पूरी दुनिया से दुश्मनी मोल ले रहा चीन, मकसद क्या है?

अब चीन सीमा विवाद को सुलझाने की बजाय धीरे-धीरे सीमा के अधिक से अधिक हिस्से को अपने कब्ज़े में लेना चाहता है। लद्दाख की सीमा की बात करें तो चीन 1959 की सीमा को सही सीमा मानता है और भारत 1962 की लड़ाई के बाद की सीमा को सही सीमा मानता है।

India China Tension

पूरी दुनिया में अलग-थलग पड़ गया है चीन। फोटो स्रोत- सोशल मीडिया

चाणक्य ने कहा था कि शत्रु को पहले कूटनीति से परास्त करके मित्रहीन बना लेने के बाद ही उस पर वार करना चाहिए। वर्तमान में अगर किसी देश को मित्रहीन माना जा सकता है तो वह भारत नहीं बल्कि चीन है। चीन के वूहान शहर से फैली कोविड-19 की महामारी ने लगभग पूरी दुनिया को तबाह कर रखा है। सभी देश महामारी से जूझ रहे हैं और इसकी चेतावनी देने में देरी करने और अपने यहां से जाने वाली उड़ानों को बंद न करने के लिए चीन को कोस रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिका चीन से इतना नाराज़ है कि रिश्ते सत्तर के दशक से पहले के दौर में जाते नज़र आ रहे हैं। अमेरिका के साथ चल रही अनबन की छाया कनाडा और चीन के रिश्तों पर भी पड़ी है। कनाडा ने चीनी हुआवे कंपनी के अधिकारियों को गिरफ़्तार किया था। चीन ने कनाडा के दो व्यापारियों को जासूसी के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया है। चीन ने ऑस्ट्रेलिया और वियतनाम से भी दुश्मनी मोल ले ली है। ताईवान और फ़िलिपीन्स के साथ तो उसके झगड़े चलते ही रहते हैं। अपने सुरक्षा कानून को हांग-कांग में भी लागू करने का प्रस्ताव लाकर उसने हांग-कांग ही नहीं सारी दुनिया को नाराज़ कर लिया है।

दुनिया भर में हो रही निंदा और चिंता के इस माहौल को शांत करने के लिए कोई शांति और सुलह का क़दम उठाने की बजाए चीन ने पिछले सप्ताह भारत के साथ चले आ रहे पुराने सीमा-विवाद को और भड़का लिया है। अक्साई चिन की गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों पर रात के अंधेरे में किए गए हमले की दुनिया भर के समाचार माध्यमों में निंदा हो रही है। चीन की आक्रामक नीति को लेकर न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट, गार्डियन, ऑब्ज़र्वर, टाइम्स और इकॉनॉमिस्ट जैसे प्रतिष्ठित समाचार माध्यमों के साथ-साथ मेल और सन जैसे लोकप्रिय टैब्लॉएड अख़बारों ने भी चीन और भारत की सेनाओं के बीच हुई झड़प और उससे बढ़े तनाव को लेकर रिपोर्टें, टिप्पणियां और लेख छापे हैं। कार्नेगी शांति एंडावमेंट, IISS और टैक्सस नेशनल सिक्योरिटी रिव्यू जैसे कुछ थिंक टैंकों ने भी चीन की चाल और रणनीति का आकलन करने की कोशिशें की हैं।

किसी को यह बात समझ में नहीं आ रही कि चीन को ऐसी विषम परिस्थिति में भारत से झगड़ा मोल लेने की क्यों सूझी है। कुछ लेखकों का मानना है कि चीन लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाकर अक्साई चिन पर हक़ दोहराने के भारत के क़दम से आशंकित है और भारत को बांध कर रखना चाहता है। लेकिन अक्साई चिन पर तो भारत ने हमेशा से अपना दावा रखा है। लद्दाख़ को केंद्र शासित प्रदेश बनाने से चीन के किसी काम में साफ़ दौर पर कोई अड़चन आती दिखाई नहीं देती। कुछ लोग मानते हैं कि चीन डारबुक से दौलत बेग ओल्डी सैनिक अड्डे को जोड़ने वाली भारत की नई सड़क से आशंकित है जो श्योक नदी के किनारे-किनारे बनी है। लेकिन इस सड़क को बनते हुए तो तेरह साल हो गए और यह पिछले साल बनकर तैयार हो गई थी। उसके लिए इस समय, सीमा में घुसपैठ करने से क्या हासिल हो सकता है? वैसे वास्तविक नियंत्रण रेखा के आसपास सड़कों का जाल बिछाने की शुरुआत तो ख़ुद चीन ने की थी। भारत तो केवल उसके जवाब में अपने बचाव का प्रबंध कर रहा है।

