मैथिलीशरण गुप्त जयंती विशेष: ‘वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं’

गुप्तजी (Maithili Sharan Gupt)  की काव्य-प्रतिभा की बनावट को समझने के लिए रामायण-महाभारत युग, बौद्ध-जैन-युग, भारतीय इतिहास का मध्ययुग विशेष-कर राजपूत-युग और आधुनिक भारत के सम्पूर्ण स्वाधीनता-आंदोलन को बारीकी से समझने की आवश्यता है।

Maithili Sharan Gupt

Maithili Sharan Gupt Birth Anniversary

मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt) आधुनिक हिन्दी कवियों में सबसे अधिक लोकप्रिय कवि गुप्तजी ही हैं। उनकी रचनाएं सबसे अधिक जनप्रिय हैं, तथा सबसे आधुनिक काल की कविता में जो भी आंदोलन चले, जो भी नवीन काव्यधाराएं विकसित हुईं, उन सभी में गुप्तजी को पूर्ण सफलता मिली और लगातार साठ वर्ष तक उन्होंने हिन्दी साहित्य की सेवा बड़े उत्साह, लगन तथा चिरनवीना था की। यहां तक कि जनता ने उनके सम्मान में ‘राष्ट्रकवि’ का पद देकर उन्हें विभूषित किया।

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मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt)  का जन्म 03 अगस्त 1886 में चिरगांव, जिला झांसी (उत्तर प्रदेश) में हुआ। इनके पिता रामचरण गुप्त कविता-प्रेमी थे तथा कभी-कभी काव्य-रचना भी कर लिया करते थे।

मैथिलीशरण गुप्त की अधिकाश शिक्षा घर पर ही सम्पन्न हुई। उन्होंने हिन्दी, संस्कृत तथा बंग्ला में अच्छी विद्वत्ता प्राप्त कर ली तथा अंग्रेजी, गुजराती और मराठी का भी पर्याप्त ज्ञानार्जन किया। वैसे तो गुप्तजी बचपन से ही कविता करने लगे थे, परन्तु उन्हें जब आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का आशीर्वाद मिला, तब उनके जीवन का लक्ष्य धुव हो गया। उन्हें विदित हो गया कि उनका जन्म ही कवि बनने के लिए हुआ है। गुप्तजी ने लिखा है-

करते तुलसीदास भी, कैसे मानस-नाद ।

महावीर का यदि उन्हें, मिलता नहीं प्रसाद ।।

राष्ट्रकवि के सम्मानित हैं मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt)

हिन्दी-साहित्य में तुलसीदास के बाद मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt)  ही एक ऐसे कवि रहे हैं जिन्हें जनता ने अपना कंठहार बनाया है। आधुनिक भारत के नव जागरण की चेतना ने उनके काव्य-संवेदना में भिदकर नया काव्य-संस्कार पाया है। युगप्रवर्तक भारतेन्दु बाबू की सृजनात्मकता से आधुनिक हिन्दी कविता के कवि-कर्म की एक सही दिशा प्राप्त की थी। भारतेन्दु की राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य-दृष्टि का विस्तार और प्रसार मैथिलीशरण गुप्त में हुआ और उनका काव्य नये युग की नयी चेतना का सच्चा वाहक बना । कारण, लोक हृदय में अपने हृदय को लीन कर देने की शक्ति गुप्त जी में जन्मजात रही है।

युग की विचारधाराओं, समस्याओं, प्रश्नाकुलताओं और साहित्यिक चुनौतियों ने गुप्त को उन्मथित किया है। 6 दशकों में फैला उनका कृतित्व लोक-चिन्ता की काव्यभूमि से प्रस्फुटित है और लोक-करुणा की विचारधारा से आप्लावित। सच्चे अर्थों में, गुप्त जी की काव्य संवेदना में एक पूरी जाति की संवेदना को प्रतिनिधित्व मिला है। इस दृष्टि से यह-सृजन भारतीय संस्कृति का महाकाव्यात्मक इतिहास कहा जा सकता है। इस सांस्कृतिक इतिहास को आधुनिक दृष्टि से प्रस्तुत करने के लिए जिस सांस्कृतिक, संवेदनशीलता और विवेक-वयस्कता की जरूरत थी वह गुप्त जी में प्रचुर मात्रा में मौजूद रही है।

