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Death Anniversary: जब नरगिस को देख सुनील दत्त की बोलती बंद हो गई थी…

Sunil Dutt Birth Anniversary

आज एक बेमिसाल अभिनेता, कद्दावर राजनेता और एक बेहतरीन इंसान सुनील दत्त(Sunil Dutt) की पुण्यतिथि है। एक बस कण्डक्टर से लेकर एक एक्टर बनने और फिर एक सामाजिक कार्यकर्ता से भारत सरकार में मंत्री तक का सफर तय करने वाले सुनील दत्त की जीवन यात्रा एक मिसाल है।  सुनील दत्त की गिनती उन सितारों में होती है जिन्होंने सबसे पहले सरहद पर डटे फौजियों के लिए काम करना शुरू किया। सुनील दत्त ने फिल्मी जगत में अपने बेजोड़ अभिनय से लोहा तो मनवाया ही, साथ ही अपने राजनीतिक जीवन को एक आदर्श के तौर पर भी पेश किया। सुनील दत्त का जन्म 6 जून, 1929 को अविभाजित भारत के झेलम जिले में बसे हुए खुर्द नाम के एक गांव में हुआ था। यह क्षेत्र अब पाकिस्तान में है। उनका असली नाम बलराज दत्त था। भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय उनके परिवार ने दंगों का दर्द भी झेला। उस वक्त सुनील दत्त को उनके दोस्त याकूब ने परिवार समेत अपने घर में पनाह देकर उन्हें बचाया।

बंटवारे के बाद सुनील का परिवार पहले पंजाब फिर बाद में लखनऊ आ बसा। सुनील दत्त का बचपन काफी संघर्ष भरा रहा क्योंकि जब वो महज 5 वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। उनकी मां ने उनका पालन-पोषण किया। लखनऊ के बाद सुनील दत्त साहब हायर एजुकेशन के लिए मुम्बई आ गए। मुम्बई में उन्होंने जय हिन्द कॉलेज में दाखिला लिया। चूंकि उनकी माली हालत ठीक नहीं थी, इसलिए उन्होंने मुम्बई बेस्ट की बसों में कंडक्टर की नौकरी कर ली। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद दत्त साहब की नौकरी एक ऐड एजेंसी में लगी। यहीं से उन्होंने रेडियो सीलोन में रेडियो जॉकी बनने का रास्ता पकड़ा। रेडियो जॉकी के रूप में वो काफी पसंद किए गए।

सुनील दत्त रेडियो पर फिल्मी सितारों का खास इन्टरव्यू लिया करते थे। जिसके लिए उन्हें 25 रुपये प्रति माह मिलते थे। जब सुनील दत्त सीलोन रेडियो में बतौर रेडियो जॉकी काम कर रहे थे, तभी वहां पर उनकी मुलाकात नरगिस से हुई थी। तब नरगिस बहुत बड़ी एक्ट्रेस थीं। जब सुनील दत्त ने इंटरव्यू शुरू किया तो वह नरगिस को देख इतना घबरा गए कि उनसे कुछ पूछ ही नहीं पाए। एक सफल रेडियो जॉकी बनने के बाद सुनील कुछ नया करना चाहते थे। किस्मत ने साथ दिया और जल्दी ही साल 1955 में फ़िल्म ′रेलवे प्लेटफॉर्म′ से पहला ब्रेक मिल गया। दोनों दूसरी बार ‘दो बीघा जमीन’ के सेट पर मिले। इसके 2 साल बाद महबूब खान की फिल्म ‘मदर इंडिया’ में सुनील दत्त को नरगिस के बेटे का रोल मिला। फिल्म सुपरहिट हुई। साथ ही दोनों की प्रेम कहानी भी। दरअसल इसी फिल्म के सेट पर सुनील दत्त ने अपनी जान पर खेलकर नरगिस को बचाया था।