पूरी टिप्पणी सुनें:

कुछ लोग मानते हैं कि चीन, भारत की अमेरिका के साथ बढ़ती दोस्ती से चिंतित है। उसे भारत, अमेरिका जापान और ऑस्ट्रेलिया की गोलबंदी से डर है। लेकिन सोचिए, भारत की सीमा में घुसने से यह गोलबंदी और भारत की अमेरिका से बढ़ती दोस्ती कमज़ोर होगी या और गहरी होगी? ब्लूमबर्ग में छपे अपने लेख में मिहिर शर्मा ने चीन की इस चाल पर आर्थिक दृष्टि से कुछ सवाल उठाए हैं। जबकि चीन की तरफ़ से लिखने वाले कुछ टीकाकारों का विचार है कि भारत कोविड-19 महामारी से मिले मौक़े का फ़ायदा उठा कर अमेरिका और यूरोप को जाने वाली सप्लाई चेन को चीन से हड़पना चाहता है।

चीन, भारत को सीमाओं की रक्षा में उलझा कर अपना क्षेत्रीय प्रभाव फैलाना और भारत को व्यापार प्रतिद्वंद्वी बनने से रोकना चाहता है। यदि यह सही है तो यह बहुत बड़ी भूल है। क्योंकि यदि अमेरिका ने यही सोच कर चीन को उलझाए रखा होता और आगे न बढ़ने दिया होता तो न तो चीन विकास कर पाता और न अमेरिका। भारत आबादी में चीन के बराबर का देश है। अभी चीन के व्यापार भागीदारों में उसका स्थान बारहवां सही लेकिन यह आंकड़ा बहुत जल्दी बदलेगा और भारत उसका एक बड़ा व्यापार साझीदार बनकर उभर सकता है। इतनी बड़ी मंडी के लोगों को नाराज़ करके चीन अपना तो बहुत बड़ा नुकसान कर ही रहा है पूरी दुनिया के विकास में रोड़े अटका रहा है।

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इकॉनोमिस्ट के चेगुआन स्तंभ में डेविड रेनी ने लिखा है कि अपने पड़ोसियों और नज़दीकी देशों पर दादागिरी कायम रखना चीनी कूटनीति की एक ख़ासियत रही है। वह ख़ुद तो लड़ाई में नहीं उलझना चाहता पर अपना दबदबा कायम रखने के लिए उन देशों को उलझाए रखना चाहता है जो उसे चुनौती दे सकते हैं। हो सकता है पिछले सोमवार की घटना इसी रणनीति का हिस्सा हो। ब्रितानी अख़बार ऑब्ज़र्वर में छपे एमा ग्राहम हैरिसन के लेख में कुछ जाने-माने चीन विशेषज्ञों ने चीन के सीमा अतिक्रमण के बारे में अपनी-अपनी राय दी है। जर्मन मार्शल फ़ंड के वरिष्ठ सदस्य एंड्र्यू स्मॉल का मानना है कि चीनी सेना वास्तविक नियंत्रण रेखा के कई मोर्चों पर पिछले कई वर्षों से अपनी स्थिति मज़बूत करती आ रही है। चीन ने केवल गश्त लगाने की बजाय सेना को स्थाई रूप से तैनात कर दिया है और पक्की सड़कों और ठिकानों का जाल बिछाया है। पिछले सोमवार का घाती हमला स्थानीय कमांडरों के तैश का नहीं बल्कि सर्वोच्च कमान से मिली हरी झंडी का नतीजा है।

अमेरिकी शोध संस्थान MIT के सुरक्षा अध्ययन केंद्र के निदेशक टेलर फ़्रेवल का मानना है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, कोविड-19 की महामारी की वजह से दुनिया भर में हुई बदनामी, अमेरिका के साथ बढ़ते झगड़े और अर्थव्यवस्था की बुरी हालत की वजह से इन दिनों गहरे राजनीतिक दबाव में हैं। भारत, वियतनाम, हांग-कांग और ताईवान को लेकर आक्रामक होते चीन के तेवर इसी का नतीजा हैं। शी जिनपिंग जनता का ध्यान महामारी और आर्थिक बदहाली से हटा कर चीन पर निशाना साध रहे दुश्मनों की ओर लगाना और राष्ट्रवाद की भावना को हवा देना चाहते हैं। दिलचस्पी की बात यह है कि चीनी प्रचार तंत्र और भारत के विपक्षी, मोदी सरकार पर भी यही आरोप लगाते हैं। अमेरिकी विदेश विभाग के पूर्व सलाहकार और कार्नेगी शांति एंडावमेंट के वरिष्ठ सदस्य एशली टैलिस का मानना है कि भारत के ख़िलाफ़ शी जिनपिंग की आक्रामक नीति दिखाती है कि भारत को लेकर उनकी समझ कितनी कमज़ोर है। गलवान घाटी में हुए हमले जैसी घटनाओं से चीन भारत की उस नई पीढ़ी को भी खो बैठेगा जो अतीत की दुश्मनी को भुला कर नया अध्याय खोल सकती थी।

