Anil Biswas Death Anniversary Special: हिंदी फिल्म संगीत में आर्केस्ट्रा और कोरस के प्रभाव को स्थापित करने का श्रेय यदि किसी को जाएगा तो वे अनिल विश्वास (Anil Vishwas) ही होंगे। अनिल विश्वास इतने विराट कम्पोज़र थे कि उनकी विशेषताओं को वर्गीकृत करना आसान नहीं है। ऑरकेस्ट्रा की शैली एक तरफ, बंगाल का लोकगीत और लोकवाद्य शैली दूसरी तरफ, गज़लों, ठुमरियों की विधा का प्रयोग अपनी जगह और हलके-फुलके फिल्मी माहौलानुकूल गीत भी अपनी जगह-क्या न था अनिल विश्वास के संगीत में!
अनिल विश्वास (Anil Vishwas) ने ही फिल्म संगीत में अन्य विधाओं से अलग एक राजनीतिक-सांस्कृतिक धारा के संगीत का सूत्रपात किया, और इसे बहुत आगे तक ले गए। लोकशैली की धुन को राजनीतिक अर्थव्यंजकता देने में कोरस का लाजवाब प्रयोग उन्हीं की देन है, जिसे आगे चलकर सलिल चौधरी ने एक नया विस्तार और नई दिशा दी।
अनिल विश्वास (Anil Vishwas) का जन्म बारीसाल (अब बांग्लादेश) में 7 जुलाई, 1914 को हुआ था उनकी माँ को संगीत में रुचि थी और उनकी प्रेरणा से ही अनिल विश्वास का संगीत-जीवन अपना सूत्रपात कर पाया। चार-पाँच साल की उम्र से ही गाना और तबला बजाना उन्होंने शुरू कर दिया था और कुछ ही वर्षों में नाटकों में काम करना भी प्रारम्भ हुआ। कुछ और बड़े होने पर संगीत की महफिलों में भी वे गाने लगे। उस समय से ही वे अपने गीत कम्पोज़ करके गाया करते थे।
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स्वतंत्रता आंदोलन की ललकार और विशेषकर क्रांतिकारी दलों के आसान से प्रभावित होकर उन्होंने मैट्रिक से ही अपनी पढ़ाई छोड़ दी और क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए। बम भी बनाए और जेल भी गए। अनिल विश्वास के मित्र प्रोफेसर सत्यव्रत घोष के अनुसार बरीसाल जेल में बहुत मच्छर थे और सोना बड़ा मुश्किल था। अतः समय बिताने के लिए संगीत ही सहारा बनता था और अनिल विश्वास (Anil Vishwas) इसमें स्वाभाविकतः अग्रणी भूमिका निभाते थे। एक विशेष गीत जो उस समय अकसर गाया जाता था, वह था ‘लाठी मार भाँगरे लाला, जोता सब बंद शाला’, अर्थात् लाठी मारकर जेल के ताले तोड़ दो और मुक्त हो जाओ।
अपने पिता की मृत्यु (1930) के बाद अनिल विश्वास (Anil Vishwas) ने बरीसाल छोड़ दिया और वेश बदलकर कलकत्ता आ पहुँचे। जेब में पैसे बहुत कम थे और कलकत्ता पहुँचने के लिए भी कुली का काम करना पड़ा था। कलकत्ता में उनकी जान पहचान के मात्र पन्नालाल घोष (बाद के प्रसिद्ध बांसुरी वादक) थे जो उनके बचपन के दोस्त और बहनोई थे, और उनकी बड़ी बहन और बहनोई के घर ही उन्हें ठहराया गया। कलकत्ते में भी एक होटल में वे आजीविका के लिए बर्तन धोने लगे। उसी होटल में मनोरंजन सरकार नामक एक जादूगर खाने के लिए आते थे। उन्होंने एक दिन अनिल विश्वास को गुनगुनाते सुना तो अपने साथ एक संगीत प्रेमी रामबहादुर अघोरनाथ के घर संगीत महफिल में ले गए। वहाँ कवि जीतेंद्रनाथ बागची और मेगाफोन ग्रामोफोन कम्पनी के मालिक जे.