पद्मश्री डॉ आत्माराम जयंती: प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक, जिन्होंने भारत को दी कांच और सिरेमिक की सौगात

आत्माराम (Atma Ram) का जीवन अत्यंत सादगी-पूर्ण है। सादगी के बारे में एक बार की घटना है कि आप एक बार किसी कारखाने का निरीक्षण करने के लिए आमंत्रित किए गए।

Atma Ram

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Dr. Atma Ram Birth Anniversary: भारतीय विज्ञान के क्षेत्र में आज जो नवीन से नवीन खोजें और अनुसंधान किए जा रहे हैं, उनका सारा श्रेय उन वैज्ञानिकों को दिया जा सकता है जो देश के स्वल्प साधनों में भी विज्ञान के प्रति निष्ठा और मातृभूमि के उज्ज्वल भविष्य की कामना की दृष्टि से सेवा-कार्य में संलग्न हैं ऐसे वैज्ञानिकों में वाराणसी में हुए अखिल भारतीय विज्ञान सम्मेलन के अध्यक्ष डॉ. आत्माराम का नाम लिया जा सकता है। डॉ. आत्माराम देश के वैज्ञानिक अनुसंधान की दिशा में राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करने वाले वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के महानिदेशक पद पर आसीन होकर देश की महत्त्वपूर्ण सेवा में रत रहे। इस पद के साथ-साथ डॉ. आत्माराम (Atma Ram) विज्ञान की उपासना में भी निरंतर प्रयत्नशील रहे। विज्ञान-कांग्रेस के अध्यक्ष बनने से पूर्व तक डॉ. आत्माराम की अमूल्य सेवाएं विज्ञान-कांग्रेस के महासचिव के रूप में सक्रिय रूप से प्राप्त होती रहीं, जिनको कभी भुलाया नहीं जा सकता।

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डॉ. आत्माराम (Atma Ram) देश के उन कर्मठ व्यक्तियों में से एक थे जिन्होंने घोर कठिनाइयों के मध्य प्रगति-पथ पर पग बढ़ाए थे देश के अनेक व्यक्तियों के सम्मुख उनका पावन जीवन एक उदाहरण है कि डॉ. आत्माराम एक अत्यंत साधारण निर्धन परिवार में उत्पन्न होकर अपनी लगन और सतर्क साधना से देश के वैज्ञानिक अनुसंधान में प्रमुख व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उत्तर प्रदेश राज्य के बिजनौर जनपद में चांदपुर के निकट स्थित पिलाना नामक ग्राम में आत्माराम का दिनांक 12 अक्टूबर सन् 1908 ई. को जन्म हुआ था। डॉ. आत्माराम के पिता लाला भगवान दास गांव के प्रमुख व्यक्तियों में गिने जाते थे। ग्रामवासियों की सेवा और दूसरों के साथ हमदर्दी उनकी को आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध करा के सुखी बना सकें। परंतु उन्होंने अपने प्रयत्न व सूझ-बूझ से थोड़ी आमदनी में भी कठिन परिश्रम करके गरीब घर को स्वर्ग बना दिया था। घर को स्वर्ग का रूप देने में डॉ. आत्माराम की माता श्रीमती सुशीला का भी सराहनीय सहयोग था।

डॉ. आत्माराम (Atma Ram) के पिता लाला भगवान दास ने जो पाया उसी से अपने घर-परिवार को बड़ी शांतिपूर्वक पाला-पोसा। कौन कह सकता है कि एक सामान्य आय के पटवारी के घर जन्म लेकर डॉ. आत्माराम सरीखा देश को एक रल प्राप्त हो सकता है। लाला भगवान दास ईमानदार लेखपाल थे। उन्होंने कभी भी स्वप्न में भी अपनी नौकरी का अनुचित लाभ नहीं उठाया या उन्होंने डॉ. आत्माराम तथा इनके भाइयों को पढ़ाने-लिखाने के लिए पशु-पालन करके परिवार का निर्वाह किया था।

डॉ. आत्माराम (Atma Ram) के जीवन पर जहां इनके माता-पिता की सरलता और सादगी की छाप लगी थी, वहीं उनके पूरे परिवार का भी उन पर विशद प्रभाव था। डॉ. आत्माराम का परिवार वैश्य होने पर भी धनी नहीं था, परंतु इस परिवार पर माता सरस्वती की कृपा थी जिसके कारण इनके पिता और इनके एक चाचा जियालाल और उनके परिवार के बहुत से अन्य सदस्य शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त करने में सफल हुए थे। उन सब ने कठोर परिश्रम करके ज्ञान अर्जित किया था। इस अज्ञान के अंधकार को मिटाने में आर्य समाज की विशेष प्रेरणा थी। स्वामी दयानंद तथा स्वामी श्रद्धानंद एवं अन्य कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के प्रभाव से इस बिजनौर जिले पर ज्ञान का प्रभाव पड़ने के कारण डॉ. आत्माराम के परिवार में सभी पुरुष और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करने का बराबर सुअवसर प्राप्त हुआ।

