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सियासत में जरूरी है रवादारी, कांग्रेस समझती क्यों नहीं?

Article 370 को लेकर कांग्रेस का स्टैंड समझ से परे है।

सियासत में जरूरी है रवा-दारी समझता है,

वो रोज़ा तो नहीं रखता पर इफ्तारी समझता है।

राहत इंदौरी के इस शेर का बस एक ही शब्द चुराना चाहते थे, पर ये इतना अच्छा है कि एक शब्द से बात बनी नहीं। पूरा शेर ही चस्पा मार दिए। वो शब्द है रवादारी (रवा-दारी)। माने उदारता, सहनशीलता वगैरह।

हुआ ये कि केंद्र की मोदी सरकार ने आर्टिकल 370 को निष्क्रिय कर दिया। जम्मू कश्मीर पुनर्गठन बिल पास करवा लिया। दो दिन में ही सब हो गया, गजट भी आ गया। ये दर्शाता है कि सरकार इस मुद्दे को लेकर किस कदर प्रतिबद्ध थी। बाहर बेशक किसी को खबर ना हो, लेकिन भीतरखाने सरकार ने होमवर्क पूरा कर रखा था। वरना 70 सालों से जिस अनचाहे दर्द से हम बेज़ार थे, उसे एक झटके में भला कौन ठीक कर सकता था। इसके लिए सरकार, खासतौर से गृह मंत्री अमित शाह को कोटि-कोटि धन्यवाद और कश्मीर को देश का शीश मानने वालों को बहुत-बहुत बधाई। अलबत्ता कश्मीरी लड़कियों और कश्मीर की जमीन चाहने वालों को सलाह है कि रवादारी सिर्फ सियासत में ही नहीं जरूरी होता है। यह ऐसा इंसानी गुण है जो आदिम की हर संतान में होना चाहिए। लिहाजा, अपनी कुंठा को काबू में रखिए।

हां, तो बात रवादारी से शुरू हुई थी। इसको लेकर चंद साल पहले देश में बहुत हो हल्ला भी मचा था। बहरहाल, उस पर नहीं जाते हैं। दरअसल, गृहमंत्री अमित शाह ने जब सदन में अनुच्छेद 370 हटाने का संकल्प पेश किया तो सदन में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी साहब अधीर हो उठे। सवाल दाग दिया कि जिस कश्मीर को लेकर शिमला समझौते और लाहौर डिक्लेरेशन हुआ है और जिस कश्मीर को लेकर विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो को कहा है कि कश्मीर द्विपक्षीय मामला है तो ऐसे में यह एकपक्षीय कैसे हो गया? आपने अभी कहा कि कश्मीर अंदरूनी मामला है, लेकिन यहां अभी भी संयुक्त राष्ट्र 1948 से मॉनिटरिंग करता आ रहा है। यह हमारा आंतरिक मामला कैसे हो गया? अपनी विद्वता का स्वबखान करते हुए वो यहीं नहीं रुके। उन्होंने आगे कहा कि सरकार 1994 में पास हुए प्रस्ताव कि पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इस पर अपना रुख साफ करे।

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अब इन महोदय को कौन समझाए कि सदन में आने से पहले थोड़ा पढ़ना-लिखना जरूरी होता है। बहरहाल, जिस वक्त वो ज्ञान गंगा बहाए जा रहे थे उस वक्त सदन में राहुल गांधी और सोनिया गांधी दोनों मौजूद थे। कहा जाता है कि बाद में सोनिया गांधी ने अधीर रंजन चौधरी को फटकार भी लगाई। पर अगर फटकार से बात बन जाती तो इसकी बात ही नहीं होती आज। इससे पहले राज्यसभा में गुलाम नबी आजाद भी इस संकल्प और जम्मू कश्मीर पुनर्गठन बिल का विरोध कर चुके थे।

