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अंग्रेजों के जुल्मों के खिलाफ जेल में शहीद होने वाला देश का पहला अनशनकारी

जतींद्र नाथ दास (Jatindra Nath Das) 1904 में पैदा हुए था. इनको जतिन भी कहते हैं.

Jatindra Nath Das Death Anniversaty:  हमारे देश की ये परंपरा है कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को हम अपने देश की आजादी और स्वाधिनता का जयघोष करते हैं। तिरंगे के नीचे खड़े होकर हम आजादी के नायकों के तौर पर गांधी, नेहरू, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे लोगों को याद करते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी वीर हैं जिन्होने अपनी जिंदगी देश के लिए न्यौछावर कर दी लेकिन ये देश आज उनको याद करना तो दूर उनके नाम तक को नहीं जानता।

जतिन्द्रनाथ (Jatindra Nath Das) के दिलो-दिमान में देश की आजादी का स्वप्न था और शायद इसी कारण वो हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्यों के बीच काफी मशहूर हो गए।

आज हम उनमें से ही एक ऐसे वीर शहीद को याद करेंगे जिसने जेल में बंद रहते हुए भी अंग्रेजों की नींद हराम कर रखी थी। जी हां, इस शहीद का नाम है जतिन्द्रनाथ दास।

आज ही के दिन 13 सितंबर 1929 में जतिन्द्रनाथ दास (Jatindra Nath Das) देश की आजादी के खातिर जेल में अपने प्राण त्याग दिए और शहादत पाई। इन्हें ‘जतिन दास’ के नाम से भी जाना जाता है, जबकि इनके दोस्त इन्हें  प्यार से जतिन दा के नाम से पुकारते थे।

शहीद जतिन्द्रनाथ दास (Jatindra Nath Das) का जन्म 27 अक्टूबर 1904 को कलकत्ता में एक साधारण से बंगाली परिवार में हुआ था। जतिन्द्रनाथ के पिता जी का नाम बंकिम बिहारी दास था। उनकी माता का नाम सुहासिनी देवी था। महज 9 साल की उम्र में ही जतिन्द्र की माता जी का स्वर्गवास हो गया। 1920 में जतिन्द्रनाथ ने अपनी हाईस्कूल की परीक्षा 16 साल की उम्र में पास की। ये वो दौर था जब पूरे देश में गांधी जी असहयोग आंदोलन की शुरुआत की थी। जतिन्द्रनाथ भी देश के दूसरे युवाओं की ही तरह गांधी जी के काफी प्रभावित हुआ और आंदोलन में कूद गए। देश से विदेशी सामानो के बहिस्कार के क्रम में जब वो एक विदेशी कपड़ों की दुकान पर धरना दे रहे थे तभी उन्हें पहली बार गिरफ्तार कर 6 महीने के लिए जेल में डाल दिया गया।

लेकिन जब गांधी जी ने कुछ दिन बाद अपना असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो जतिन्द्रनाथ को बहुत बड़ा झटका लगा। उन्होंने अहिंसात्मक आंदोलन को छोड़कर वापस पढ़ाई शुरू कर दी।

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कहते हैं ना कि अगर आपके दिल में एक बार आजादी की चिंगारी धधक गई तो फिर आपका मन किसी भी काम में नहीं लगता। कुछ यही हाल जतिन्द्रनाथ का भी था। इसी क्रम में उनकी मुलाका क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल से हुई और क्रान्तिकारी संस्था ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में शामिल हो गए।

जतिन्द्रनाथ (Jatindra Nath Das) के दिलो-दिमान में देश की आजादी का स्वप्न था और शायद इसी कारण वो हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्यों के बीच काफी मशहूर हो गए। इस दौरान उन्होंने बम बनाने की विद्या भी कीश ली और कांग्रेस सेवादल में सुभाषचंद्र बोस के करीबी बन गए। सुभाषचंद्र के संपर्क में आने का बाद इनकी मुलाकात भगत सिंह से हुई थी और भगत सिंह ने केंद्रीय असेम्बली में जो बम फेंका था उसे बनाने वाले जतिन्द्रनाथ ही थे।