तालाबों से घिरे पिलाना नामक गांव में जन्मे डॉ. आत्माराम (Atma Ram) को अपने गांव में जीव-जंतुओं तथा प्रकृति का विशेष अध्ययन करने का अवसर मिला। गांव पिलाना में डॉ. आत्माराम का घर मामूली-सा और कच्चा था। उसमें भी इन्हें ऋतु-परिवर्तन का विशेष ज्ञान समय-समय पर मिला। एक प्रकार से इनके वैज्ञानिक बनने में गांव की प्रकृति तथा समय-समय पर प्रकृति के परिवर्तनों को अपने चक्षुओं से देखना सहायक हुआ। जब शिक्षा के रूप में विज्ञान का विषय छात्र-छात्राएं लेते हुए घबराते थे, उस समय इन्होंने इस विषय को चुना। इस विषय में आत्माराम ने तन्मय होकर काम किया, जिसके कारण ही वह विज्ञान-विषय में विशेष ख्याति अर्जित कर सके। डॉ. आत्माराम (Atma Ram) की प्रारंभिक शिक्षा गांव पिलाना में तथा घर पर हुई थी। मिडिल तक ये चांदपुर में पढ़ने गए मिडिल स्कूल इनके घर से कई मील दूर था और इन्हें पैदल चलकर स्कूल पहुंचना होता था। एक सप्ताह के लिए आटा-दाल वगैरह खाद्य सामग्री वहां ले जानी पड़ती थी। इस प्रकार अध्ययन-काल में भी इन्हें असुविधाओं और कठिनाइयों का अत्यधिक सामना करना पड़ा। परंतु इन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी और लगन व परिश्रम से अपने अध्ययन में व्यस्त रहे।

डॉ. आत्माराम (Atma Ram) ने सन् 1936 ई. में प्रयाग विश्व-विद्यालय इलाहाबाद से डॉक्टर ऑफ साइंस की सम्मानित उपाधि प्राप्त की। डी.एस.सी. उपाधि ग्रहण करने के उपरांत डॉ. आत्माराम ने अपना कार्य-क्षेत्र डॉ. शांति स्वरूप भटनागर के अनुसंधान-विभाग के अंतर्गत प्रारंभ किया।

सन् 1945 ई. में डॉ. आत्माराम (Atma Ram) सी.एस.आई. आर. की प्रबंध समिति में आए और इन्हें ग्लास और सिरेमिक रिसर्च इंस्टीट्यूट के संचालन का भार सौंपा गया। सन् 1952 में डॉ. आत्माराम उसके महानिदेशक ने दिए गए।

विज्ञान के अनुसंधान के नित नई जिज्ञासा रखने के कारण उक्त समिति ने इन्हें अपनी कई विज्ञान-संस्थाओं में सम्मानित सदस्यता प्रदान की। इस कार्य से डॉ. आत्माराम का सम्मान देश-विदेश में हुआ। संयुक्त राज्य की ग्लास टैक्नोलॉजी सोसायटी ने इन्हें अपनी सम्मानित सदस्यता प्रदान की, जिसकी कुल सदस्य संख्या केवल छः थी।

इसी प्रकार स्वीडन के वैज्ञानिक संस्थान ने भी डॉ. आत्माराम (Atma Ram) को अपना सम्मानित सदस्य बनाया। सन् 1948 ई. में अंतर्राष्ट्रीय शिष्ट मंडल के सदस्य बनाकर डॉ. आत्माराम विदेश भेजे गए और जिनेवा की अंतर्राष्ट्रीय सिरेमिक सेवा-संस्थान ने भी इन्हें अपनी सदस्यता प्रदान की। भारत सरकार की ओर से ये फ्रांस में एक विशेष प्रतिनिधि मंडल से सदस्य बनाकर भेजे गए थे। इसी प्रकार वर्ष 1952-53 ई. में इन्हें भारतीय सिरेमिक सोसायटी का अध्यक्ष चुना गया।

