिन उनके संदेशे का इंतज़ार किया लेकिन उनकी तरफ से किसी तरह की खबर न आने का कारण वो समझता था। उसने ही तो जाते वक़्त उनको होशियारी से रहने की हिदायत दी थी।
उच्च अधिकारियों द्वारा उससे जब भी फुरकान के बारे में पूछा जाता तो उसके पास कहने को कुछ नहीं होता।

“वी टोल्ड यू। तुम भी बहुत जज्बाती हो ऋषभ। उन्होंने सिर्फ तुम्हारा फ़ायदा उठाया। वहां बैठ कर वो हमारी कोई मदद नहीं करेगा।”

अगले साल जैसे ही बर्फ पिघली तो अथमुकाम से लश्कर-ए-तैयबा के 8 आतंकवादियों के एक ग्रुप ने लाइन ऑफ़ कंट्रोल को क्रॉस करने की कोशिश की।
तार काटने के बाद जैसे ही वो अंदर दाखिल हुए तो गेल गली के पास छिपे हुए भारतीय सिपाहियों ने उन पर घात लगा कर हमला कर दिया। सभी आतंकवादी बिना मुक़ाबला किए मारे गए। सुरक्षा बलों के लिए ये बहुत बड़ी सफलता थी।

बादामी बाग में कमांडर साहिब ने खुद ऋषभ को शाबाशी दी थी।

‘वेल डॉन ऋषभ। इतनी पक्की खबर होने के कारण ही यह ऑपरेशन हुआ।”

“थैंक यू सर। मैंने आपसे कहा था ना कि फुरकान को वापिस भेजने में ही हमें ज्यादा फ़ायदा है।”

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