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तो फिर चीन की चाल और रणनीति आख़िर क्या है? वॉशिंगटन स्थित स्टिमसन सेंटर के चीनी अध्ययन केंद्र के निदेशक युन सुन ने टैक्सस नेशनल सिक्योरिटी रिव्यू में छपे अपने लेख में इस पर गंभीरता से विचार किया है। युन सुन का मानना है कि गलवान घाटी में हुई झड़प भले ही योजना बना कर न की गई हो, लेकिन चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा पर और उसके आसपास बड़े योजनाबद्ध तरीके से काम कर रहा है। भारत की तरह चीन में भी पंचवर्षीय योजनाएं बनती हैं जिनमें भावी कार्यक्रम तय किए जाते हैं। दसवीं से बारहवी पंचवर्षीय योजनाओं में शिनजियांग, तिब्बत और इनर मंगोलिया जैसे सीमावर्ती प्रांतों के भीतर सड़कों और पुलों के जाल बिछाए गए। इन दिनों चल रही तेरहवीं पंचवर्षीय योजना में सीमावर्ती प्रांतों को आपस में जोड़ने वाली सड़कों और पुलों के जाल बिछाए जा रहे हैं ताकि सीमावर्ती इलाकों को चीन के बेल्ट एंड रोड कार्यक्रम के साथ जोड़ कर रखा जा सके। डोकलाम, पैंगांग झील और गलवान घाटी में बनाई जा रही सड़कें और सैनिक ठिकाने इसी का हिस्सा हैं।

युन सुन का मानना है कि चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा को नियंत्रण रेखा में बदलना चाहता है। चीन जानता है कि सीमा को लेकर भारत और चीन के आपसी मतभेद इतने गहरे हैं कि उन्हें किसी समझौते से हल नहीं किया जा सकता। चीन चाहता था कि रूस के साथ सीमा विवाद के हल की तरह भारत के साथ सीमा विवाद का भी कोई हल निकल आए। इसके लिए उसने अक्साई चिन के बदले अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा छोड़ने का प्रस्ताव रखा था। 1960 से लेकर 1980 तक चीन प्रस्ताव को रखता रहा और भारत इसे ठुकराता रहा क्योंकि 1962 की लड़ाई के बाद चीन अरुणाचल प्रदेश से हट चुका था और अरुणाचल पहले से ही भारत के कब्ज़े में था। इसलिए भारत अक्सई चिन की और जगह क्यों देता। लिहाज़ा, चीन ने 1980 के बाद से अरुणाचल के भूटान से लगते तवांग ज़िले पर भी दावा करना शुरू कर दिया क्योंकि तवांग में दलाई लामा का जन्म हुआ था। इसलिए यदि तवांग भारत में रहता है तो दलाई लामा भारतीय हो जाते हैं और तिब्बत पर चीन के कब्ज़े को चुनौती मिल सकती है। भारत ने उसे भी ठुकरा दिया। नतीजा यह हुआ कि चीन ने सीमा विवाद सुलझाने में रुचि लेना बंद कर दिया और केवल सीमा प्रबंधन यानी सीमा पर शांति बनाए रखने की बातें करने लगा।

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अब चीन सीमा विवाद को सुलझाने की बजाय धीरे-धीरे सीमा के अधिक से अधिक हिस्से को अपने कब्ज़े में लेना चाहता है। लद्दाख की सीमा की बात करें तो चीन 1959 की सीमा को सही सीमा मानता है और भारत 1962 की लड़ाई के बाद की सीमा को सही सीमा मानता है। दोनों सीमाओं के बीच कई जगहों पर कई-कई किलोमीटर का अंतर है। इसलिए, इस झगड़े के निपटारे के लिए दोनों देशों ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि भारत की अपनी एक नियंत्रण रेखा है जहां तक उसकी सेना अपने स्थाई मोर्चे बना सकती है. इसी तरह चीन की अपनी नियंत्रण रेखा है जहां तक उसकी सेना को स्थाई मोर्चे बनाने का अधिकार है। दोनों के बीच चार से दस किलोमीटर की विवादास्पद पट्टी है जिसमें दोनों की सेना आधी-आधी दूरी तक गश्त लगा सकती है पर हथियारों का इस्तेमाल नहीं कर सकती। आमना-सामना होने पर दोनों बैनर लगा कर एक-दूसरे को अपनी सीमा में रहने की चेतावनी देते हैं और वापस चले जाते हैं। यह व्यवस्था 1993 से चली आ रही है। लेकिन हाल के महीनों में दोनों के बीच पथराव, डंडेबाज़ी और हाथापाई की घटनाएं होने लगी हैं।