डॉ. आत्माराम (Atma Ram) की वैज्ञानिक सेवाओं के संबंध में सन् 1959 ई. में उन्हें पद्मश्री के अलंकरण से अलंकृत किया गया इसी वर्ष उन्होंने डॉ. शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार भी प्राप्त किया नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की ओर से यह सम्मान ग्लास तथा सिरेमिक उद्योग में रचनात्मक कार्य में अनुसंधान के लिए प्राप्त हुआ।

इसी प्रकार बड़ौदा विश्वविद्यालय ने डॉ. आत्माराम को के. एम. नायक स्वर्ण-पदक भी प्रदान किया। इतना सब-कुछ सम्मान प्राप्त करने पर तथा यशस्वी होने पर भी डॉ. आत्माराम (Atma Ram) ने कभी गर्व नहीं किया बल्कि उनकी यह हार्दिक कामना थी कि देश के अधिक-से-अधिक वैज्ञानिक अपनी मातृभूमि की सेवा में लगे यह चाहते थे कि भारत में आधिकारिक वैज्ञानिक उत्पन्न हों और भारत की उन्नति करें। डॉ. आत्माराम का कथन था कि विदेशों में जो भारतीय वैज्ञानिक सेवाएं प्रदान कर रहे हैं उन्हें स्वदेश में आकर सेवा-कार्य करना चाहिए। उनका विचार था कि विदेशी मोह व उच्च वेतन की इच्छा को त्यागते हुए कम वेतन पर अपने देश में कार्य करना भारतीय वैज्ञानिकों का कर्तव्य है। उनका यह भी कहना था कि फाइलों के कार्य की अपेक्षा रचनात्मक दृष्टि से कार्य करना चाहिए।

सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. आत्माराम की सबसे महत्त्वपूर्ण विशिष्ट देन यह मानी जाती है कि उन्होंने ऑप्टीकल ग्लास के निर्माण की भारतीय पद्धति विकसित की परंतु संभवतः उनका इससे भी महत्त्वपूर्ण योगदान यह है कि उन्होंने संपूर्ण वैज्ञानिक चिंतन को भारतीय दृष्टि और आधार-भूमि प्रदान की।

आत्म-प्रचार और विज्ञापन से रहने वाले डॉ. आत्माराम (Atma Ram) स्वदेशी और सादगी दूर के पूर्णतः हिमायती थे। बिजनौर जिले के पिलाना गांव में साधारण परिवार में जन्म लेने वाला एक बालक देश का शीर्षस्थ वैज्ञानिक बन गया-यह एक सभी को आश्चर्यचकित करने वाली बात थी। डॉ. आत्माराम की महानता इनके कठोर परिश्रम, संघर्ष, लगन और विज्ञान के प्रति समर्पण की एक अनोखी कहानी है जिसे इस देश की नई पीढ़ी को, नौजवानों को पढ़ना और जीवन में ढालना चाहिए। कठिनाइयों से जूझने और अपने निश्चय पर दृढ़ रहने के गुण ने उन्हें जीवन के हर मोड़ पर सफलता दिलाई। प्रयाग विश्वविद्यालय इलाहाबाद में एम.एस.सी. क्लास में बड़ी परेशानी व कठिनाई के बाद डॉ. आत्माराम को प्रवेश प्राप्त हुआ, परंतु जब परीक्षा परिणाम आया तो सभी ने देखा कि जिस विद्यार्थी को दाखिला पाने के लिए इतनी परेशानी उठानी पड़ी, वह विश्वविद्यालय की परीक्षा में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर प्रथम स्थान पर आया है। वहां के डॉ. धर आत्माराम की प्रतिभा और कुशाग्र बुद्धि बहुत प्रसन्न हुए से और उन्होंने इस होनहार छात्र को एक अनुसंधान-छात्रवृत्ति दिलाई। युवा वैज्ञानिक डॉ. आत्माराम ने पूर्ण निष्ठा और लगन से कार्य किया और भौतिक रसायन का व्यापक रूप से अध्ययन किया जिसके फलस्वरूप उन्हें डॉक्टर ऑफ साइंस की उपाधि प्रदान की गई। इसी समय ही डॉ. आत्माराम सुविख्यात भारत के महान वैज्ञानिक डॉ. मेघनाद साहा के निकट संपर्क में आए और उन्हें इन्होंने विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित किया।