एन. घोष भी थे। अनिल विश्वास ने जब वहाँ श्यामा संगीत सुनाया तो सभी बड़े प्रसन्न हुए। रायबहादुर अघोरनाथ ने उन्हें अपने पौत्रों को संगीत सिखाने के लिए अपने घर ही रख लिया। पर कुछ दिनों में इस प्रकार की जिंदगी से ऊबकर अनिल विश्वास पाँच रूपए महीने पर एक अन्य जगह संगीत सिखाने चल पड़े।
पुलिस अब भी उनकी तलाश में थी, और एक दिन वे पकड़ में आ गए तथा चार महीने तक जेल में रहे। वहाँ पिटाई भी खूब हुई। पुलिस को उनके विरुद्ध कोई प्रमाण न मिला और उन्हें छोड़ना पड़ा। पर साथ ही पुलिस ने उनको सरकारी जासूस बनने का प्रलोभन दिया, ताकि वे क्रांतिकारियों के भेद दे सकें । चूंकि वह बेकार थे, इसलिए अनिल विश्वास (Anil Vishwas) ऊपर से मान गए, पर वस्तुतः पुलिस को गलत जानकारियाँ देते रहे। यह सिलसिला भी अधिक न चल सका। जल्दी ही पुलिस समझ गई कि जानकारियाँ गलत आ रही हैं, और विश्वास फिर बेकारों की कतार में शामिल हो गए।
उन दिनों काज़ी नज़रुल इस्लाम मेगज़ीन रिकॉर्ड कम्पनी में काम करते थे, और अनिल विश्वास (Anil Vishwas) बचपन से ही काज़ी के बड़े प्रशंसक रहे थे। वे काज़ी से मिले और उनकी मदद से उन्होंने कुछ गज़लों को गाकर रेकॉर्ड भी करवाया, लेकिन कम्पनी की अंदरूनी राजनीति की वजह से ये रेकॉर्ड नहीं बन पाए लेकिन वहीं के एक संगीतकार मंजू खाँ साहब मुर्शिदाबादी के सम्पर्क में आकर गजल गायन की कई बारीकियाँ अनिल विश्वास ने जरूर सीख लीं। तत्पश्चात निताई मोतीलाल ने अपने रंगमहल थियेटर में काम दिया, और उनके सहायक के रूप में अनिल विश्वास ने पाँच नाटकों में संगीत भी दिया, अभिनय भी किया और गीत भी गाए।
जिस लोक रंग के संगीत को लेकर अनिल विश्वास आगे बहुत प्रसिद्ध होनेवाले थे, उसका सूत्रपात उन्होंने इन नाटकों में पूर्वी बंगाल के लोकगीतों और प्रहसनों के द्वारा सफलतापूर्वक किया। तीन वर्षों तक चालीस रूपए महीने पर वे वहाँ कार्यरत रहे। थियेटर के अनुभव से उन्हें लोगों के संगीत सम्प्रेषण की बारीकियों की अच्छी जानकारी होगी। संगीत में अनिल विश्वास जब अधिक समय देने लगे थे। हिंदुस्तान म्यूज़िकल कम्पनी के द्वारा पन्नालाल घोष के बाँसुरीवादन की पहली रेकॉर्डिंग के लिए गीत अनिल विश्वास ने ही लिखा था और एक छोटा-मोटा ऑरकेस्ट्रा भी इसकी रिकॉर्डिंग के लिए इस्तेमाल किया वे एक बहुत अच्छे ढाक, ढोल, तबला और ढोलक वादक थे, और बंगाली ढोल को कुछ नाटकों और गीतों में उन्होंने अपने कलकत्ते के प्रवास के दौरान ही अपनाना शुरू कर दिया था। साथ ही खयाल, ठुमरी, दादरा एक तरफ और वैष्णव कीर्तन, लोकसंगीत और रवींद्र संगीत का ज्ञान दूसरी तरफ-सभी कुछ उन्होंने बड़े लगन से अर्जित किया। आगे चलकर फिल्म ‘हमदर्द’ में उन्होंने खयाल, गज़ल, कव्वाली, गीत-सभी का उपयोग बड़े सिद्धहस्त ढंग से किया। रवींद्रनाथ टैगोर से विश्वास मिले भी थे। उन्होंने रवींद्रनाथ की कृतियों को एक ऐसे format में संगीतबद्ध किया, जैसा पहले नहीं किया गया था गुरुदेव रवींद्रनाथ उनके इस कार्य से काफ़ी प्रभावित भी हुए थे।
