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नक्सलवादियों के दिन लदने लगे हैं, काउंट डाउन शुरू

कश्मीर में उबाल जारी है, पूर्वोत्तर में भी हिंसक गतिविधियां थमने का नाम नहीं ले रही हैं, ऐसे में तो देश के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से सकारात्मक खबर सुनने को मिली, तो खुश होना लाजिमी है। ये बहुत पहले की बात नहीं है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने नक्सल हिंसा को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा करार दिया था। एक राष्ट्र के तौर पर हम इस बात से खुश हो सकते हैं कि तब से लेकर अब तक देश ने एक लंबा सफर तय किया है। खास ये है कि ये सफर सकारात्मक दिशा में है। अंधेरे से उजाले का सफर।

बेशक, नक्सल गतिविधियां पूरी तरह थमी नहीं हैं, रह-रह कर हिंसक वारदातों की खबरें सुर्खियां बनती रहती हैं, फिर भी पुख्ता तौर पर ये कहने में कोई गुरेज नहीं है, अगर छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों को छोड़ दें तो लाल आतंक अब गुरुब पर है।

ओडिशा, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार जैसे राज्यों में सुरक्षाबलों के प्रतिबद्ध और ठोस प्रयासों के चलते नक्सल आतंकवाद काफी हद तक कमजोर हो गया है। ये कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हो रहे विकास कार्यों ने सुरक्षाबलों द्वारा किए जा रहे प्रयासों को बल दिला है। विकास संबंधी ये कार्य केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा निरंतर किए जा रहे हैं। यानी लाल आतंकवाद पर नकेल कसने में सुरक्षा बलों के साथ-साथ सरकारों की भी अहम भूमिका है।

इस बात का सबसे बड़ा सूचक हैं पिछले एक दशक के वो आंकड़े, जो दर्शाते हैं कि हताहत होने वाले जवानों और आम नागरिकों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। साल 2010 की बात करें, तो हिंसक वारदतों में जान गंवाने वाले सुरक्षाबलों और सिविलियन की संख्या 1000 पार पहुंच गई थी। इन आंकड़ों में 2012 के बाद से लगातार गिरावट आई है। उस साल यह आंकड़ा 415 पर आ गया था। अगले साल यानी 2013 और 2014 में ये आंकड़ना नीचे गिरकर क्रमशः 397 और 310 हो गया था। 2015 में यह आंकड़ा 230 तक आ गया था, जो पिछले 10 सालों में न्यूनतम था। पिछले साल यानी 2018 में हताहत होने वाले सुरक्षाबल के जवानों और सिविलियन की संख्या 240 तक आ गई थी, जो 2010 के आंकड़ों के मुकाबले करीब-करीब एक चौथाई है।

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नक्सल संबंधित हिंसा की वारदातों की बात करें, तो इनमें भी लगातार गिरावट देखने को मिली है। बीते 10 साल में यह आंकड़ा 2009 के 2258 के मुकाबले करीब-करीब एक तिहाई तक आ चुका है। 2018 में नक्सली वारदातों की संख्या घट कर 833 रह गई थी। 2009 में 317 जवानों की जान गई थी। पिछले साल यह संख्या 67 थी। खास बात ये है कि ये आंकड़े तुर्रा नहीं हैं, बल्कि यह गिरावट निरंतर जारी है। 2012 में, हताहत होने वाले सुरक्षाबल के जवानों की संख्या 114 थी, अगले साल 115 हुई और फिर 88 और 2015 में यह अपने निचले स्तर 59 तक पहुंच गई। साल 2016 और 2017 में यह संख्या क्रमशः 65 और 75 थी।

लोकल पुलिस के लिए एक बड़ी समस्या थी नक्सलियों द्वारा हथियारों की लूट। अक्सर वारदात को अंजाम देने के बाद नक्सली, पुलिसकर्मियों के हथियार छीन कर भाग जाते थे। पिछले कुछ वक्त में इसमें भी उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है। इससे जहां नक्सलियों के हथियारों के जखीरे में लगातार इजाफा होता जा रहा था वहीं लोकल पुलिस के लिए बड़ा सिरदर्द बन गया था। आलम ये था कि साल 2010 में हथियारों की लूटपाट के 256 मामले दर्ज किए गए थे। वहीं, पिछले चार सालों में ये आंकड़े क्रमशः 18, 3, 34 और 19 पर आ गए।

पुलिस और अन्य सुरक्षाबल के जवानों पर होने वाले नक्सली हमलों में भी तेजी से गिरावट आई है। बीते 10 सालों में यह आंकड़ा करीब-करीब आधे पर आ टिका है। पिछले साल ऐसे 100 मामले दर्ज किए गए थे जो 2009 के 249 के मुकाबले आधे से भी काफी कम हैं।

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अच्छी बात ये है कि इन सालों में मारे जाने वाले नक्सलियों की संख्या में इजाफा हुआ है। 2009 में जहां 220 नक्सली मारे गए थे वहीं 2018 में मारे गए नक्सलियों की संख्या बढ़कर 225 हो गई। साथ ही, बड़े नक्सलियों द्वारा एक के बाद प्रशासन के सामने सरेंडर करने की घटना आम हो चली है। इस बात के लिए सुरक्षाबलों और राज्य सरकारों की मेहनत को नकारा नहीं जा सकता है। आंकड़ों की बात करें, तो 2009 में जहां 150 नक्सलियों ने सरेंडर किया था वहीं 2018 में यह संख्या 4 गुना बढ़ कर 644 हो गई। नक्सलियों द्वारा धड़ल्ले से सरेंडर करने के पीछे मौजूं वजहें भी हैं। सुरक्षाबलों द्वारा लगातार की जा रही कार्रवाई और उनके द्वारा बनाया जा रहा दबाव निसंदेह एक बड़ा कारण है। साथ ही, इस बात को भी नजरअंदाज नहीं जा सकता कि नक्सल विचारधारा में आई गिरावट या यूं कहें भटकाव भी इसका एक बड़ा कारण है। तमाम बड़े नक्सली जो विचारधारा और आदर्शों के चलते इस आंदोलन से जुड़े थे, उन्हें अब एहसास होने लगा है कि नक्सल आंदोलन अपनी राह से भटक गया है, जो चंद बड़े नक्सली नेताओं के लिए शोषण और उगाही का जरिया भर बन कर रह गया है।

ये संकेत उत्साह बढ़ाने वाले हैं। पर जरुरत है कि दबाव बनाए रखा जाए, न सिर्फ विकास कार्यों पर बल्कि सुरक्षा के मोर्चे पर भी। प्रशासन बेशक इस सफलता के लिए अपनी पीठ थपथपा सकता है, लेकिन चौकसी में किसी भी तरह की कोताही नहीं बरती जा सकती है। किसी भी तरह की चूक या ढिलाई का मतलब होगा कि नक्सली फिर से संगठित और मजबूत हो जाएंगे और बरसों की कठिन मेहनत जाया चली जाएगी।

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