कर्नल सुशील तंवर की कहानी ‘अमानत’

एक अनकहा उसूल था वहां। रात के अंधेरे में जंगली जानवरों के अलावा या तो फौजी बाहर रहते थे और या फिर सीमा पार से घुसपैठ की कोशिश करते आतंकवादी। ऐसे में किसी गांव वाले का रात को बाहर निकलना मौत को दावत देने की तरह था।

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सांकेतिक तस्वीर

कर्नल सुशील तंवर की कहानी ‘अमानत’। कश्मीर का बेहद संवेदनशील इलाका केरन। किसी दौर में ये पाकिस्तान से घुसपैठ कर आने वाले आतंकियों के लिए सबसे बड़ा एंट्री पॉइंट हुआ करता था। यहीं से घुसपैठ कर आया था वो। आया तो था जिहाद के नाम पर कत्ल-ओ-ग़ारत की इबारत लिखने, पर कहानी में ऐसे मोड़ आए कि जिहाद तो हुआ, लेकिन वो नहीं हो सका जिसकी उसे उम्मीद थी। 

कश्मीर की खूबसूरत वादियों में बसा एक छोटा सा गांव है केरन। थोड़ी सी आबादी वाला ये गांव लाइन ऑफ कंट्रोल के बिलकुल नजदीक है। दुर्गम पहाड़ियों और तेज़ बहते नदी-नालों से गुजरती हुई इस रेखा ने दो मुल्कों को बांटने के अलावा कई परिवारों और इंसानी रिश्तों में भी एक गहरी दरार पैदा कर दी है।

1990 से कश्मीर में आतंकवाद शुरू होने के साथ ही सीमा पर बसे इस इलाक़े की भी अहमियत बढ़ गई थी। 90 के दशक में तो केरन और इसके आसपास के गांवों से इतनी घुसपैठ होती थी कि दहशतगर्दों ने इसको हाईवे का नाम दे दिया था। ये अलग बात है कि केरन और उसके सबसे नजदीक वाले शहर कुपवाड़ा के बीच आने जाने के लिए कोई पक्की सड़क भी नहीं थी।

जैसे-जैसे कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा वैसे-वैसे रियासत में भारतीय फौज की तादाद भी बढ़ी। और फौज के आने के साथ ही जहां एक ओर उस इलाक़े से घुसपैठ में कमी आई वहीं दूसरी ओर धीरे-धीरे तरक्की भी हुई।

लेकिन फिर भी मानो ये इलाका अब भी किसी पिछड़े हुए युग में बसा हुआ था। जहां पूरा देश 3G और 4G के बग़ैर जीने की कल्पना भी नहीं करता था वहीं केरन में सिर्फ एक एसटीडी बूथ था, बाहर की दुनिया से राब्ते के लिए। पिछले दो तीन सालों में कुछ लोगों ने मोबाइल फोन तो ले लिया था लेकिन उसका सिग्नल कुपवाड़ा और केरन के दरम्यान किसी अजगर के माफिक फैली शमशाबारी नामी पहाड़ी पर पहुंचने के बाद ही आता था। किसी दिन बिजली सात आठ घंटों से ज्यादा आ जाती तो उस दिन मानो गांव वालों की दीवाली हो जाती।

मगर इन आधुनिक सेवाओं की कमी कुदरत ने अपनी सौगातों और अदभुत नजारों से पूरी कर दी थी।

इसी खूबसूरत गांव मे रहता था अल्ताफ खटाना। जंगल के पास एक छोटा सा कच्चा मकान था उसका। थोड़ी सी जमीन थी जिस पर खेती करके अपने परिवार का पेट पालता था। इसके बावजूद उनका बड़ी आसानी से गुजारा हो रहा था क्यूंकि उसका परिवार कुछ खास बड़ा नहीं था। सिर्फ चार लोग ही तो थे। वो, उसकी बीवी रेशमा और दो छोटे से बच्चे। उनके खर्चे तो वैसे ही बहुत कम थे क्योंकि ना वहां जाने को कोई बाज़ार या शॉपिंग मॉल था और ना ही उन्हें किसी ऐशो-आराम की चाहत थी।

कुछ साल पहले अल्ताफ नौकरी करने श्रीनगर तो गया था लेकिन शहर की अफरा-तफरी भरी ज़िंदगी उसको बिलकुल रास नहीं आयी थी। वैसे भी देहाती गुज्जरों को शहरी कश्मीरी लोग हमेशा नीची नज़रों से ही देखते थे।