डॉ. आत्माराम (Atma Ram) ने औद्योगिक अनुसंधान-विभाग में डॉ. शांति स्वरूप भटनागर के नेतृत्व में एक अनुसंधान सहायक के रूप में अपना जीवन प्रारंभ किया। द्वितीय विश्व महायुद्ध के समय उन्होंने युद्ध में काम आने वाले पदार्थों पर महत्त्वपूर्ण खोजें की, जिनमें अग्नि-शामक पदार्थों पर किया गया कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सन् 1945 ई. में जब केंद्रीय कांच और सिरेमिक अनुसंधान संस्थान की स्थापना का प्रस्ताव हुआ तो डॉ. शांति स्वरूप भटनागर ने उसके संगठन का उत्तरदायित्व डॉ. आत्माराम को सौंपा। एक वैज्ञानिक के रूप में तो उन्होंने शानदार व उत्तम कार्य किया ही, साथ ही एक कुशल प्रशासक के रूप में भी यथेष्ट ख्याति अर्जित की। इसी कारण सन् 1952 ई. में उन्हें इस अनुसंधान संस्थान का निदेशक नियुक्त कर दिया गया और डॉ. आत्माराम की योग्यता, कर्तव्यनिष्ठा और स्वभाव व सूझबूझ को देखते हुए सन् 1966 ई. में वैज्ञानिक एवं अनुसंधान परिषद के महानिदेशक का पद संभालने को आमंत्रित किया।

समांगी कांच (Optical Glass) की निर्माण-विधि की खोज डॉ. आत्माराम (Atma Ram) की सबसे महत्त्वपूर्ण देन है उन्होंने दो वर्ष के कठिन परिश्रम के पश्चात् समांगी कांच का निर्माण देशी साधनों से कर दिखाया। तत्कालीन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने इस अनुसंधान में विशेष रुचि ली और उनके प्रोत्साहन व प्रेरणा के फलस्वरूप ही केंद्रीय कांच तथा सिरेमिक अनुसंधान-संस्थान में समांगी कांच का व्यावसायिक उत्पादन संभव हो सका। डॉ. आत्माराम के बनाए समांगी कांच का परीक्षण विदेशों में कराया गया जिससे यह स्पष्ट सिद्ध हो गया कि यह उच्चकोटि का है। भूतपूर्व केंद्रीय शिक्षा मंत्री, भारत सरकार श्री मुहम्मद करीम छागला ने इस उपलब्धि को भारतीय शिल्प की सर्वोत्कृष्ट सफलता घोषित किया। सन् 1960 ई. से यह संस्थान समांगी कांच का निर्माण कर रहा है और भारत आज उन इने-गिने छः-सात देशों में से एक है जो समांगी कांच का निर्माण करते हैं। कलकत्ता के कांच एवं सिरेमिक अनुसंधान-संस्थान में निर्मित समांगी कांच से देश की समस्या सार्वजनिक एवं सैनिक आवश्यकताओं की भलीभांति पूर्ति होती है।

समांगी कांच के अतिरिक्त झागदार कांच-निर्माण के क्षेत्र में भी डॉ. आत्माराम (Atma Ram) ने अत्यंत महत्त्वपूर्ण अनुसंधान किए। ताम्र लाल कांच के रंगों के रसायन से संबंधित उनकी खोज को सभी क्षेत्रों में आदर व सम्मान प्राप्त हुआ। इसी प्रकार टाइटेनियम कांच पर भी उन्होंने अच्छा कार्य किया था। डॉ. आत्माराम की इन्हीं महान सेवाओं के कारण ब्रिटेन के कांच उद्योग-संस्थान ने अपनी स्वर्ण जयंती के शुभ अवसर पर उन्हें सम्मानित सदस्यता प्रदान की।

कांच के अतिरिक्त और भी कई उद्योगों में डॉ. आत्माराम (Atma Ram) ने अच्छी खोजें की थीं। इनमें अभ्रक को पीसने तथा अनुपयोगी अभ्रक से तापावरोधन ईंटों की निर्माण-विधियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कुल मिलाकर इस समय उनके बीस पेटेन्ट हैं जिनमें से आधे का लाभ बराबर उद्योगों में उठाया जा रहा है। डॉ. आत्माराम को सन् 1959 ई. में ही शिल्प के विकास संबंधी कार्यों तथा कांच और सिरेमिक उद्योगों में वैज्ञानिक जागरूकता उत्पन्न करने के लिए डॉ. शांति स्वरूप भटनागर पदक प्रदान किया गया। इस सम्मान को प्राप्त करने वाले डॉ. आत्माराम प्रथम वैज्ञानिक थे। सन् 1964 ई. में भारतीय कांच उद्योग ने डॉ. आत्माराम को मानपत्र भेंट कर के उनका अभिनंदन किया था। और भी कई वैज्ञानिक संस्थाओं द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया।

