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नक्सलियों के चुनावी बहिष्कार को ठेंगा दिखाते ग्रामीण आदिवासी

भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। जहां हर साल कहीं न कहीं चुनाव होता रहता है। जनता लोकतंत्र के इस महान-पर्व का खूब जश्न मनाती है। वोटिंग के ज़रिए अपना प्रतिनिधि चुनती है। चुनाव के वक़्त लोग छुट्टियां लेकर अपने घर वोट डालने के लिए जाते हैं।

चुनाव वाले दिन सुबह से ही लोग तैयार होकर पोलिंग बूथ पर जाकर अपने मताधिकार का प्रयोग करके इस लोकतांत्रिक पर्व को सफल बनाते हैं। जहां शहरी आबादी इस प्रक्रिया में थोड़ी पीछे रह जाती है, वहीं ग्रामीण भारत में आज भी लोग पूरे जोश और उत्साह के साथ अपना नेता चुनने के लिए पोलिंग बूथ तक का सफर करते हैं।

कई जगह तो पोलिंग बूथ घर से काफी दूर होता है। पर यह दूरी लोगों के हौसले को कम नहीं कर पाती। नक्सल प्रभावित क्षेत्र में जहां नक्सल संगठन चुनावी प्रक्रिया को विफल बनाने के लिए तरह तरह अड़ंगे डालते रहते हैं, वहीं जनता उनके मंसूबों को नाकाम करने के लिए मतदान का सहारा लेती है।

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नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले लोग नक्सलियों से बिना खौफ खाए मताधिकार का प्रयोग करते हैं। इनका ये जज़्बा नक्सलवाद और इसके समर्थकों के मुंह पर जोरदार तमाचा है। छत्तीसगढ़ के कांकेर लोकसभा क्षेत्र में आज भी कई गांव ऐसे हैं, जहां के मतदाता 90 किलोमीटर तक का सफर तय कर वोट डालने जाते हैं।

छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के सिहावा विधानसभा क्षेत्र का बरपदर सोंढूर गांव बीहड़ में बसा हुआ है। यहां पर पास में कोई पोलिंग बूथ नहीं है। पोलिंग बूथ काफी दूर है, जहां पहुंचने के लिए मतदाता नाव से जाते हैं। बांध पार करने के बाद ग्राम मेचका स्थित पोलिंग बूथ तक 10 किलोमीटर का सफर पैदल करते हैं।

इसी विधानसभा क्षेत्र में एक और गांव है, जिसका नाम बोईरगांव है। यहां के मतदाता 25 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर वोट डालने जाते हैं। पोलिंग बूथ तक जाने के लिए इनके पास कोई साधन नहीं है। लेकिन लोकतंत्र में ईमान है, इसलिए इतनी लम्बी दूरी भी पैदल ही चलकर तय कर लेते हैं।

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वहीं अति नक्सल प्रभावित ग्राम उजरावन के मतदाता 90 किलोमीटर तक का सफर तय करके ग्राम सलोनी के मतदान केंद्र तक पहुंचते हैं। दरअसल, हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में कहीं-कहीं थोड़ी सी आबादी बहुत दूर बसी है। कई गांव बेहद छोटे हैं, जहां मतदाता भी संख्या में लगभग 50 से 100 के बीच में ही होते हैं।

पहाड़, जंगल और नदी का रास्ता होता है। ऐसे में प्रशासन की पूरी कोशिश रहती है कि उनके घर तक पोलिंग बूथ पहुंचाया जा सके। पर कुछ जगह ये मुमकिन नहीं हो पाता है। इसलिए बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं। लेकिन अहम बात यह है कि इतने पिछड़े इलाकों में होने के बावजूद लोकतंत्र में इनकी आस्था अटूट है और यही वजह है कि ये लोग सभी बाधाओं को पार कर के अपना कीमती वोट देने जाते हैं। साथ ही नक्सलियों के एजेंडे को विफल बनाते हैं।

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