सिर्फ दो साल एक होटल में वेटर की नौकरी करने के बाद वो वापस गांव आ गया था और सीधी-साधी ज़िंदगी बसर करने लगा था।

यूं तो कभी-कभी वो और रेशमा अपने बच्चों के मुस्तकबिल के बारे में सोचते ज़रूर थे और ताज्जुब करते कि क्या कभी उसके बच्चों को भी किसी बड़े शहर में ऐशो-आराम का जीवन गुजारने का मौका मिलेगा। इसी तरह के कुछ अरमान तो उनके दिल में भी पनपते थे लेकिन फिर वो अपनी गरीबी और साधारण सी जिंदगी से मुतमईन हो कर रह जाते।

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सुबह जल्दी उठ कर अल्ताफ मवेशी लेकर जंगल में जाता। दिन में खेत में काम करता। रेशमा घर संभालती। दोनों बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते। और सब गांव वालों की तरह शाम होते ही वो अपने घर में घुस जाते।

एक अनकहा उसूल था वहां। रात के अंधेरे में जंगली जानवरों के अलावा या तो फौजी बाहर रहते थे और या फिर सीमा पार से घुसपैठ की कोशिश करते आतंकवादी। ऐसे में किसी गांव वाले का रात को बाहर निकलना मौत को दावत देने की तरह था।

वो सितंबर के महीने की शुरुआत थी। सर्दी का मौसम वादी के आंगन पर दस्तक दे रहा था। उस दिन भी रोज़ाना की तरह अल्ताफ जल्दी हो सो गया था जब आधी रात को उसकी नींद गोलियों की ताबड़तोड़ आवाज़ से खुली।

वैसे तो लाइन आफ कंट्रोल पर भारत और पाकिस्तान की फौजें एक दूसरे पर अक्सर गोले बरसाती थीं। लोगों को ऐसे धमाके सुनने की आदत पड़ गई थी पर इन आवाजों को सुन कर अल्ताफ को अंदेशा हुआ कि ज़रूर गांव के पास ही कुछ मसला हुआ है।

लगातार आ रही उन खौफनाक आवाज़ों के बावजूद अल्ताफ का परिवार आराम की नींद सो रहा था कि तभी उनके दरवाज़े पर जोर-जोर से खटखटाहट हुई।

“कौन है भाई? इतनी रात को क्यूं दरवाज़ा पीट रहे हो?”

कोई जवाब ना मिलने पर अल्ताफ खिसियाते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ा।

“अरे कौन है? बोलते क्यूं नहीं?”

बाहर से कोई जवाब आने के बजाय खटखटाने की आवाज़ और भी तेज़ हो गई।

“खोल रहा हूं भाई। थोड़ा सब्र करो। अन्दर बच्चे सो रहे हैं।”

जैसे ही अल्ताफ ने दरवाज़ा खोला तो उसकी सांस वहीं अटक गई। इससे पहले वो कुछ कह पाता बाहर खड़ा उसका अनचाहा मेहमान झट से घर के अंदर दाखिल हो गया और उसको दरवाज़ा बंद करने का फरमान जारी कर दिया।

काला पठानी सूट पहने उस आदमी की पीठ पर एक भारी बैग लटका हुआ था । उसके पसीने और मिट्टी से तर शरीर पर झूलती कलाश्निकोव राइफल ने अल्ताफ के मन में उठे हर सवाल का जवाब दे दिया।

“थोड़ा पानी मिलेगा भाई जान?”

इसी गुज़ारिश के साथ वो अजनबी एक कोने में पसर गया। थका-हारा और थोड़ा घबराया हुआ सा।

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कर्नल सुशील तंवर

सोहैल नाम था उसका। पाकिस्तान के मुल्तान शहर का रहना वाला। वही मुल्तान जिसके बारे में एक बहुत पुरानी कहावत है कि ये शहर सिर्फ चार चीज़ों के लिए बहुत मशहूर है। गरमी, धूल, भिखारी, और कब्रिस्तान।

छोटी सी उम्र में ही सोहैल जैश-ए-मोहम्मद तंजीम में शामिल हो गया था। उसको कश्मीर में जिहाद जो करना था। वो अपने चार साथियों के साथ सीमा-पार से घुसपैठ करने में तो सफल हो गया था लेकिन थोड़ा सा रास्ता तय करने के तुरंत बाद उनका ग्रुप फौज के लगाए एंबुश में फंस गया था।