जतिन्द्रनाथ (Jatindra Nath Das) को दूसरी बार सन 1925 में जेल जाना पड़ा। इस बार दक्षिणेश्वर बम कांड और काकोरी कांड में संलिप्ता के कारण गिरफ्तार किया गया था, लेकिन ब्रिटिश सैनिक कोर्ट में उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं पेश कर पाए और उन्हें रिहा कर दिया गया। इस दौरान जेल में अंग्रेजों ने जतिन्द्रनाथ को काफी प्रताड़ित किया जिसके खिलाफ उन्होंने जेल में ही 21 दिनों की भूख हड़ताल की। इस भूख हड़ताल के कारण उनकी सेहत काफी खराब हो गई और मजबूरन अंग्रेज सरकार को उन्हें छोड़ना पड़ा।

जेल से बाहर आने के बाद जतिन्द्रनाथ लगातार सुभाषचंद्र के सहयोगी के तौर पर सक्रिय रहे और देश के कई हिस्सों में जाकर क्रांतिकारियों के लिए बम बनाने का काम किया। जतिन्द्रनाथ की तीसरी गिरफ्तारी सन  1929 को लाहौर में हुई। उनपर लाहौर षडयंत्र केस में शामिल होने का आरोप लगा।

लाहौर जेल प्रशासन क्रांतिकारियों और अहिंसात्मक आंदोलनकारियों कैदियों के बीच भेदभाव करते थे। जिसका विरोध वहां के क्रांतिकारी कैदियों ने 13 जुलाई 1929 से अनशन के रूप में किया। जतिन्द्र भी इस अनशन में शामिल हो गए। उन्होंने ये प्रण लिया कि जबतक जेल प्रशासन क्रातिकारियों के साथ सामान्य व्यवहार और सुविधाएं नहीं देगा तब तक वो ये अनशन नहीं तोड़ेंगे। जतिन्द्र को इससे पहले भी जेल में 21 दिन तक अनशन का अनुभव था इसलिए वो डटे रहे। हालांकि इस दौरान जेल प्रशासन ने अनशनकारियों के अनशन को तुड़वाने के लिए जबरन नाक के रास्ते से दूध डालने की कोशिश की। उनकी इसी कोशिश में जतिन्द्रनाथ के फेफड़ों में ये दूध चला गया और उन्हें निमोनिया हो गया। लेकिन बीमार होने के बावजूद भी वो अनशन पर डटे रहे। इस दौरान जेल प्रशासन ने पागलखाने के डाक्टरों से भी जतिन्द्रनाथ का अनशन तुड़वाने के लिए ज्यादती की।

अंग्रेजों के इन तमाम प्रताड़नाओं के बावजूद भी जतिन्द्रनाथ (Jatindra Nath Das) अपने संकल्प से हटे नहीं और बिना कुछ खाये-पिये 2 महीने तक अनशन जारी रखी। लेकिन कयामत का वो दिन भी आ गया जब जिंदगी के आगे जतिन्द्र की जिद हार गई। 13 सितंबर 1929 को अनशन के 63वें दिन जतिन्द्रनाथ जेल में शहीद हो गए। जतिन्द्रनाथ का पार्थिव शरीर लाहौर से कलकत्ता ट्रेन से लाया गया। इस दौरान जहां जहां ट्रेन रुकती वहां-वहां लोगों की भीड़ भारत माता के इस वीर सपूत के अंतिम दर्शन को उमड़ पड़ी। कहा जाता है कि कलकत्ता में जतिन्द्रनाथ के अंतिम संस्कार के समय लाखों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी और इनके दर्शन के लिए करीब 2 किलोमीटर तक लोगों की लंबी लाइन लगी थी। जतिन्द्रनाथ की इस अंतिम यात्रा के दौरान संपूर्ण कलकत्ता जतिन दास अमर रहे… इंकलाब जिंदाबाद के नारों से गूंजायमान हो गया। इस तरह जेल में शहीद होने वाले भारत मां के इस पहले अनशनकारी को आजाद हिंदुस्तान हमेशा याद करेगा।

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