युन सुन का मानना है कि इस समय चीन के तीन रणनीतिक उद्देश्य हैं। पहला, वास्तविक नियंत्रण रेखा के विवादास्पद हिस्सों में अपनी घुसपैठ बढ़ा कर जहां तक हो सके उन्हें अपने कब्ज़े में लेना ताकि अगर कभी नियंत्रण रेखा तय करने की बात उठे तो चीन को पीछे न हटना पड़े। दूसरा, सीमावर्ती क्षेत्र में सड़कों और पुलों का जाल बिछा कर सेना की तैनाती आसान बनाना और तीसरा, भारत को अपनी सीमा के भीतर बराबरी की तैयारी करने से रोकना और उलझाए रखना। चीन सीधी लड़ाई लड़े बिना अपने ये तीनो लक्ष्य पूरे करना चाहता है और अभी तक अपने काम में भारत से आगे है। गलवान घाटी की मिसाल को लें तो चीन ने नियंत्रण सीमा तक पक्के मोर्चे बना रखे हैं, सड़कों का बेहतर जाल बिछा लिया है, दो सैनिक अड्डे बना लिए हैं और उपग्रह की तस्वीरें देखने से पता चलता है कि गलवान नदी के बहाव को भी मोड़ लिया है ताकि ज़रूरत पड़े तो सूखी नदी के रास्ते श्योक नदी के किनारे पड़ने वाली भारत की डारबुक-ओल्डी सड़क तक पहुंचा जा सके। भारत भी गलवान घाटी के भारतीय हिस्से में सड़क और पुल बना रहा था जिसे लेकर गलवान की झड़प हुई। अंतर्राष्ट्रीय रणनीति अध्ययन संस्थान IISS में छपे अपने लेख में हैनरी बॉएड और मेया नूएन्स ने उपग्रह तस्वीरों के ज़रिए दिखाया है कि किस तरह चीन ने गलवान घाटी में टैंक, तोपख़ाना और पक्के सैनिक बंकर बना रखे हैं।

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इसी तरह चीन ने पैंगोंग झील की पहाड़ी नंबर चार के पास भी पक्के मोर्चे बना लिए हैं। भारत का दावा है उसकी सेना पहाड़ी नंबर आठ तक गश्त लगाने जाती रही है और वास्तविक नियंत्रण रेखा पहाड़ी नंबर आठ के पीछे से होकर गुज़रती है। लेकिन चीनी सैनिकों ने पहाड़ी नंबर चार तक अपने पक्के मोर्चे बना लिए हैं और अब वे दावा कर रहे हैं नियंत्रण सीमा पहाड़ी नंबर दो के पीछे से होकर गुज़रती है। वे भारतीय सैनिकों को पहाड़ी नंबर दो से आगे नहीं आने दे रहे हैं। ऐसा भी लग रहा है कि चीन ने गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों पर हमला करने के साथ-साथ गलवान नदी का रोका हुआ पानी भी छोड़ दिया था। हाथापाई के दौरान तेज़ ढलानों से फ़िसल कर गलवान के बर्फ़ीले पानी में गिरने से भी कई भारतीय सैनिकों की मौत हुई।

चीनी सैनिकों की संख्या, जुगाड़ से बनाए हुए हथियारों के प्रयोग और रात के समय घात लगाकर किए गए हमले को देख कर आसानी से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गलवान का हमला सुनियोजित था। इसलिए भारत ने वास्तविक नियंत्रण रेखा क्षेत्र में बिना हथियारों के गश्त लगाने की व्यवस्था को बदलते हुए कमांडरों को ख़ास परिस्थितियों में ज़रूरत पड़ने पर हथियारों का प्रयोग करने का अधिकार दे दिया है। इसके अलावा चीन के सीमा अतिक्रमण को रोकने के लिए भारत ने अपनी पहाड़ी लड़ाई में प्रशिक्षित सेना को भी तैनात कर दिया है। रूस के विदेशमंत्री सर्गेई लावरोफ़ भारतीय विदेशमंत्री डॉ जयशंकर और चीनी विदेशमंत्री वांग यी की एक वीडियो बैठक करा रहे हैं और भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह रूस की यात्रा पर जा रहे हैं।