खुदा की रहमत थी कि वो किसी तरीके से फौज के चंगुल से निकल गया और फिर गिरता-पड़ता अल्ताफ के घर पहुंच गया।

इस तरह वो तो बच गया लेकिन अब अल्ताफ एक बहुत बड़ी परेशानी में पड़ गया था। सोहैल की हालत देख कर बड़ा तरस आया था उसको। उसने मन ही मन सोचा कि गैर मुल्क में अनजाने लोगों के लिए कैसे कोई इतना बड़ा जोखिम उठा सकता है। उसे अंदाज़ा नहीं था कि ये मजहबी जुनून कितने कमाल की चीज है।

यही जुनून सोहैल को जिहाद की ओर खींच लाया था। बहुत गर्मजोशी से उसने अपना सफर शुरू किया था लेकिन फौज के घेरे में फंस जाने के साथ ही उसे इस मुश्किल डगर का अहसास हो गया था। फिर भी उसके दिल में जेहादी जज्बा बरकरार था।

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और सोहेल के पास अब अपनी मंज़िल तक पहुंचने के लिए सिर्फ अल्ताफ का सहारा था।

“देखो, मैं तुम्हे परेशान नहीं करना चाहता। इसलिए जैसा मैं कहूंगा वैसे ही करना। मुझे हलमतपुरा गांव पहुंचना है। यहां मै किसी को नहीं जानता हूं। लेकिन इतना ज़रूर पता है कि यहां सब मुसलमान भाई हैं और इसलिए मुझे तुम सबसे मदद मिलने की बहुत उम्मीद है।”

“भाई जान, आप जो कोई भी हो अब हमारे मेहमान हो। थोड़ा सा इत्मीनान रखो। अभी आराम करो। सुबह होने पर आगे की सोचेंगे।”

अल्ताफ वैसे तो बहुत उलझन में था लेकिन अपनी बेचैनी का एहसास सोहैल को नहीं होने देना चाहता था। उसे बस सुबह होने का इंतेज़ार था। सोहैल घर के एक कोने में चुपचाप लेट गया था लेकिन उसकी आंखो से नींद गायब थी। ट्रेनिंग के दौरान उनको बार-बार बताया गया था कि कश्मीर में पहुंच कर किसी पर कोई भरोसा नहीं करना है। उसके दिमाग में अब बस यही ख्याल था कि किसी तरह बताए हुए इलाक़े हलमतपुरा में पहुंच जाए। उसे यकीन था कि वहां पर उसकी तंजीम वाले साथी उसको ढूंढ ही निकालेंगे।

जैसे ही सुबह की नमाज़ का वक़्त हुआ तो सोहैल वज़ू कर घर के अंदर ही नमाज़ पढ़ने की जगह तलाशने लगा। उसे ऐसा करते देख अल्ताफ भी गांव की मस्जिद में जाने के बजाय उसके साथ ही नमाज़ के लिए बैठ गया था।

नमाज़ पढ़ने के बाद जब अल्ताफ रोज़ की तरह खेत में जाने को तैयार हुआ तो सोहैल का माथा ठनका।

“कहां जा रहे हो। यहां बैठो चुपचाप। जब तक मैं यहां हूं, तब तक कोई घर से बाहर नहीं जाएगा।”

अल्ताफ ने उसको फिर समझाने की कोशिश की।

“देखो भाई, बाहर का माहौल पता करना बहुत जरूरी है। फौज यक़ीनन चारों तरफ फैली होगी। ऐसे में आप कैसे यहां से जाओगे। और घबराओ मत। मेरा परिवार तो यहीं है ना। इनको मैं खामख्वा खतरे में क्यों डालूंगा? जब तक कोई तरीक़ा नहीं निकलता तब तक आप यहीं रहो।”

अल्ताफ़ की बात में सोहैल को थोड़ी समझदारी नजर आई।

“ठीक है। लेकिन अगर कोई भी होशियारी की, तो उसके अंजाम की जिम्मेवारी तुम्हारे सिर पर होगी। समझे?”

