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वंदे मातरम् के रचयिता बंकिमचंद्र चटर्जी की जिंदगी से जुड़े कुछ अनसुने किस्से

बंकिमचंद्र चटर्जी की 182वीं जयंती।

हमारे देश के राष्ट्रीय-गीत के रचयिता बंकिमचंद्र चटोपाध्याय की आज जयंती है। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय बंगला के प्रख्यात उपन्यासकार, कवि, गद्यकार और पत्रकार थे। भारत के राष्ट्रीय गीत ‘वन्दे मातरम्’ उनकी ही रचना है जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के काल में क्रान्तिकारियों का प्रेरणास्रोत बन गई थी। आज ही के दिन यानी 27 जून, 1838 को पैदा हुए बंकिमचंद्र चटोपाध्याय को बंकिमचंद्र चटर्जी के नाम से भी जाना जाता है। बंकिम चंद्र का जन्म उत्तरी 24 परगना जिले के कंथलपाड़ा गांव में रहने वाले एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता यादव चंद्र चट्टोपाध्याय मिदनापुर के डिप्टी कलेक्टर थे। इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मिदनापुर से ली और फिर अगले छह सालों तक हुगली के मोहसिन कॉलेज में पढ़ाई की। इसके बाद इन्होंने कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से बीए किया और फिर कानून की पढ़ाई की।

उस समय बंकिम चंद्र प्रेसीडेंसी कॉलेज से बीए की डिग्री लेने वाले पहले भारतीय थे। पढ़ाई खत्म करने के तुरंत बाद इन्हें इंग्लैंड की महारानी ने डिप्टी मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त कर दिया। कुछ समय तक ये बंगाल सरकार के सचिव भी रहे। बंकिमचंद्र चटर्जी पहले भारतीय थे, जिन्हें इंग्लैंड की महारानी ने 1858 में इस पद पर नियुक्त किया था। इन्होंने लगभग 33 साल तक ब्रिटिश क्राउन के अंतर्गत काम किया और अंतत: 1891 में रिटायर हो गए। इनके काम से खुश होकर अंग्रेजों ने इन्हें राय बहादुर और सीआईई की उपाधि से सम्मानित किया था। बंकिम चंद्र ने अपने जीवन में कई उपन्यास लिखे, जिनमें से आनन्द मठ का विशेष रूप से उल्लेख होता है। इसी के साथ देवी चौधरानी, मृणालिनी, चंद्रशेखर, विषवृक्ष, इन्दिरा, दुर्गेशनन्दनी, दफ्तर, कपाल, कुंडाला, राधारानी, सीताराम आदि भी महत्वपूर्ण कृतियां हैं।

सन 1865 में लिखा गया दुर्गेशनन्दनी उपन्यास इनकी बांग्ला भाषा में पहली कृति मानी जाती है। इसके एक साल बाद इन्होंने अगला उपन्यास कपालकुंडला लिखा। इनकी ये रचना भी काफी मशहूर हुई। हालांकि, इनकी पहली रचना अंग्रेजी में लिखी गई ‘राजमोहन्स वाइफ’ थी। इसके बाद शायद ही इन्होंने किसी कृति को विदेशी भाषा में लिखा। अपने पहले उपन्यास के लगभग 17 साल बाद बंकिम चंद्र ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘आनंद मठ’ को लिखा किया। जिसमें लिखा देशभक्ति से ओत-प्रोत गीत ‘वंदे मातरम’ आज भी इस देश की महानता की कहानी सुनाता है। यह उपन्यास अंग्रेजी सरकार के कठोर शासन, शोषण और उनके प्राकृतिक दुष्परिणाम जैसे अकाल को झेल रही जनता को जागृत करने के लिए खड़े हुए संन्यासी विद्रोह पर आधारित था।

1870 के दशक में ब्रिटिश शासन ने ‘गॉड! सेव द क्वीन’ गीत को गाया जाना सभी के लिए अनिवार्य कर दिया था। सरकार के अंतर्गत काम कर रहे बंकिम चन्द्र को ये बात कुछ जमी नहीं और उन्होंने इसके विरोध स्वरूप भारतीय भाषा के रूप में ‘वंदे मातरम’ की रचना की। इस गीत की रचना के लगभग छह साल बाद बंकिम चंद्र ने इसे ‘आनंद मठ’ का हिस्सा बनाया। जो पहली बार सन 1882 में प्रकाशित हुआ था। भारत की आजादी के समय तक यह गीत काफी प्रसिद्ध हो चुका था, जिसका देशभक्ति में रमा हुआ एक-एक शब्द भारत की संस्कृति और विविधता को दर्शाता था। वंदे मातरम् में आने वाले शब्द दशप्रहरणधारिणी, कमला कमलदल विहारिणी और वाणी विद्यादायिनी….. भारतीय संस्कृति की अनुपम व्याख्या करते हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे लयबद्ध किया और पहली बार 1896 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस अधिवेशन के दौरान गाया गया।

1905 में कांग्रेस के बनारस अधिवेशन के दौरान सरला देवी ने भी इसे गाया। यहां इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया गया। वहीं सन् 1906 में पहली बार वंदे मातरम् को देवनागरी लिपि में लिखा गया। 1907 में बंगाल विभाजन के विरोध में शुरू हुआ बंग-भंग आंदोलन में वंदे मातरम् राष्ट्रीय नारा बना। इससे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया और तब यह गीत पूरे भारत में फैल गया। आजादी की अल सुबह घड़ी में 6:30 बजते ही आकाशवाणी पर वंदे मातरम का लाइव प्रसारण किया गया और फिर 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा के अध्यक्ष और स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने इसे ‘राष्ट्रगीत’ का दर्जा दे दिया।

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