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दशकों तक खेला खूनी खेल, आज समाज के लिए कर रहे काम; पढ़ें इन दो पूर्व नक्सलियों की कहानी

गलती हर इंसान से होती है, पर गलती का एहसास कर उसे सुधारना सबसे बड़ी बात होती है। अगर दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो इंसान बड़ी से बड़ी गलती सुधार सकता है, भटके हुए राह से सही रास्ते पर वापस आ सकता है। आज हम दो ऐसे लोगों की कहानी बताएंगे जो एक समय में खौफ का दूसरा नाम हुआ करते थे। न जाने कितने ही अपराध किए इन दोनों ने। पर दोनों को अपनी भूल का एहसास हुआ और उन अंधेरे रास्तों से वापस आकर इन्होंने एक नई शुरुआत की।

हथियार छोड़ समाज में दे रहे शांति का संदेश: नागा दुसाध उर्फ नागा पासवान एक समय में बिहार खौफ का पर्याय हुआ करते थे। नागा नक्सली संगठन (Naxal Organization) भाकपा माओवादी के सब-जोनल कमांडर थे। औरंगाबाद जिले के रफीगंज थाना क्षेत्र के बेढ़ना बिगहा (कौआखाप) गांव के रहने वाले हैं नागा। नागा साल 1983 में नक्सली संगठन (Naxal Organization) से जुड़े। औरंगाबाद, गया, नालंदा और आस-पास के जिलों में हुईं कई नक्सली (Naxali) वारदातों में आरोपी रहे। वे तीन बार जेल गए।

नागा बताते हैं, “जब नक्सली था तो पुलिस के डर से भागा-भागा फिरता था। कभी भूखे पेट भी रहना पड़ा। हथियार छोड़ दिया तो परिवार के साथ चैन से हूं। खेती कर परिवार का भरण- पोषण कर रहा हूं। सरकारी मदद से बने घर में तीन पीढ़ियां एक साथ रह रही हैं। दो बेटे हैं, जो निजी कंपनी में नौकरी करते हैं। उन दोनों की पत्नी और उनके बच्चे घर पर रहते हैं। बच्चे स्कूल जा रहे हैं।” उस दौर को याद कर नागा की पत्नी जीतनी देवी आज भी सिहर उठती हैं। वे बताती हैं, “इनको (नागा को) ढूंढते हुए आए दिन पुलिस घर पर धमक जाती थी।” 

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वक्त के साथ जब नागा को अपनी गलतियों का एहसास हुआ को पांच साल पहले उन्होंने हथियार डाल दिया। वे समाज की मुख्यधारा में लौट आए और परिवार के साथ शांतिपूर्ण जीवन बीता रहे हैं। आज नागा दूसरों के झगड़े निपटाते हैं और समाज में शांति का संदेश देते हैं।

सालों तक किया खून-खराबा, अब कर रहे लोगों की सेवा: औरंगाबाद जिले के रफीगंज थाना क्षेत्र में ही एक गांव है खड़वां। उसी गांव के रहने वाले हैं रामाशीष पासवान उर्फ संजय पासवान। इलाके में कभी उनके नाम का दहशत हुआ करता था। वह नक्सली संगठन (Naxal Organization) भाकपा माओवादी के बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के स्पेशल एरिया कमेटी में थे। 11 सालों तक जेल में रहे।

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संजय बताते हैं, “अपने एक रिश्तेदार के भाषणों से प्रभावित होकर 1978 में नक्सली बन गया। बिहार और झारखंड के कई थानों में 24 नक्सली वारदातों में आरोपी रहा, जिसमें दरमिया कांड प्रमुख था। कई बार घर की कुर्की हुई। उसी बीच बीमारी से पत्नी की मौत हो गई। दरमियां कांड में उम्रकैद की सजा मिली। सेंट्रल जेल में रहने के दौरान ही दूसरी पत्नी की हत्या हो गई। दरमियां कांड में आधी सजा काटने के बाद 2015 में रिहाई मिली। दूसरे मामलों में भी जमानत लेकर बाहर निकला और एक्यूप्रेशर और होम्योपैथिक चिकित्सा के माध्यम से लोगों की सेवा करने लगा। पंचायत चुनाव में दो बार भाग्य आजमाया, लेकिन नाकाम रहा। चार बेटे हैं, लेकिन सभी साथ छोड़ चुके हैं।”

कभी खून-खराबा करने वाले रामाशीष पासवान उर्फ संजय पासवान आज लोगों के दुख-दर्द की दवा करते हैं। हथियार डालने के बाद अब वे रफीगंज बाजार में होम्योपैथिक क्लीनिक चला रहे हैं। संजय पासवान ने बताया, “नक्सल आंदोलन की धार कुंद हो चुकी है। उसकी आड़ में अब केवल धन की उगाही की जा रही।”