Taliban: 15 अगस्त को शाम का समय होते-होते ये बात सामने आई कि अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने मुल्क छोड़ दिया है और ये बात साफ हो गई कि अब तालिबान (Taliban) ही अफगानिस्तान को चलाएगा।
नई दिल्ली: 15 अगस्त को अफगानिस्तान पर तालिबान ने कब्जा कर लिया। ऐसे में पूरी दुनिया में तालिबान की चर्चा हो रही है। यहां हम आपको बताने जा रहे हैं कि आखिर ये तालिबान क्या है और इसका क्या वजूद है।
दरअसल 15 अगस्त की सुबह ये खबर सामने आई थी कि तालिबान ने जलालाबाद को अपने कब्जे में ले लिया है और बहुत जल्द वो काबुल को भी अपने नियंत्रण में ले लेगा।
इस खबर के बाद दुनियाभर में अफगानिस्तान और तालिबान ट्रेंड करने लगा। 15 अगस्त को ही दोपहर तक तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया और ये खबर आग की तरह दुनियाभर में फैल गई।
15 अगस्त को शाम का समय होते-होते ये बात सामने आई कि अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने मुल्क छोड़ दिया है और ये बात साफ हो गई कि अब तालिबान ही अफगानिस्तान को चलाएगा।
कौन है तालिबान और कैसे ये प्रभाव में आया
पश्तो भाषा में तालिबान का मतलब होता है- ऐसे छात्र जो कट्टर इस्लामिक धार्मिक शिक्षा से प्रेरित हों। कहा जाता है कि कट्टर सुन्नी इस्लामी विद्धानों ने धार्मिक संस्थाओं की मदद से पाकिस्तान में इसकी नींव डाली थी।
1990 के दशक की शुरुआत में उत्तरी पाकिस्तान में तालिबान उभर रहा था। तालिबान पर देवबंदी विचारधारा का प्रभाव है।
तालिबान (Taliban) को स्थापित करने के लिए सऊदी अरब से फंडिंग आती थी। शुरुआत में तालिबान का मकसद था कि इस्लामिक देशों से विदेशी शासन को खत्म करेंगे और वहां शरिया कानून और इस्लामी राज्य स्थापित करेंगे।
शुरुआती दौर में जब लोग सामंतों के अत्याचार से पीड़ित थे और भ्रष्टाचार चरम पर था, तब तालिबान में लोगों को एक मसीहा दिखा। लेकिन बाद में तालिबान की कट्टरता से लोग परिचित और परेशान हो गए, जिसका नतीजा ये निकला कि तालिबान की लोकप्रियता गिरने लगी। लेकिन तालिबान इस दौर में आते-आते खुद को बहुत पॉवरफुल बना चुका था।
शुरुआत में तालिबान, अफगानिस्तान में रूसी प्रभाव को खत्म करने के लिए मैदान में उतरा था। कहा जाता है कि इस लड़ाई में अमेरिका पीछे से तालिबान को सपोर्ट कर रहा था। लेकिन बाद में अमेरिका को ये महसूस हुआ कि कट्टरता किसी समस्या का हल नहीं है और अमेरिका खुद तालिबान के खिलाफ जंग में उतर आया।
बीते 20 सालों से अमेरिका अपने मित्र देशों के साथ कंधार और अफगानिस्तान से तालिबान को खत्म करने में लगा रहा लेकिन उसे पूरी तरह सफलता नहीं मिल सकी।
तालिबान को पाकिस्तान से सटे इलाकों के पाकिस्तानी समर्थकों ने जिंदा रखा और अब जब अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से वापस चली गई तो तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान को अपने कब्जे में ले लिया।
तालिबान का प्रमुख कौन है और क्या है इसका मकसद
तालिबान (Taliban) में कट्टर धार्मिक लड़ाके हैं जिनका मकसद पूर्ण इस्लामिक राज्य कायम करना और वहां से विदेशी शासन को उखाड़ना है। ये लड़ाके देश में इस्लामी शरिया कानून स्थापित करना चाहते हैं। तालिबान के ज्यादातर लड़ाके मौलवी और इस्लामी कट्टर धार्मिक संस्थानों में पढ़े लोग हैं।
मुल्ला उमर और साल 2016 में मुल्ला मुख्तर मंसूर की मौत के बाद इस समय तालिबान का प्रमुख मौलवी हिब्तुल्लाह अखुंजादा है। वह तालिबान के राजनैतिक, धार्मिक और सैन्य मामलों का सुप्रीमो है।
तालिबान का प्रमुख मौलवी हिब्तुल्लाह अखुंजादा भी पहले कंधार में एक मदरसा चलाता था और तालिबान की जंगी कार्रवाई के लिए फतवे जारी करता था।
तालिबान में दूसरी नंबर की पोस्ट रखने वाले लड़ाके का नाम मुल्ला अब्दुल गनी बारादर है। इस बात की संभावना जताई जा रही है कि अफगानिस्तान का अगला राष्ट्रपति भी यही बनेगा। ये शख्स तालिबान का राजनीतिक प्रमुख है। मुल्ला अब्दुल गनी बारादर तालिबान के 4 संस्थापक सदस्यों में से एक है।
20 सालों में तालिबान इतना मजबूत कैसे हो गया
साल 2001 में अमेरिकी कार्रवाई के बाद से तालिबान (Taliban) को पहाड़ी इलाकों में ढकेल दिया गया था लेकिन 2012 के नाटो बेस पर हमले के बाद इसने फिर से सिर उठाना शुरू किया।
2015 में तालिबान ने सामरिक रूप से अहम कुंडूज पर कब्जा कर लिया। इसके बाद से तालिबान ने अपनी वापसी के संकेत दे दिए।
समय गुजरने के साथ अमेरिका की रुचि अफगानिस्तान में कम होने लगी, जिसका नतीजा ये हुआ कि अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान से वापस जाने लगे और तालिबान (Taliban) को अपनी हुकूमत को चलाने के लिए यही समय मिल गया, जिसने तालिबान को मजबूत बना दिया। इसके अलावा तालिबान को मजबूत बनाने में पाकिस्तान की सेना, आईएसआई, पाक आतंकी संगठनों का भी बड़ा हाथ है। इन्हीं की मदद से तालिबान ने पाकिस्तान से सटे इलाकों में अपना बेस बना लिया।
साल 2020 में अमेरिका ने तालिबान के साथ शांति वार्ता की और साल 2021 में अमेरिकी सरकार ने अपने सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस आने का आदेश दिया। इसी दौरान तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जे का प्लान बनाया और 90 हजार लड़ाकों वाले तालिबान ने 3 लाख से ज्यादा अफगान सैनिकों को सरेंडर करने पर मजबूर कर दिया।