खरे भारतीय जीवन-मूल्यों की पहचान कराने के लिए उन्हें भारतीय अतीत के समुद्र की गहराई में उतरकर सागर-मन्थन करना पड़ा। वर्तमान की मथनी से उन्होंने प्राचीन काव्य-समुद्र का मन्थन किया और नये से नये काव्य-रत्न पाये। गुप्तजी (Maithili Sharan Gupt)  की काव्य-प्रतिभा की बनावट को समझने के लिए रामायण-महाभारत युग, बौद्ध-जैन-युग, भारतीय इतिहास का मध्ययुग विशेष-कर राजपूत-युग और आधुनिक भारत के सम्पूर्ण स्वाधीनता-आंदोलन को बारीकी से समझने की आवश्यता है।

भारतीय-संस्कृति और इतिहास की गहन काव्य-समझ के कारण उनके काव्य का फलक बहुत लंबा-चौड़ा है। अतीत में उनका (Maithili Sharan Gupt)  मन घूमता रहता है, पर वे अतीत के नहीं हो जाते। वे अतीत को छानकर, कूटकर, पीसकर वर्तमान को देते हैं। अतीत से वर्तमान का इतना घनिष्ठ संवाद उनकी कविता में निरंतर मिलता है कि वे दोनों को मिलाने वाले सेतु हैं। महाभारत-काल इस कवि के लिए कथा-प्रेरणा स्रोत होने के साथ ही काव्य-संस्कार दिखाई देता हैं और रामायण भी। रामायण-महाभारत के साथ उनका इतना गहरा अनुराग है कि वह एक पल के लिए भी ढोला नहीं होता। वह तो जहां तक सांस्कृतिक चेतना का संबंध है अवचेतन और सामूहिक अवचेतन के संस्कारों से उमड़-घुमड़कर बादल की तरह तनता-बरसता रहता है। वैदिक-युग, बौद्धकाल और राजपूत-काल का मोह भी उनके साथ रहता है और वर्तमान की युग चेतना का आधार तो उनकी संवेदना के केन्द्र में रहता ही है। वर्तमान को साथ लेकर ही वे गौरवमय अतीत की झांकियां दिखाते हैं । गुप्तजी धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। राम उनके आराध्यदेव थे। उन्होंने कहा भी है-

राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।

कोई कवि बन जाय, सहज सम्भाव्य है।।

गुप्त जी (Maithili Sharan Gupt) भारतीय सभ्यता व संस्कृति के परमभक्त थे, लेकिन वे अन्धभक्त नहीं थे और साथ ही अन्य धर्मों के प्रति वे न केवल सहिष्णु और उदार थे, बल्कि उनके गुण ग्रहण करने में भी वे संकोच नहीं करते थे।

भारतीय संस्कृति में नारी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा सम्मानप्रदक स्थान रहा है और गुप्तजी (Maithili Sharan Gupt) ने नारी के अनेक व विविध प्रकार के चरित्र अपने काव्यों में उपस्थित किए हैं। हम कह सकते हैं कि नारी के इतने अधिक तथा विभिन्नतापूर्ण चरित्र किसी अन्य हिन्दी कवि ने प्रस्तुत नहीं किये। सीता, उर्मिला, यशोधरा, विष्णुप्रिया आदि उनके नारी पात्र इतने महान हैं कि उनकी तुलना में किसी भी अन्य कवि के पात्रों को नहीं रखा जा सकता । अबला जीवन से गुप्तजी को गहरी सहानुभूति है। उसे उन्होंने ने इस प्रकार व्यक्त किया है-

अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी।

आंचल में है दूध और आंखों में पानी ।।

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