दो सौ वर्ष भेड़ की तरह जीने से दो दिन शेर की तरह जीना अच्छा है: टीपू सुल्तान

टीपू सुल्तान ने किले के दरवाजे खोलने का हुक्म दिया लेकिन पहरेदारों ने हुक्म मानने से इन्कार कर दिया। अब केवल दो ही रास्ते बचे थे। पहले-मुट्ठी भर सैनिकों को साथ लेकर अंग्रेजों से मुकाबला किया जाए, दूसरा-अंग्रेज सैनिकों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया जाए। टीपू (Tipu Sultan) ने पहला रास्ता चुना और तूफान की तरह अंग्रेज सैनिकों पर टूट पड़ा। सीने पर दो गोलियां लगीं, शाही पगड़ी धूल में गिर पड़ी, लेकिन उसकी बन्दूक अभी भी दुश्मनों पर कहर ढा रही थी। अंग-अंग जख्मी हो चुका था।

Tipu Sultan

भारतीय इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में टीपू सुल्तान (Tipu Sultan) को वह स्थान नहीं मिला जो अकबर या दूसरे मुगल शासकों को प्राप्त हुआ है। उस काल और समय की घटनाओं के तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में इतिहास के दो पात्रों का मूल्यांकन इतिहासकार किस आधार पर करते हैं-कभी-कभी यह समझ में नहीं आता।

भारत के विशेषतः उत्तर-पूर्वी राज्यों की आम जनता टीपू सुल्तान (Tipu Sultan) के विषय में कितना जानती है-यह किसी से छिपा नहीं। कुछ समय पूर्व दूरदर्शन पर जब ‘टीपू सुल्तान’ सीरियल का प्रसारण हुआ तो लोग आश्चर्यचकित होकर ठगे से देखते रह गए। उस परम साहसी, शूरवीर, दिलेर-जांबाज टीपू सुल्तान के व्यक्तित्व ने दर्शकों को प्रभावित किया। ऐसा महान् ऐतिहासिक पात्र अंग्रेज इतिहासकारों की उपेक्षा का शिकार क्यों हुआ? यदि उनको व्यक्तिगत ईष्या या द्वेषवश ऐसा हुआ था तो क्या स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय इतिहासकार उस वीरनायक के साथ न्याय कर सके?

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यह सभी जानते हैं कि भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के प्रारम्भिक दौर में लार्ड कार्नवालिस और लार्ड वैल्जली जैसे प्रशासकों के छक्के छुड़ा देने वाला टीपू सुल्तान ही थी। उनकी ऊंगली भारत के नक्शे पर घूमते घूमते मैसूर राज्य पर आकर अटक जाया करती थी। लार्ड कार्नवालिस ने मैसूर राज्य को जीतने का संकल्प लिया था। लार्ड वेलेजली ने तो भारत आने से पहले ही ‘केप ऑफ गुड होप’ में इस बात की शपथ ली थी कि भारत पहुंच कर सबसे पहले मैसूर राज्य पूरी तरह समाप्त कर दूंगा।

युबराज फतेहअली टीपू (Tipu Sultan) बाल्यकाल से ही बहादुर और साहसी था। अंग्रेजों में उसके नाम से ही कितना भय और आतंक था इसका पता इस घटना से चलता है:

ई. सन् 1768 का नवम्बर का महीना था। मद्रास में अंग्रेजों ने अपना शासन जमा लिया था। कर्नाटक के नवाब मुहम्मद अली अंग्रेजों के जाल में बुरी तरह फंस चुके थे। एक दिन उन्होंने अंग्रेज आकाओं और ईस्ट इंडिया कंपनी के आला अफसरों के स्वागत में शाही दावत का बन्दोबस्त किया। सुरा और साकी के दौर चल ही रहे थे कि तभी एक सैनिक ने आकर खबर दी कि टीपू सुल्तान अपने घोड़े पर अन्य सैनिकों के साथ बाहरगेट पर आन पहुंचा है।

