‘बोफोर्स’ तोप से उड़ा दी थी कांग्रेस की सरकार, ‘मंडल’ से मचा दिया देश में हाहाकार

जब वी पी सिंह फाइनेंस मिनिस्टर थे, तब टैक्स चोरी को लेकर वो धीरूभाई अंबानी और अमिताभ बच्चन के पीछे पड़ गए थे। यही वजह थी कि उन्हें वित्त से हटाकर रक्षा मंत्रालय दे दिया गया। लेकिन यह दांव कांग्रेस सरकार को काफी भरा पड़ा।

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वी पी सिंह जयंती

देश के आठवें प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की आज जयंती है। वी पी सिंह के नाम से मशहूर इस राजनेता का सफर विवादों और सुर्खियों से भरा रहा। प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की पुत्री को अपहरणकर्ताओं से छुड़ाने के लिए आतंकवादियों की रिहाई, रथयात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी और मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला उन्हें कई बार सुर्खियों में ले आया। दलित व निचली जाति के लोगों को चुनावी राजनीती में लाने का श्रेय वीपी सिंह को ही दिया जाता है। उन्होंने राजनीति से भ्रष्टाचार खत्म करने का बीड़ा उठाया और देश के हीरो बन गए लेकिन मंडल कमीशन लागू करने का उनके फैसले ने देश की राजनीति बदल दी। वी पी सिंह कहा करते थे, ‘सामाजिक परिवर्तन की जो मशाल उन्होंने जलाई है और उसके उजाले में जो आंधी उठी है, उसका तार्किक परिणति तक पहुंचना अभी शेष है। अभी तो सेमीफाइनल भर हुआ है और हो सकता है कि फाइनल मेरे बाद हो। लेकिन अब कोई भी शक्ति उसका रास्ता नहीं रोक पाएगी।’

वी पी सिंह का जन्म 25 जून, 1931 में इलाहाबाद के एक जमींदार परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम राजा भगवती प्रसाद सिंह था। लेकिन 1936 में वी पी सिंह को मांडवा के राजा बहादुर राय गोपाल सिंह ने गोद ले लिया था। 1941 में राजा बहादुर राय की मौत के बाद वी पी सिंह को मांडवा का 41वां राजा बहादुर बना दिया गया। वी पी सिंह की पढ़ाई की शुरूआत देहरादून के कैंब्रिज स्कूल से हुई थी। आगे का अध्ययन इलाहाबाद से पूरा किया, फिर इसके बाद पुणे यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की। पढ़ाई के समय से ही इनका राजनीति में रुझान रहा। वे वाराणसी के उदय प्रताप कॉलेज के स्टूडेंट यूनियन के प्रेसिडेंट रहे। इसके अलावा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के वाइस प्रेसिडेंट रहे। वी पी सिंह ने छात्र जीवन में बहुत से आंदोलन किए और उनका नेतृत्व संभाला। वी पी सिंह ने 1969 में एक सदस्य के रूप में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ली।

वे एक कुशल राजनीतिज्ञ थे। 1969 में वे उत्तर प्रदेश की विधानसभा के सदस्य बने। उस वक्त वे कांग्रेस के नेता थे। 1971 में उन्होंने लोकसभा का चुनाव जीता। 1974 में इन्दिरा गांधी ने इन्हें केंद्रीय वाणिज्य उप मंत्री बना दिया। वी पी सिंह ने 1974-1976 तक इस पद को संभाला। नवंबर, 1976 से मार्च, 1977 तक वाणिज्य संघ राज्य मंत्री रहे। 1980 में जनता दल की सरकार गिरने के बाद जब इन्दिरा वापस सत्ता में आईं, तो वी पी सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया। 1982 तक वे इस पद पर रहे, इसके बाद वापस 1983 में इन्होंने केंद्रीय वाणिज्य मंत्री का पद संभाला। 1984 में जब राजीव गांधी ने सत्ता संभाली, तब वी पी सिंह को वित्त मंत्री का पद दिया गया। कुछ समय बाद 1987 में इन्हें रक्षा मंत्री का पद दे दिया गया।