डॉ. आत्माराम (Atma Ram) वास्तव में अपने देश को उन्नत देशों के समकक्ष देखने के अभिलाषी थे। उन्हें इस बात की चिंता रहती थी कि उन्नत देश जिस तेजी से प्रगति करते जा रहे हैं, यदि हम भारतवासी उस तेजी से आगे न बढ़ पाए तो उन देशों के मुकाबले और भी पिछड़ जाएंगे। उन्हें यह कहने में कभी हिचक नहीं रही थी कि उन्नत देशों की प्रगति शारीरिक अथवा बौद्धिक श्रेष्ठता के कारण नहीं, बल्कि उद्योगों के विकास में विज्ञान के सुव्यवस्थित प्रयोग के कारण है उनका कथन था कि यदि पिछड़े देशों को उन्नति करनी है तो यह अत्यंत आवश्यक है कि वे अपने साधनों का पर्याप्त विकास करें और इसके लिए उपयुक्त शिल्पिक जानकारी हासिल करें।

स्वाधीन भारत में विज्ञान और वैज्ञानिकों की उपलब्धि के बारे में चर्चा चलने पर वह अकसर कहा करते थे कि विशिष्ट उपलब्धि की बात करते समय प्रायः हमारा ध्यान अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अथवा पुरस्कारों पर अधिक रहता है। उनका भी महत्त्व है परंतु केवल दो-चार ऊंचे पर्वतों से ही देश नहीं बनता। उसके लिए आवश्यक है कि विस्तृत और हरे-भरे उर्वर मैदान भी हों। नोबेल पुरस्कार सन् 1901 ई. में प्रारंभ हुआ था और हमारे देश को सन् 1930 में प्राप्त हुआ। जापान को सन् 1948 ई. में उपलब्ध हुआ अर्थात् हम से 18 वर्ष पश्चात् प्राप्त हुआ। परंतु क्या जापान टेक्नोलॉजी में हम से पिछड़ा हुआ है? इंग्लैंड में तो 50-55 नोबल पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। विज्ञान का स्तर इस प्रकार नहीं नापा जाता कि अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक उभरकर आए या नहीं बल्कि यह देखना अभीष्ट है कि हमारे वैज्ञानिकों की भूमिका क्या रही? निश्चय ही उन वैज्ञानिकों का सबसे बड़ा योगदान आर्थिक क्षेत्र में रहा होना चाहिए। डॉ. आत्माराम (Atma Ram) ने इसी दिशा में सोचना प्रारंभ किया और विकास-कार्यक्रम में वे सक्रिय होकर भागीदार बने।

आत्माराम (Atma Ram) का जीवन अत्यंत सादगी-पूर्ण है। सादगी के बारे में एक बार की घटना है कि आप एक बार किसी कारखाने का निरीक्षण करने के लिए आमंत्रित किए गए। जब आप वहाँ पहुँचे, तो कारखाने के अधिकारी आपको पहचान नहीं पाए। उन्होंने किसी दूसरे व्यक्ति का ही स्वागत कर डाला। फिर तो अधिकारियों को बड़ी शर्म उठानी पड़ी; पर डॉ. आत्माराम को इसकी तनिक भी चिंता नहीं हुई।

डॉ. आत्माराम अजमेर के मेयो कॉलेज में भी रहे। सरलता और सादगी तथा समाज-सुधार करना इनके परिवारवालों का ध्येय रहा है और यह सभी डॉ. आत्माराम में विद्यमान है।

एक बार आपको किसी साक्षात्कार (इंटरव्यू) में जाना था। उन दिनों सूट और टाई बाँधकर जाना जरूरी था। इसलिए कई दिनों तक आपको टाई बाँधना सीखना पड़ा, पर बाद में आपने इसे सदा के लिए त्याग दिया।

भारत में हिंदी में वैज्ञानिक शिक्षा देने तथा विज्ञान को लाल-फीताशाही से मुक्त किए जाने के विचारों के डॉ. आत्माराम (Atma Ram) अगुआ रहे हैं। सन 1959 में भारत सरकार ने पदमश्री सम्मान से भी नवाजा। वे प्रयोगशालाओं के बिखरे हुए कार्यक्रमों को संगठित करने की दिशा में प्रयत्नशील रहे और अनुसंधानशालाओं में व्याप्त जड़ता और शिथिलता को दूर करना चाहते थे। 6 फरवरी सन् 1983 में भारत के इस महान् वैज्ञानिक का निधन हो गया। डॉ. आत्माराम के निधन से भारत का एक अग्रगण्य वैज्ञानिक सदा के लिए हमसे बिछुड गया।

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