बस क्या था-सुनते ही रंग में भंग पड़ गया। मारे डर के लोग भागने लगे। यहां तक कि स्वयं गवर्नर साहब अपना हैट और तलवार उठाकर जान बचा कर भागे विदेशी समाज में टीपू सुल्तान(Tipu Sultan) के नाम का इतना आतंक था कि सिर्फ नाम सुनकर ही लोग भाग खड़े हुए। एक महीने बाद युवराज टीपू ने तीन हजार सैनिकों को साथ लेकर बैंगलोर पर चढ़ाई कर दी। अंग्रेजों न लार्ड क्लाइव के जमाने से ही पूर्ण रूप से सुसज्जित और व्यवस्थित सेना संगठित कर रखी थी। और देसी रियासतों को जीतने में उसका बल प्रयोग किया करते थे। मंगलोर के युद्ध में भीषण संघर्ष हुआ।

कई दिन लड़ाई चली लेकिन अंत में जीत टीपू सुल्तान (Tipu Sultan) की ही हुई। उसने सात हजार अंग्रेज सैनिकों को बंदी बना लिया। अंग्रेज इस युद्ध में बुरी तरह परास्त हुए। उपर्युक्त जिन दो घटनाओं का उल्लेख हमने किया है इन दोनों घटनाओं के समय टीपू की उम्र केवल उन्नीस वर्ष थी! उसने अपने पिता हैदर अली की तरह अंग्रेजों की रातों की नींद उड़ा रखी थी।

अंग्रेज नित नई तरकीबें सोचते कि किस प्रकार मैसूर से दुर्ग को धराशायी किया जाए। उन्होंने निजाम और पेशवा के सहयोग से श्रीरंगपट्टम के किले तक पहुंचने की योजना बनाई।

महाराष्ट्र के नाना फड़नवीस बहुत विवेकी और दूरदर्शी शासक थे। उन्होंने अच्छी तरह समझ लिया था कि निजाम तो ‘सबसीयडरी एलायंस’ के जाल में फंस ही चुका है-अब अगर मैसूर ध्वस्त हो गया तो उसके बाद उसी का नम्बर है। अतः मैसूर राज्य का जीवित रहना उसके लिए परमावश्यक है। उसने अपने बुद्धि कौशल से लार्ड कार्नवालिस को इस बात के लिए राजी कर लिया कि आधा राज्य और युद्ध का व्यय अगर टीपू सुल्तान (Tipu Sultan) अदा कर दे तो उससे संधि कर ली जाए।

टीपू सुल्तान (Tipu Sultan) इस जाल में फंस गया। उसने उपरोक्त शतों पर सधि कर ली। लेकिन मन ही मन उसके स्वाभिमान को जो ठेस लगी उसे वही जानता था। कहते हैं उस संधि के बाद वह कभी पलंग पर नहीं सोया। जमीन पर कपड़े के कुछ टुकड़े बिछा कर रात गुजार लेता था। कहने को टीपू सुल्तान कट्टर मुसलमान था। लेकिन उसने अपने जीवन में हिन्दुओं या अन्य मतावलम्बियों पर जुल्म ढाए हों ऐसा कोई दृष्टांत नहीं मिलता। प्रत्युत उसके दरबार में हिन्दू ऊंचे ऊंचे पदों पर आसीन थे। पूनिया जैसे सहयोगियों का बह जीवन भर सम्मान करता रहा।

कृष्ण राव जैसे ब्राह्मण उसके विश्वासपात्र मित्र में से थे। उनके मशवरे का वह हमेशा आदर करता था। श्रीनिवास और श्री रंगनाथ जी के प्रसिद्ध मंदिरों को उसने बड़ी-बड़ी जागीरें भेंट स्वरूप र्द, थीं। श्रृंगेरी के तत्कालीन जगद्गुरु शंकराचार्य से ‘शतचंडी पाठ’ करने के लिए एक बार उसने लिखित अनुरोध किया था। समाज के कृषक और कमजोर वगों को सरकारी कर्मचारी परेशान न करें-ऐसे स्पष्ट आदेश उसने जारी कर रखे थे। वह हमेशा इस बात का ध्यान रखता था कि राज्य की प्रजा उसकी व्यवस्थाओं से दुःखी न हो। लेकिन उसके असली दुश्मन तो अंग्रेज थे,जो टीपू सुल्तान (Tipu Sultan) को समाप्त करने की नित नई तरकीबें सोचते रहते थे। सारे भारत में उनका दबदबा बढ़ता जा रहा था। ऐसे में टीपू को न जीत पाना उनकी आंखों में कांटे की तरह खटकता था।

