Remembering Durga Khote: फिल्मों में संभ्रांत महिलाओं के लिए राह आसान बनाने वाली दुर्गा खोटे (Durga Khote) ने मूक फिल्मों से आधुनिक दौर की फिल्मों तक अपनी लंबी अभिनय यात्रा में ‘मुगले आजम’, ‘बावर्ची’ आदि फिल्मों में कई यादगार भूमिकाएं निभाईं और उन्हें फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। दुर्गा खोटे ऐसे समय में फिल्मों में आने के लिए विवश हुईं, जब इस क्षेत्र को प्रतिष्ठित परिवार अच्छी नजर से नहीं देख रहे थे और उनके परिवार की लड़कियों को फिल्मों में काम करने की मनाही थी।
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पारंपरिक मूल्यों में भरोसा रखने वाले एक ब्राह्मण परिवार में 14 जनवरी, 1905 को पैदा हुई दुर्गा खोटे के साथ विधाता ने कम उम्र में ही क्रूर मजाक किया, क्योंकि उनके पति का युवावस्था में निधन हो गया। उन्हें अपने दो बच्चों की परवरिश के लिए फिल्मों की राह लेनी पड़ी। वह दौर मूक फिल्मों का था और बोलती फिल्मों के लिए प्रयास शुरू हो चुके थे। दुर्गा खोटे (Durga Khote) भले ही विवशतावश इस क्षेत्र में आईं, लेकिन उन्होंने इसके साथ ही उन मान्यताओं को तोड़ दिया, जिसके तहत सम्मानित परिवार की महिलाएं सिनेमा में अभिनय नहीं कर सकती थीं।
उस दौर में महिलाओं की अधिकतर भूमिका भी पुरुष ही निभा रहे थे। दुर्गा खोटे (Durga Khote) की शुरुआत छोटी भूमिकाओं से हुई, लेकिन जल्द ही उन्होंने नायिका की भूमिका निभानी शुरू कर दी और 1932 में प्रदर्शित प्रभात फिल्मस की ‘अयोध्येचा राजा’ फिल्म ने उन्हें स्थापित कर दिया। मराठी और हिंदी में बनी इस फिल्म में उन्होंने रानी तारामती की भूमिका अदा की थी। वह दौर स्टूडियो सिस्टम का था, जिसमें कलाकार मासिक वेतन पर किसी स्टूडियो के लिए काम करते थे, लेकिन आत्मविश्वास से लवरेज दुर्गा खोटे ने यहां भी प्रचलित मान्यताओं को दरकिनार कर फ्रीलांस आधार पर काम करना शुरू किया। इसके साथ ही उन्होंने ‘न्यू थियेटर्स’ ‘ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी’ ‘प्रकाश पिक्चर्स आदि के लिए भी काम किया।
दुर्गा खोटे (Durga Khote) 1930 के दशक के समाप्त होते-होते निर्माता और निर्देशक भी बन गईं और ‘साथी’ फिल्म का निर्माण किया। बतौर कलाकार 1940 का दशक उनके लिए काफी अच्छा रहा और उनकी एक के बाद एक कई फिल्मों ने कामयाबी के परचम लहराए। इन फिल्मों में ‘चरणों की दासी’, ‘भरत मिलाप’ आदि शामिल हैं। इन फिल्मों के लिए जहां उन्हें समीक्षकों की ओर से सराहना मिली, वहीं कई पुरस्कार भी मिले।
फिल्मों में अभिनय के साथ ही दुर्गा खोटे रंगमंच, खासकर मराठी से भी सक्रिय रूप से जुड़ी रहीं। वे इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन’ (इप्टा) से जुड़ी हुई थीं। उन्होंने मुंबई मराठी साहित्य संघ के लिए कई नाटकों में काम किया। महान् नाटककार शेक्सपियर की बहुचर्चित कृति मैकबेथ पर आधारित मराठी नाटक ‘राजमुकुट’ में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया।
वर्ष 1931 में शुरू हुआ दुर्गा खोटे (Durga Khote) का फिल्मी सफर कई दशकों का रहा और इस दौरान उन्होंने कई तरह की यादगार भूमिकाएं की। सिनेमा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए दुर्गा खोटे को देश के सर्वोच्च फिल्म सम्मान ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा गया।
नायिका की भूमिका के बाद दुर्गा खोटे (Durga Khote) चरित्र भूमिकाओं में आने लगीं और कई ऐसे किरदार निभाए जिसकी आज भी चर्चा होती है। ऐसी फिल्मों में के. आसिफ की ‘मुगले आजम’, राज कपूर की ‘बॉबी’, हृषिकेश मुखर्जी की ‘बावर्ची’ आदि शामिल हैं। बहुचर्चित ‘मुगले आजम’ में उन्होंने अकबर की पत्नी की भूमिका निभाई, जो पति और पुत्र सलीम के द्वंद्व के बीच उलझी हुई है। पति और पुत्र के बीच अपने कर्तव्य को लेकर दुविधा में उलझी इस भूमिका को उन्होंने यादगार बना दिया। अभिनय को अलविदा करने के बाद भी वह सक्रिय रहीं और शार्ट फिल्मों, विज्ञापन फिल्मों, डॉक्यूमेंट्री के निर्माण से जुड़ी रहीं।
उन्होंने मराठी में आत्मकथा भी लिखी जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘ आई दुर्गा खोटे’ नाम से प्रकाशित हुआ। दुर्गा खोटे (Durga Khote) 22 सितंबर, 1991 को इस दुनिया को अलविदा कह गईं, लेकिन इस दौरान उनके प्रयासों से महिलाओं की स्थिति में उल्लेखनीय बदलाव हुआ और आज महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी से काम कर रही हैं।