पर खास बात ये है कि सरकार द्वारा पेश किए गए बिल को लेकर विपक्ष एकमत नहीं था। विपक्ष की तो छोड़िए खुद कांग्रेस में ही एकमत नहीं दिखा। कई कांग्रेसी नेताओं ने सरकार की इस पहल का दिल खोल कर स्वागत किया। इसमें भुवनेश्वर कलिता, दीपेंद्र हुड्डा और रायबरेली में कांग्रेस की नेता और विधायक आदित्य सिंह और कांग्रेस के पुराने सिपहसालार जनार्दन द्विवेदी तक शामिल हैं। यह पक्ष तब और मजबूत हो गया जब ज्योतिरादित्य सिंधिया भी सरकार के फैसले के समर्थन में आ गए। यानी जम्मू कश्मीर को लेकर कांग्रेस का अपना कोई स्टैंड है ही नहीं।

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मामला फिर भी नियंत्रण में था, लेकिन फिर अगले दिन आई एक तस्वीर। जम्मू कश्मीर का जायजा लेने घाटी पहुंचे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शोपियां में कुछ स्थानीय लोगों के साथ सहज भाव से खाते-पीते, बात करते दिखे। कांग्रेस के कुछ महानायकों को इसमें भी नुक़्ता नज़र आ गया। आरोप लगा दिए कि इन लोगों को पैसे देकर बुलाया गया है। मतलब, कुछ भी। जो लोग भी सरकार के समर्थन में खड़े हैं, सब बिके हैं। फिर ज्योतिरादित्य समेत उन कांग्रेस नेताओं के बारे में रुख स्पष्ट होना चाहिए जिन्होंने दिल खोल कर इस फैसले का स्वागत किया है।

गुलाम नबी आजाद एक सम्मानित सांसद रहे हैं। उनसे ऐसी बचकानी भाषा की उम्मीद नहीं थी। मुमकिन है कि आप सरकार के फैसले से असहमत हों, लेकिन ये कैसे भूल गए कि आप पहले एक हिंदुस्तानी हैं। आप कश्मीरी भी हैं, ये आपकी दूसरी पहचान है। पहचान के इस झोल में आप नागरिकता का बोध तो मत खोइए। ये वही भाषा है जो पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बोलते हैं। हिंदुस्तान की रोटी खाकर पाकिस्तान का राग अलापने वाले अलगाववादी बोलते हैं।

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कुछ ऐसी ही भाषा अधीर रंजन चौधरी ने इस्तेमाल की। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने कश्मीर को कंसन्ट्रेशन कैंप में तब्दील कर दिया है। साबित क्या करना चाहते हैं कांग्रेस के ये नेता? कभी गौर किया कि आपकी भाषा और देश को तोड़ने की साजिश करने वालों की भाषा में क्या फर्क है? डर सिर्फ भाषा को लेकर ही नहीं है, सवाल तो विचारधारा पर भी उठने लगे हैं।

याद रखना होगा कि राजनीतिक दल का मतलब सिर्फ लोगों का समूह नहीं होता है। राजनीतिक दल का मतलब एक विचार के लोगों का समूह होता है। ये सूमह जब तक साझा विचारधारा पर आधारित रहता है, तभी तक फलगामी होता है। शायद इसी विचार शून्यता का नतीजा है कि आज देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी एक वाजिब विपक्ष की हैसियत के लिए भी लाचार दिख रही है।

गनीमत है कि इतना सारा रायता फैलाने के बाद कांग्रेस पार्टी ने ये तय किया है कि वो अनुच्छेद 370 का नहीं बल्कि उसे हटाने की प्रक्रिया का विरोध करेगी। विरोध होना ही चाहिए। यही तो लोकतंत्र है कि यहां हर आवाज के लिए स्कोप है। पर, विरोध किसी पार्टी का करना है, देशहित का करना है या फिर देश का ही करना है, ये स्पष्टता आवश्यक है। बाकी तो इतिहास गवाह है कि इंसानी कौम ने नुक़्ते के फेर से खुदा को जुदा होते देखा है।

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