लार्ड वेलेजली ने भारत पहुंचते ही मैसूर राज्य को जीतने के प्रयास तेज कर दिए। जो ताला जिस कुंजी से खुला, खोलते चले गए। उन्होंने चांदी और सोने की चमक से पूनिया और मीर सादिक जैसे टीपू के परम विश्वासी मित्रों का ईमान भ्रमित कर दिया। अच्छे अच्छे मैसूर राज्य के दरबारी अंग्रेजों की मुट्ठी में आ गए। दूसरी ओर उन्होंने कूटनीति का सहारा लिया टीपू सुल्तान के विरोध में मैसूर राज्य की हिन्दु गद्दी को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए एक नया दल उठ खड़ा हुआ। टीपू सुल्तान तेजी से बदल रहे हालात को समझ रहा था। उसने विश्वासघात यों की एक सूची बनाई। मीर सादिक का नाम सबसे ऊपर था। लेकिन एक फकीर ने जाकर उसे इस बात की सूचना दे दी कि सुल्तान आज रात उसका वध कर देंगे।

जिन्दगी की आखिरी शाम आ पहुंची। सुल्तान (Tipu Sultan) ने भोजन का पहला ही कौर उठाया था कि उसे खबर मिली कि अत्यन्त विश्वास एवं किले का प्रधान संरक्षक सैयद गफ्फार मारा गया है और अंग्रेज सेना हमला करती हुई किले में घुस आई है, वह खाना छोड़कर दौड़ा। तभी मीर सादिक भी मारा गया। लेकिन मरने से पहले उसने किले के दरवाजे हमेशा के लिए बन्द करवा दिए थे। सुल्तान ने उन्हें खोलने का हुक्म दिया लेकिन पहरेदारों ने हुक्म मानने से इन्कार कर दिया। अब केवल दो ही रास्ते बचे थे। पहले-मुट्ठी भर सैनिकों को साथ लेकर अंग्रेजों से मुकाबला किया जाए, दूसरा-अंग्रेज सैनिकों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया जाए। टीपू (Tipu Sultan) ने पहला रास्ता चुना और तूफान की तरह अंग्रेज सैनिकों पर टूट पड़ा। सीने पर दो गोलियां लगीं, शाही पगड़ी धूल में गिर पड़ी, लेकिन उसकी बन्दूक अभी भी दुश्मनों पर कहर ढा रही थी। अंग-अंग जख्मी हो चुका था।

एक अंग्रेज सैनिक ने इस लालच से कि सुल्तान (Tipu Sultan) की कमर में बंधी जड़ाऊ पेटी छीन ली जाए, उसका घुटना उड़ा दिया। उसी समय कहीं से आकर एक गोली सुल्तान की कंपनी में लगी और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। लेकिन हाथ में पकड़ी हई तलवार हाथ से छूटकर नीचे नहीं गिरी। कहते हैं टीपू सुल्तान के मृत शरीर से तलवार पर कसा हुआ उसके हाथ का शिकंजा ढीला नहीं हुआ था। मीर हुसैन अली खां किरमानी के अनुसार सुल्तान की मृत्यु के बाद श्रीरंगपट्टम महल में जो कत्ल, लूट और बलात्कार हुए उसका वर्णन करना नामुमकिन है। अंग्रेजों के रास्ते की चट्टान दूर हो गई। रियासते मैसूर अंग्रेजों ने फतह कर ली और इस प्रकार एक के बाद एक राज्य हड़पने की विदेश नीति कामयाब होती गई। इसमें सन्देह नहीं कि उस दौर में टीपू सुल्तान जैसा बहादुर और दिलेर शासक दूसरा नहीं था।

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