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इसके पीछे कहानी यह है कि जब वी पी सिंह फाइनेंस मिनिस्टर थे, तब वो धीरूभाई अंबानी और अमिताभ बच्चन के टैक्स के पीछे पड़ गए थे। कहा जाता है कि ये लोग बहुत टैक्स बचाते थे। यह भी कहा जाता है कि वी पी सिंह की इसी जिद के चलते उन्हें फाइनेंस से हटाकर डिफेंस मिनिस्ट्री में डाल दिया गया। वहां पर वी पी सिंह ने बोफोर्स घोटाले को लेकर बहुत से पेपर निकाले। इस घोटाले ने राजीव गांधी सरकार की फजीहत कर दी थी। वी पी सिंह कांग्रेस पर बढ़ रहे गांधी परिवार के वर्चस्व से काफी निराश थे। इसलिए उन्हें राजीव गांधी के साथ काम करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। राजीव गांधी के समय हुए बोफोर्स कांड में कांग्रेस की छवि पूरी तरह बिगड़ गई। राजीव गांधी से मतभेद के चलते वी पी सिंह को कैबिनेट से निष्काषित कर दिया गया। जिसके बाद सिंह ने कांग्रेस और लोकसभा दोनों से रिजाइन कर दिया। वी पी सिंह ने अरुण नेहरु व आरिफ मोहम्मद खान के साथ 1987 में जन मोर्चा पार्टी का गठन किया और कांग्रेस के विरुद्ध प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया।

1988 में इन्हें इलाहबाद से लोकसभा की सीट फिर मिल गई। जिसके बाद 11 अक्टूबर, 1988 को जन मोर्चा, जनता पार्टी, लोक दल ने मिलकर गठबंधन किया, इस पार्टी का नाम जनता दल रखा गया। ये सभी पार्टियां मिलकर राजीव गांधी के विरुद्ध खड़ी थीं। वी पी सिंह को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। अंततः 2 दिसम्बर, 1989 में जनता दल को भारी बहुमत से विजय प्राप्त हुई और वी पी सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया गया। वे जब प्रधानमंत्री बने तो देशवासियों के नाम पहले संदेश में कहा था- ‘आज मैं जन्नत लाने का वादा तो नहीं कर सकता, लेकिन आश्वस्त करता हूं कि हमारे पास एक भी रोटी होगी तो उसमें सारे देशवासियों का न्यायोचित हक सुनिश्चित किया जाएगा और विकास के लाभों का न्यायोचित वितरण होगा।’ लेकिन जिस एक चीज ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को विश्वनाथ प्रताप सिंह बनाया, वह था उनका यह दो टूक बयान- ‘भले ही गोल करने में मेरी टांग टूट गई, लेकिन गोल तो होकर ही रहा।’

एक बार कदम आगे बढ़ा देने के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर देखना गवारा नहीं किया। न ही मंडल आयोग की सिफारिशों के बारे में और न ही अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद के संदर्भ में। अयोध्या में कई लोग आज भी कहते हैं कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में उनकी सरकार द्वारा प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण की पहल को साजिशन विवादास्पद बनाकर विफल न कर दिया गया होता तो कौन जाने आज विवाद का पटाक्षेप हो चुका होता। ऐसा नहीं हो पाया तो सिर्फ इसलिए कि कुछ लोगों को इस विवाद को सीढी बनाकर सत्ता तक पहुंचना था। वी पी सिंह का कार्यकाल 2 दिसम्बर 1989 से 10 नवम्बर 1990 तक ही था। एक और खास बात यह कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के राजनेता के भीतर एक संवेदनशील कवि और चित्रकार भी छिपे थे। यह और बात है कि राजनेता के भार से दबे रहने के कारण उनका ठीक से मूल्यांकन नहीं हो पाया।

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