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नक्सलग्रस्त दंतेवाड़ा के कावड़गांव को वालीबॉल दे रहा नई पहचान

कावड़गांव में वालीबॉल खेलते बच्चे

नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा का कावड़गांव। बाकी की दुनिया और इनके गांव के बीच आड़े आती है एक नदी, डुमाम नदी। जहां के लोगों को आज से कुछ साल पहले तक अपनी रोजमर्रा की चीजें लाने के लिए जान जोखिम में डाल डुमाम नदी पार कर के दूसरे गांव जाना पड़ता था। ग्रामीणों को सरकारी काम-काज से लेकर अन्य चीजों के लिए जिला मुख्यालय भी ऐसे ही जोखिम उठाकर जाना पड़ता था। पर आज वहां का नजारा कुछ और है। पढ़ाई के साथ-साथ खेलों में भी यहां के युवा अपनी पहचान बना रहे हैं। खासकर वालीबॉल के लिए तो यहां के युवा ही नहीं 4 साल के बच्चे तक दीवाने हैं।

यहां के आंगनबाड़ी और प्राइमरी स्कूल के बच्चों को भी आप वॉलीबॉल का अभ्यास करते देख सकते हैं। जुनून इतना कि वे अकेले ही अभ्यास करते हैं, इसके लिए किसी कोच, ट्रेनर या बड़े के मोहताज नहीं हैं। इस गांव से 5 खिलाड़ी नेशनल और स्टेट लेवल पर कई बार खेल चुके हैं। मंगल सोड़ी 8 बार, हिड़मा सोड़ी 6 बार तो पंडरू पोयाम ने 2 बार नेशनल गेम्स में छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व किया है। वहीं गुड़डी भवानी और रामप्रसाद सेठिया भी स्टेट गेम्स में जिले व संभाग का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।

दंतेवाड़ा से 28 किमी दूर माओवादियों के खूनी खेल को गवाह रहे इस गांव में वॉलीबॉल खेलने की शुरूआत 90 के दशक में हुई। यहां के स्थानीय शिक्षकों ने इसके लिए पहल की थी। तब इस गांव में सड़क जैसी बुनियादी सुविधा भी नहीं थी। मनोरंजन का एकमात्र साधन वॉलीबॉल का खेल ही था। अब तबादले पर दूसरी जगह जा चुके शिक्षक एलके विश्वकर्मा और साथियों ने मिलकर उस वक्त इसकी शुरूआत की।

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शिक्षक विश्वकर्मा ने ग्रामीणों के उत्साह को देखते हुए वर्ष 1994 में आपस में चंदा इकट्ठा कर जन सहयोग से कावड़गांव में संभाग स्तरीय वॉलीबाल स्पर्धा की शुरूआत की। यह स्पर्धा लगातार वर्ष 2017 तक आयोजित होती रही। इस सालाना प्रतियोगिता में संभाग भर की बड़ी टीमों के बीच रोमांचक मुकाबले होते थे। इससे  ग्रामीणों का इस खेल के प्रति उत्साह बढ़ता रहा और इसकी ही देन है कि गांव से कई चैंपियन खिलाड़ी निकलने लगे। इस गांव को अब वॉलीबॉल में एक नई पहचान मिल गई है।