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बटुकेश्वर दत्त: वह क्रांतिकारी जिसने आजाद भारत में जी जिल्लत की जिंदगी

बटुकेश्वर दत्त

बटुकेश्वर दत्त, वह क्रांतिकारी जिन्होंने 1929 में अपने साथी भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजी सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंक कर इंकलाब जिंदाबाद के नारों के साथ जिंदगी भर को काला-पानी तस्लीम किया था। वही बटुकेश्वर दत्त जिन्हें आजादी के बाद जिंदगी की गाड़ी खींचने के लिए कभी एक सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर पटना की गुटखा-तंबाकू की दुकानों के इर्द-गिर्द भटकना पड़ा तो कभी बिस्किट और डबलरोटी बना कर गुजारा करना पड़ा। 1964 में बटुकेश्वर दत्त के बीमार होने पर उन्हें पटना के सरकारी अस्पताल ले जाया गया। जहां उन्हें बिस्तर तक नहीं नसीब हुआ।

इस पर उनके मित्र और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चमनलाल आजाद ने एक अखबार के लिए गुस्से भरा लेख लिखा, ‘हिंदुस्तान इस काबिल ही नहीं है कि यहां कोई क्रांतिकारी जन्म ले। परमात्मा ने बटुकेश्वर दत्त जैसे वीर को भारत में पैदा करके बड़ी भूल की है। जिस आजाद भारत के लिए उसने अपनी पूरी जिंदगी लगा दी, उसी आजाद भारत में उसे जिंदा रहने के लिए इतनी जद्दोजहद करनी पड़ रही है।’ इसके बाद पंजाब सरकार ने अपनी तरफ से दत्त के इलाज के लिए एक हजार रुपये दिए और दिल्ली या चंडीगढ़ में उनका इलाज करवाने की पेशकश भी की। लेकिन बिहार सरकार ने तब तक उन्हें दिल्ली नहीं जाने दिया, जब तक कि मौत उनके एकदम करीब नहीं पहुंच गई। अंतत: हालत बिगड़ने पर 22 नवंबर, 1964 को उन्हें दिल्ली के सफदरजंग हॉस्पिटल लाया गया। यहां दत्त ने पत्रकारों से कहा, ‘मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फेंक कर इंकलाब जिंदाबाद की हुंकार भरी थी, वहीं मैं अपाहिज की तरह लाया जाऊंगा।’

दिसंबर में उन्हें एम्स में भर्ती करा दिया गया, जहां उन्हें कैंसर होने की बात पता चली। उनका हाल-चाल जानने जब पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन एम्‍स पहुंचे तो उन्‍होंने कहा कि वह उनके लिए क्‍या कर सकते हैं। इस पर बटुकेश्‍वर ने जवाब दिया कि उनका दाह संस्कार उनके मित्र और साथी भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए। उनके अंतिम दिनों में उनसे मिलने के लिए खुद भगत सिंह की मां भी एम्‍स आई थीं। 17 जुलाई को वह कोमा में चले गये और 20 जुलाई, 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर दत्त बाबू इस दुनिया से विदा हो गये। उनकी आखिरी इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार भारत-पाक सीमा पर हुसैनीवाला में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के समाधि स्थल के पास ही किया गया।

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भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को लोग फिर भी शहीद दिवस या जन्म दिन के बहाने याद कर लेते हैं। लेकिन, बटुकेश्वर दत्त की जिंदगी और उनकी स्मृति, दोनों की आजाद भारत में उपेक्षा हुई है। परमिट के लिए जब बटुकेश्वर दत्त की पटना के कमिश्नर के सामने पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं।

बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर, 1910 को तत्कालीन बंगाल के बर्दवान जिले के ओरी गांव में हुआ था। बटुकेश्वर को बीके दत्त, बट्टू और मोहन के नाम से जाना जाता था। हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए वो कानपुर आ गए। कानपुर शहर में ही उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद से हुई। उन दिनों चंद्रशेखर आजाद झांसी, कानपुर और इलाहाबाद के इलाकों में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियां चला रहे थे।

कानपुर में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान उनकी भगत सिंह से भेंट हुई। यह 1924 की बात है। भगत सिंह से प्रभावित होकर बटुकेश्वर दत्त उनके क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन से जुड़ गए। उन्होंने बम बनाना भी सीखा। क्रांतिकारियों द्वारा आगरा में एक बम फैक्ट्री बनाई गई थी जिसमें बटुकेश्वर दत्त ने अहम भूमिका निभाई। 8 अप्रैल 1929, तत्कालीन ब्रिटिश संसद में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था। इसका मकसद था स्वतंत्रता सेनानियों पर नकेल कसने के लिए पुलिस को ज्यादा अधिकार देना। इसका विरोध करने के लिए बटुकेश्वर दत्त ने भगत सिंह के साथ मिलकर संसद में बम फेंका। इस विरोध के कारण यह बिल एक वोट से पारित नहीं हो पाया।

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ये क्रांतिकारी वहां से भागे नहीं और स्वेच्छा से गिरफ्तार हो गए। बाद में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी हुई जबकि बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की सजा। अंडमान जेल में काला पानी की सजा काटते वक्त भगत सिंह ने उनको लिखा था, ‘आप दुनिया को यह दिखाएं कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते, बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं।’ बटुकेश्वर ने काला पानी की सजा में काफी अत्याचार सहन किए, जो पल-पल फांसी के समान थे। जेल में ही बटुकेश्वर को टीबी की बीमारी ने घेर लिया। उस वक्त इतना अच्छा इलाज भी नहीं था। 1933 और 1937 में उन्होंने जेल के अंदर ही अमानवीय अत्याचारों के खिलाफ दो बार भूख हड़ताल भी की।

अखबारों में खबर छपी तो 1937 में उन्हें बिहार के बांकीपुर केंद्रीय कारागार में शिफ्ट कर दिया गया और अगले साल रिहा भी कर दिया गया। एक तो टीबी की बीमारी और दूसरे उनके सारे साथी भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, भगवती चरण बोहरा, राजगुरु, सुखदेव सभी एक-एक करके दुनिया से विदा हो चुके थे। ऐसे में पहले उन्होंने इलाज करवाया और फिर से कूद पड़े देश की आजादी के आंदोलन में। लेकिन इस बार कोई क्रांतिकारी साथ नहीं था। बटुकेश्वर ने भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया और गिरफ्तार हो गए। 1945 में उन्हें जेल से रिहाई मिली। नवंबर, 1947 में बटुकेश्‍वर ने अंजली दत्त से शादी की और पटना को ही अपना घर बना लिया।

लेकिन आजाद भारत में उन्‍हें वो सम्‍मान नहीं मिल सका जिसके वह हकदार थे। दत्त के जीवन के कई अज्ञात पहलुओं का खुलासा नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित एक किताब में हुआ है। इसमें लिखा गया है कि आजादी की खातिर 15 साल जेल में बिताने वाले दत्त ने अपने जीवनयापन के लिए जब रोजगार की तलाश की तो उन्‍हें एक सिगरेट कंपनी में एजेंट के रूप में पहली नौकरी मिली। इसके बाद उन्‍होंने बिस्किट और डबलरोटी का एक छोटा सा कारखाना खोला, लेकिन उसमें काफी घाटा हो गया और जल्द ही बंद हो गया। कुछ समय तक टूरिस्ट एजेंट एवं बस परिवहन का काम भी किया, परंतु एक के बाद एक कामों में असफलता ही उनके हाथ लगी।

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