उधर रेशमा भी घबराई हुई थी। दो छोटे-छोटे बच्चे और ऊपर से ये बेकार का बवाल। उसने अल्ताफ़ को इशारे से अपनी ओर बुलाया और दबी आवाज़ में उसको खबरदार किया।

“ये आप किन चक्करों में पड़ गए? इसको यहां से दफा करो। अगर फौज आ गई तो हमारे पास जो थोड़ा बहुत है वो भी बर्बाद हो जाएगा।”

“हां हां जानता हूं। तुम बिल्कुल सही कह रही हो। लेकिन अब हम कर भी क्या सकते हैं। और ये भी तो कितना मजबूर है। इसकी हालत तो देखो। तुम बच्चों का ख्याल रखो। जब तक ये यहां है तब तक वो उस एक कमरे के अंदर ही रहेगा। दो-तीन दिन की तो बात है। बाकी, जो अल्लाह की मर्ज़ी होगी वही होगा।”

अल्ताफ चार घंटे बाद वापस आया तो सोहैल की बेचैनी कुछ कम हुई।

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“कहां रह गए थे? इतना वक़्त क्यों लगा दिया?”

“अरे भाई जान, बाहर जंगल की तरफ बहुत फौज है। बड़ा ऑपरेशन चल रहा है। आपके बाकी चार साथियों की लाशें उठा कर पुलिस चौकी में रखी हैं। मेरी मानो तो आज आप यहीं रुको। जैसे ही इलाक़े से फौज चली जाए आप भी निकल जाना।”

अब ये सुन कर सोहैल की परेशानी और बढ़ गई। साथ वाले सब शहीद हो चुके थे। ना उसके पास कोई फोन था और ना कोई रेडियो सेट। ना रास्ते का पता था और ना लोगों की जानकारी। बस ये पता था कि हलमतपुरा गांव में उनका पहला पड़ाव था। इस हालात में अब अल्ताफ ही उसको उसकी मंज़िल तक पहुंचा सकता था।

उधर फौज का जंगल में तलाशी अभियान जारी था। शायद उन्हें कोई नया सुराग हासिल हुआ था, जिसकी वजह से चौबीस घंटों बाद भी चप्पे-चप्पे पर सैनिक तैनात थे।

अब सोहैल के लिए वहीं छुप कर रहना मज़बूरी बन गई थी। अल्ताफ भी अपनी तरफ से सोहैल का पूरा ख्याल रखने की कोशिश कर रहा था।

“भाई जान, माफ करना। हमारे पास रूखा-सूखा जो कुछ भी है वही आपके सामने पेश कर सकते हैं।”

“क्या बात कर रहे हो। तुमने तो मुझे पनाह दे कर मेरी जान बचाई है। अगर इसके लिए तुम्हें पैसों की जरूरत हो तो मुझसे ले लो।”

सोहैल ने अपना बैग खोल कर अल्ताफ को कुछ पैसे देने की कोशिश की, तो अल्ताफ ने साफ मना कर दिया।

“नहीं नहीं। आपसे पैसे ले कर मैं खुदा को क्या जवाब दूंगा। आप पाकिस्तान से इतनी दूर यहां जिहाद के लिए आए हो। हम आपकी इतनी खिदमत तो कर ही सकते हैं।”

“वैसे ये बताएं कि क्या आपके पास अपने किसी भी साथी का कोई अता पता नहीं है? कुछ तो तरीक़ा निकालना होगा ना किसी से राब्ता करने का। वैसे तो हलमतपुरा गांव पहाड़ी के पार ही है। बस एक रात का सफर होगा। लेकिन आप वहां किस से मिलोगे? कैसे अपने लोगों तक पहुंच पाओगे?”

“बताया ना अल्ताफ, मुझे कुछ पता नहीं है। लेकिन वहां पहुंच कर शायद कुछ बात बन जाए। बस एक बार यहां से निकल जाऊं।”

“भाई जान, आप बुरा ना मानो तो एक बात बोलूं। जब से आप आए हो तब से मेरे दिमाग में बार-बार यही ख्याल आ रहा है।”

“हां हां बोलो। अब तो मैं वैसे भी तुम्हारे सहारे ही हूं। क्या हुआ? सब खैरियत तो है?”

“वो क्या है कि…” अल्ताफ थोड़ा सा हिचकिचाया और फिर बोला

“ये जो आपके जूते हैं। बहुत शानदार हैं। काफी महंगे होंगे ना? एक बार पहन कर देख सकता हूं क्या?”