उस वक्त नरगिस राज कपूर के प्यार की गिरफ्त में थीं। लेकिन पहले से शादी-शुदा होने के कारण वह नरगिस से शादी नहीं कर पा रहे थे। 9 साल लंबे रिश्ते के बाद नरगिस को जब ये लगने लगा था कि अब राज उनकी तरफ ध्यान नहीं दे रहे। राज कपूर न तो अपनी शादी तोड़ सकते थे न ही अपने पिता से बगावत कर सकते थे। ऐसे में नरगिस ने उनके साथ अपने रिश्ते खत्म कर लिए। इस बीच सुनील दत्त का झुकाव नरगिस की तरफ बढ़ने लगा। एक दिन वो नरगिस को प्रपोज करने से खुद को रोक नहीं पाए। नरगिस को उन्होंने प्रपोज किया और नरगिस ने उसे स्वीकार भी कर लिया। उसके बाद दोनों ने मार्च 1958 में दोनों ने गुपचुप तरीके से शादी कर ली। साल 1959 में दोनों ने अपनी शादी के बारे में औपचारिक तौर पर लोगों को बताया और एक रिसेप्शन भी दिया। शादी के बाद सुनील और नरगिस को तीन बच्चे हुए। जिनके नाम प्रिया, नम्रता और संजय दत्त हैं। 1981 में सुनील दत्त ने अपने बेटे संजय को फिल्म ‘रॉकी’ से लॉन्च किया।

दोनों की प्रेम कहानी की मिसाल आज भी दी जाती है। सुनील दत्त नरगिस को पिया कह कर पुकारते थे और पत्र में एक-दूसरे को मर्लिन मुनरो और एल्विस प्रिस्ले लिखा करते थे। वे एक-दूसरे को डार्लिंगजी भी पुकारते थे। नरगिस को कैंसर की बीमारी थी। उनकी पूरी बॉडी में बहुत दर्द रहता था। डॉक्टर्स ने इसीलिए सुनील दत्त को सलाह दी कि वो नरगिस का लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा दें लेकिन सुनील दत्त ने ऐसा करने से मना कर दिया। जिंदगी के आखिरी पल तक उनके साथ रहे। उनके जाने से सुनील दत्त बहुत अकेले हो गए। सुनील दत्त ने नरगिस दत्त मेमोरियल कैंसर फाउंडेशन की स्थापना की और अपनी पत्नी की याद में हर साल अवॉर्ड भी देना शुरू किया।

अपने 40 साल के लंबे फिल्मी सफर में लगभग 20 फिल्मों में उन्होंने विलेन का रोल किया और उन रोल में भी वे खूब जंचते थे। डकैतों के जीवन पर बनी उनकी सबसे बेहतरीन फिल्म ‘मुझे जीने दो’ है, इस फ़िल्म ने उन्हें साल 1964 का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्म फेयर पुरस्कार भी दिलवाया। साल 1966 में उन्हें फिर से फ़िल्म ‘खानदान’ के लिए फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का खिताब मिला। 1950 से लेकर 1960 के आखरी दिनों तक उन्होंने कई बेहतरीन फिल्में दीं, जिनमें साधना, सुजाता, मुझे जीने दो, गुमराह, वक्त, खानदान, पड़ोसन और हमराज़ जैसी खास फिल्में शामिल हैं।

एक सफल अभिनेता की पारी खेलने के बाद सुनील दत्त ने 1984 में राजनीति ज्वॉइन की। वो कांग्रेस पार्टी के टिकट पर मुम्बई उत्तर-पश्चिम लोकसभा सीट से चुनाव जीत कर सांसद बने। वे यहां से लगातार पांच बार सांसद चुने गए। 2004 में वे मनमोहन सिंह के सरकार में खेल एवं युवा मामलों के कैबिनेट मंत्री बनाए गए। सामाजिक प्रतिबद्धताओं में भी सुनील दत्त हमेशा आगे रहे। 1987 में पंजाब में खालिस्तान मूवमेंट के तहत जबरदस्त हिंसक माहौल चल रहा था तब उन्होंने महात्मा गांधी की तर्ज पर शांति बहाल हो इसके लिए मुम्बई से पंजाब तक तकरीबन 2000 किलोमीटर की पदयात्रा की। उनके साथ उनकी बेटी और हजारों लोग थे। उन्होंने यह पूरी यात्रा पैदल चल कर पूरा की। जिसके परिणाम स्वरूप पंजाब में स्थिति सामान्य हो गई। 25 मई, 2005 को मुम्बई में हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गई। समाज और फिल्म जगत में सुनील दत्त के योगदान के लिए, उनकी बेहतरीन अदाकारी के लिए, उनकी फिल्मों के लिए सुनील दत्त को हमारा सलाम।

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