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लगता है कि रूस भारत और चीन के बीच सुलह कराने की कोशिश कर रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने पहले भी भारत और चीन के बीच मध्यस्थता कराने का प्रस्ताव रखा था और गलवान की झड़प के बाद भी कहा है कि वे इस पर नज़र रखे हुए हैं और भारत और चीन दोनों से बातें कर रहे हैं। विदेशमंत्री मार्क पोम्पेयो ने चीनी हमले की कड़ी निंदा की और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को बेलगाम ताकत बताया है। शी जिनपिंग की कम्युनिस्ट पार्टी वही पार्टी है जिसके हाथ तियानामन चौक के हज़ारों प्रदर्शनकारियों के ख़ून से रंगे हैं। माओ के शासनकाल में इसी पार्टी की नीतियों और अत्याचारों से करीब छह करोड़ लोग मारे गए थे। लेकिन इसी तानाशाही पार्टी के साथ अगस्त 2008 में राहुल और सोनिया गांधी की कांग्रेस पार्टी ने एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर भी किए थे। अमेरिका की कोई पार्टी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ इस तरह का समझौता कर ले तो दशकों तक चुनाव नहीं जीत पाएगी। लेकिन भारत में सब चलता है।

बहरहाल, अब गलवान घाटी की झडप के बाद अमेरिका को उम्मीद है कि भारत अपनी गुटों से बाहर रहने की नीति को छोड़ कर चीन का घेराव करने के लिए अमेरिका की मदद लेगा भले ही वह खुले-आम न होकर गुप चुप रूप में हो। न्यूयॉर्क टाइम्स में छपे लेख में मारिया अबी-हबीब को लगता है कि चीन पर अंकुश लगाने के लिए अब भारत अमेरिका के गुट में शामिल होने के लिए तैयार है। इसी महीने भारत ने ऑस्ट्रेलिया के साथ एक सैनिक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जो एक-दूसरे को एक-दूसरे के सैनिक अड्डों के प्रयोग की अनुमति देता है। भारत, जापान और अमेरिका के साथ होने वाले युद्धाभ्यासों में ऑस्ट्रेलिया को भी शामिल करने वाला है। पिछले बुधवार को भारत सुरक्षा परिषद की अस्थाई सीट के लिए निर्विरोध चुन लिया गया और मई में उसे विश्व स्वास्थ्य संगठन की कार्यकारिणी की अध्यक्षता मिल गई जिसका पहला प्रयोग उसने कोविड-19 की महामारी के उद्गम और चीन की भूमिका की छानबीन के प्रस्ताव का समर्थन करने में किया।

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सवाल उठता है कि चीन को लेकर भारत के पास विकल्प क्या हैं और अमेरिका या उसके दूसरे साथी देश नैतिक समर्थन के अलावा भारत की क्या मदद कर सकते हैं। सीमा पर तनातनी के बाद भारत को लद्दाख की सीमा के साथ-साथ सियाचिन की रक्षा के लिए भी स्थाई रूप से सेना तैनात रखनी होगी। अभी तक भारत को अरुणाचल और सिक्किम की सीमा पर स्थाई रूप से सेना तैनात रखनी पड़ती थी। लद्दाख की शून्य से बीस डिग्री नीचे के तापमान वाली सीमाओं पर दोनों देश अस्थाई रूप से सेना रखते थे जो केवल गश्त का काम करती थी। पर अब दोनों को स्थाई रूप से सेना रखनी होगी जिसे हर समय सजग रहना होगा। अमेरिका अपने हथियार और सैनिक सामान बेच कर मदद कर सकता है। सुरक्षा परिषद में साथ दे सकता है। लेकिन सीमा की हिफ़ाजत तो भारत को स्वयं ही करनी होगी। यदि सीमा पर चौकसी रखी होती तो गलवान घाटी में और पैंगांग झील की उत्तरी पहाड़ियों पर चीन का कब्ज़ा हो ही क्यों पाता? चीन की तरफ़ बन रही सड़कों, पक्के मोर्चों और सेना की बढ़त की ख़बर तो भारतीय सेना को होनी चाहिए थी। बल्कि उसकी संभावना से पहले ही मुकाबले के लिए सेना तैनात रहनी चाहिए थी। डोकलाम के बाद भी यदि भारत की सेना और सरकार सबक नहीं सीखती है तो इसमें अमेरिका और रूस क्या करेंगे? मशहर बदायुनी का शेर है:

अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फ़ैसला,
जिस दिए में जान होगी वो दिया रह जाएगा।

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