सोहैल ये सुन कर हंसने लगा था।

“अरे इतनी सी बात। ये लो। पहनो। पहाड़ी रास्तों के लिए बेहद अच्छे हैं। बर्फ का भी कोई असर नहीं होता इन पर। मेरे पास अगर और एक जोड़ा होता तो पक्का तुम्हें दे देता।”

“चाहो तो कुछ पैसे ले लो। आठ-दस हज़ार में आ जाएंगे। खरीद लेना।”

एक बार फिर सोहैल ने पैसे के लिए अपने बैग की तरफ हाथ बढ़ाया, तो अल्ताफ ने फिर उसे हाथ जोड़ कर मना कर दिया।

“भाई जान, एक और बात कहनी थी। अल्ताफ फिर घबराते हुए बोला।”

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“अभी भी फौज जंगल की तलाशी ले रही है। हो सकता है कि इसके बाद घरों की भी तलाशी लेना शुरू कर दे। अगर ऐसा हुआ तो फिर बहुत खतरा हो सकता है।”

“ठीक है अल्ताफ। समझदार को इशारा काफी है। मैं अंधेरा होते ही निकल जाऊंगा। मुझे बस ये बता दो कि हलमतपुरा जाने का रास्ता किस तरफ है?”

“अरे कैसी बात कर रहे हो भाई। चारों तरफ फौज लगी है। दो चार दिन में सब हालात ठीक हो जाएंगे। फिर आप जंगल के रास्ते चले जाना। लेकिन अभी के लिए तो आपको यहीं रहना होगा। अल्ताफ ने उसे समझाया।”

“लेकिन तुम तो कह रहे थे कि गांव में घर घर की तलाशी शुरू हो सकती है।”

“हां। लेकिन उससे बचने के लिए मेरे पास एक तरकीब है। यहीं हमारे घर के पास पहाड़ में बड़े-बड़े पत्थर हैं जिसके कारण कई छोटी सी कुदरती गुफ़ाएं बनी हुई हैं। यहां से तकरीबन आठ सौ मीटर दूर होंगी। दिन में वहां आराम से रह सकते हैं। और रात को आप घर में आ सकते हैं।”

“वैसे भी फौज तो दिन के उजाले में ही घरों की तलाशी लेती है। दो तीन रोज़ की बात है। मेरे ख्याल से ये ठीक रहेगा। बाकी आप की मर्जी है।”

सोहैल ने बहुत सोचा। हो सकता है कि अल्ताफ कोई होशियारी कर रहा हो लेकिन उसके पास अल्ताफ की नीयत का पता लगाने का कोई जरिया नहीं था। वैसे भी पिछले दो दिनों से वो अल्ताफ के भरोसे ही तो रह रहा था।

काफी कश्मकश में था सोहैल।

ये भी सही था कि वो अगर घर में फौज के घेरे में फंस गया तो बचना नामुमकिन था। ट्रेनिंग के दौरान भी तो उनको ज्यादा से ज्यादा जंगलों और पहाड़ों में छुपने की हिदायत दी गई थी।

यही सोच कर अगले दिन उजाला होने से पहले ही सोहैल तैयार हो गया। अल्ताफ ने दिन भर के लिए थोड़ा पानी और खाने का सामान साथ रख दिया। अपनी AK 47 और ग्रेनेड के अलावा बाकी सब सामान उसने अल्ताफ के घर पर ही छोड़ दिया।

“भाई जान, ये आपका बैग।”

“इसको यहीं रखो। मेरी अमानत है। अब इसको उठा कर कहां भटकूंगा? वैसे भी रात को तो यहां वापस आना है। है ना?”

पूरा दिन सोहैल पत्थरों वाली गुफा में छुपा रहा। और अंधेरा होते ही अल्ताफ उसको वापस घर ले गया। उसने सोहैल को बताया कि फौज अब भी ऊपर वाली पहाड़ी पर सर्च ऑपरेशन कर रही है। उसका अंदाज़ा था कि शायद दो तीन दिन के बाद फौजी अपनी चौकियों पर वापस चले जाएंगे और फिर सोहैल अपना सफर शुरू कर सकता है।

अगले दो दिन दोनों ने इसी तरह गुजारे। पूरा दिन सोहैल अल्ताफ की बताई हुई जगह पर छुप कर बैठता और रात होते ही अल्ताफ उसको घर में ले आता।

