DU के पूर्व प्रोफेसर साईबाबा के लिए इतनी हमदर्दी क्यों है! क्या उनके कारनामे नहीं जानते आप?

साईबाबा दिल्ली यूनिवर्सिटी के राम लाल आनंद कॉलेज में प्रोफेसर थे। उन्हें महाराष्ट्र पुलिस ने दिल्ली के उनके घर से 9 मई, 2014 को गिरफ्तार किया था।

Saibaba

साईबाबा (फाइल फोटो)

दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा (G N Saibaba) मार्च 2017 में देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने और माओवादियों से संबंधों के चलते दोषी पाए गए थे।

महाराष्ट्र की नागपुर जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा (G N Saibaba) के लिए सोशल मीडिया पर कई लोग हमदर्दी दिखा रहे हैं। लोग उनके पक्ष में ट्वीट कर रहे हैं और उनका समर्थन कर रहे हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि प्रोफेसर जीएन साईबाबा (G N Saibaba) जेल में क्यों हैं और क्यों वो उम्रकैद की सजा काट रहे हैं?

दरअसल, हमारे देश में सोशल मीडिया पर कुछ भी लिख देना एक चलन बनता जा रहा है। लोग बिना जाने-बूझे किसी का भी समर्थन करने लगते हैं। ये वो लोग हैं जो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे कॉन्टेंट को ही सच मान लेते हैं और सच से इनका कोई वास्ता नहीं होता। साईबाबा के समर्थन में उतरे लोग भी इसी मानसिकता के हैं। वे सच को जाने बिना साईबाबा के समर्थन में पोस्टबाजी कर रहे हैं और उन्हें दुनिया के सामने बेचारा साबित कर रहे हैं। उन्हें रॉबिनहुड बनाने में जुटे हैं। जिस विचारधारा और उसके मानने वालों ने देश के एक बड़े हिस्से को खून से लाल कर दिया, उनसे संबंध रखने और उनके लिए काम करने वाला कोई रॉबिनहुड कैसे हो सकता है?

आंकड़ों के मुताबिक, मई 2009 से अप्रैल 2019 तक यानी 10 सालों में देशभर में 13216 नक्सली वारदातें पेश आईं। इनमें करीब साढ़े 4 हजार (4456) लोगों की मौत हुई। मरने वालों में आम लोगों के साथ-साथ सुरक्षाबल के जवान भी शामिल हैं। बेशक, बीते 6 सालों में नक्सली वारदातों और इनमें हताहत होने वालों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज हुई है, लेकिन नक्सलियों की विचारधारा में कोई परिवर्तन नहीं आया है। यानी, जो विचारधारा मार-काट और हिंसा पर आधारित, जिन लोगों को देश के संविधान और उसकी कानून-व्यवस्था की जरा भी परवाह नहीं, उस विचारधारा को मानने वालों और बेगुनाहों का खून बहाने वालों के प्रति कैसी हमदर्दी?

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कौन हैं साईबाबा

दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा मार्च 2017 में देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने और माओवादियों से संबंधों के चलते दोषी पाए गए थे। उन्हें और 4 अन्य लोगों को महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले की सत्र अदालत ने दोषी पाया था। जिसके बाद साईबाबा को उम्रकैद सजा सुनाई गई थी।

इससे पहले साईबाबा दिल्ली यूनिवर्सिटी के राम लाल आनंद कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। उन्हें महाराष्ट्र पुलिस ने दिल्ली के उनके घर से 9 मई, 2014 को गिरफ्तार किया था।

पुलिस के मुताबिक, साईबाबा प्रतिबंधित संगठन भाकपा-माओवादी के सदस्य हैं। साईबाबा का नाम उस समय चर्चा में आया था जब जेएनयू के छात्र हेमंत मिश्रा के मुद्दे ने तूल पकड़ा था। हेमंत को नक्सलियों के कनेक्शन के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। जांच एजेंसियों को उसने बताया कि वह छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ के जंगलों में छिपे नक्सलियों और प्रोफेसर जीएन साईबाबा के बीच ‘कूरियर’ का काम करता था। मतलब, साईबाबा नक्सलियों की मदद के लिए साजो-सामान मुहैया कराते थे और हेमंत उन्हें नक्सलियों तक पहुंचाता था।

इतना ही नहीं, हेमंत मिश्रा के अलावा अन्य तीन नक्सलियों कोबाड गांधी, बच्चा प्रसाद सिंह और प्रशांत राही ने भी पूछताछ में साईबाबा का नाम लिया था। इनके मुताबिक, दिल्ली में नक्सलियों के कॉन्टेक्ट पर्सन साईबाबा थे।

जमानत याचिका नामंजूर

बता दें कि माओवादियों से संबंधों की वजह से महाराष्ट्र की नागपुर जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा की मां का 2 अगस्त को निधन हो गया था। वह 74 साल की थीं और कैंसर से पीड़ित थीं। मां के निधन से 4 दिन पहले ही साईबाबा (Saibaba) की जमानत याचिका खारिज हुई थी। जीएन साईबाबा के वकील ने वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए मां को देखने की अनुमति मांगी थी लेकिन उन्हें अनुमति नहीं मिल सकी।

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अब सवाल फिर वही कि जो व्यक्ति साबित अपराधी है, देश के खिलाफ जंग छेड़ने वाले नक्सलियों का सहयोगी रहा है, उसके लिए समाज के एक तबके में हमदर्दी क्यों है? संविधान और कानून-व्यवस्था में यकीन रखने वाला कोई भी व्यक्ति घोषित नक्सलियों और उनके समर्थकों का शुभचिंतक कैसे हो सकता है? नक्सलियों और उनके समर्थकों के मानवाधिकारों पर चिंता जताने वाले बेगुनाहों के कत्ल पर क्यों नहीं कुछ बोलते? क्या नक्सलियों का शिकार बनने वाले बेकसूर आदिवासियों का कोई मानवाधिकार नहीं होता? बात साफ है कि देश के खिलाफ मोर्चा खोलने वालों से किसी भी तरह की हमदर्दी नहीं जताई जा सकती। निर्दोषों का खून बहाने और विचारधारा के नाम अपराधियों का गिरोह बन चुके नक्सल संगठनों के समर्थकों को किसी भी तरह की रियायत नहीं दी जानी चाहिए। वैसे भी, गांधी के इस देश में हिंसा और हिंसा के पैरोकारों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए।

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