इसी दौरान थक हार कर फौज का ऑपरेशन भी समाप्त हो गया।

“भाई जान। आज रात को आप हलमतपुरा की तरफ निकल जाना। मैं अंधेरा होते ही आपको पहाड़ी रास्ते पर छोड़ दूंगा। माफ़ करना पर मैं आपको हलमतपुरा तक नहीं ले जा सकता। मुझे डर लगता है। ये छोटा सा परिवार है मेरा। मुझे कुछ हो गया तो इनका क्या होगा।”

“अरे नहीं। तुमने इतना कर दिया यही बहुत है।”

“ठीक है, भाई जान। फिर शाम को मिलते हैं।”

अल्ताफ सोहैल को छोड़ कर वापस घर आ गया था। थोड़ी देर उसने खेत में काम किया और फिर दोपहर का खाना खा कर वो सो गया।

तकरीबन तीन बजे उसकी नींद एक बड़े धमाके से खुली। दो तीन मिनट गोलियां भी चली थीं। आवाज़ जैसे बिलकुल नजदीक से ही आ रही थी।

अल्ताफ समझ गया कि पक्का उसी गुफा वाले इलाक़े में फायरिंग हुई है लेकिन सोहैल का क्या अंजाम हुआ होगा इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल था।

थोड़ी देर में ही सब साफ हो गया । फौज को ज्यादा वक़्त नहीं लगा था सोहैल को मारने में। उसकी लाश को उठा कर फौज पोस्ट पर ले आई थी। गांव के इतना नजदीक एनकाउंटर हुआ था कि बहुत लोग वहां इकट्ठा हो गए थे।

दो हफ्तों के बाद अल्ताफ को श्रीनगर जाना था। वो जब तैयार हो कर चलने लगा तो उसने एक नजर अपने काले जूतों पर डाली। सच में बहुत अच्छे थे वो जूते। सोहैल ने बिलकुल सही तो कहा था उन जूतों के बारे में।

जब अल्ताफ ने केरन में तैनात आर्मी इंटेलिजेंस के कैप्टन विजय मिश्रा को सोहैल के बारे में इत्तिला दी थी तो उसने कैप्टन साहब के सामने बस दो शर्तें रखी थीं।

एक तो एनकाउंटर उसकी बताई हुई जगह पर होगा और दूसरी ये कि सोहैल के जूते उसको दिए जाएंगे।

और इस तरह एक सोची समझी तरकीब के मुताबिक़ उसने सोहैल का भरोसा जीता और उसे उस गुफा में दो दिन रखने के बाद कैप्टन विजय को वहां का पता दे दिया।

तभी तो फौज को ज्यादा वक़्त नहीं लगा था सोहैल को ठिकाने लगाने में।

सबकुछ सोचे हुए तरीके से ही हुआ। सोहैल को वहीं केरन में उसके बाकी साथियों के साथ दफना दिया गया। गांव वालों को अपने इलाक़े में हुए एनकाउंटर के बारे में थोड़ा अचरज तो हुआ लेकिन फिर सब अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के मसलों में मशगूल हो गए थे।

और आज दो हफ्तों बाद अल्ताफ़ श्रीनगर जा रहा था। गांव वालों की नज़रों से दूर बैंक में अपना खाता खुलवाने।

उसने तय किया था कि कुछ दिनों के बाद वो उस खाते में धीरे-धीरे पैसे जमा करवाना शुरू कर देगा।

कैप्टन विजय ने उसे इतनी पुख्ता खबर देने के लिए दो लाख रुपए देने का वादा किया था।

और सोहैल की अमानत भी तो अब तक उसके पास थी। वो बैग जिसमें तकरीबन पांच लाख रुपए थे। जिसके बारे में उसने किसी को कुछ नहीं बताया था। कैप्टन विजय को भी नहीं। उसी बैग की खातिर तो उसने बहुत सोच-समझ कर बड़े इत्मीनान से ये पूरा चक्रव्यूह रचा था।

अल्ताफ की नज़रों में खुदा ने सोहैल का जिहाद इस तरह ही मुकम्मल होना तय किया था। क्योंकि जिहाद का मकसद भी तो जरूरतमंदों की मदद करना ही होता है।

और वो बैग जैसे उसके लिए बस अल्लाह का एक तोहफा था। सोहैल की दी हुई उस अमानत की वजह से अब अल्ताफ के परिवार का मुस्तकबिल यकीनन थोड़ा बेहतर होने वाला था।

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