इन्हीं दिनों अनिल विश्वास (Anil Vishwas) की मुलाकात फिल्म-निर्देशक हीरेन बोस से हुई। बोस ने उन्हें समझाया कि अगर कुछ बनना है तो बम्बई की फिल्मों में काम करना पड़ेगा। इस प्रकार अनिल विश्वास का पदार्पण बम्बई के फिल्म जगत में हुआ। अनिल विश्वास का संगीत उल्लेखनीय इसलिए भी है कि उन्होंने उस समय तक प्रचलित शास्त्रीय राग आधारित रचनाओं से हटकर संगीत में लोकप्रियता के तत्वों का समावेश किया। यहाँ इस समय की संगीत रचनाओं में एक नीरसता और ढर्रे पर बँधे रहने की परम्परा थी, वहीं विश्वास ने फ़िल्म-संगीत को एक रस दिया। उन्होंने धुनों को मोहक बनाया, ऑरकेस्ट्रा को विस्तार दिया और लोक संगीत से लेकर रंगमंचीय संगीत, हर विधा के लोकप्रिय अवयवों का अपने संगीत में सुंदर सम्मिश्रण किया। अनिल विश्वास ने न केवल पहली बार 12 सदस्यीय ऑरकेस्ट्रा का प्रयोग किया बल्कि वे पहले संगीतकार थे, जिन्होंने मेलोडी के साथ काउंटर मेलोडी को भी गीतों में इस्तेमाल किया। अपनी राजनीतिक और जागरूक पृष्ठभूमि के कारण ज्ञान मुखर्जी और महबूब की कई फ़िल्मों में संगीत पक्ष को उन्होंने एक सामाजिक-राजनीतिक संस्कृति की परिभाषा दी। उनका संगीत ऐसी फिल्मों में मात्र रोमांस, प्रकृति प्रेम या कोठों पर प्रचलित संगीत न होकर एक प्रगतिशील बयान का रूप लेने में भी सक्षम रहा। यहाँ तक कि जहाँ संगीत का आधार शास्त्रीय था, वहाँ भी परिस्थिति के हिसाब से अनिल विश्वास ने इसे बेहद सरल और सरस तरीके से प्रयुक्त किया।
बम्बई में 1934 में पदार्पण के बाद अनिल विश्वास (Anil Vishwas) पहले कुमार मूवीटोन के साथ जुड़े। कलकत्ते से वे अपने साथ चार साजिंदे भी लाए थे जो एक साथ कई वाय बजाना जानते थे-इस तरह वॉयलिन, पियानो, हवाइयन गिटार, ट्रपेट, मैंडोलिन, चेलो जसे वाद्यों के साथ अनिल विश्वास ऑरकेस्ट्रा के क्रांतिकारी शुरुआत की भूमिका तैयार करके ही आए थे। ऑरकेस्ट्रा का महत्त्व और पाश्चात्य संगीत के तत्वों के प्रयोग का महत्व विश्वास ने आरम्भ से ही पहचाना। कुमार मूवीटोन के व्ही.एम. कुमार से मतभेद होने के बाद वे राम दरयानी की ईस्टर्न आर्ट सिंडिकेट के साथ सम्बद्ध रहे। मधुलाल मास्टर के साथ संगीतबद्ध ‘बाल हत्या’ (1935) में ही उन्होंने अपनी राजनीतिक चेतना का परिचय शक्ति की माता की आराधना वाले समूह गीत ‘काली माँ तू प्यारी तुम जग जननी, माता दे शक्ति हमको’ द्वारा स्पष्ट कर दिया था। भारत की बेटी’ (1935) में उस्ताद झंडे खों के साथ संगीत देते हुए उन्होंने फिल्म के पार्श्वसंगीत के अलावा तीन गीत भी कम्पोज़ किए, जिनमें ‘दीन दयाल दया करके भवसागर लेकर पार मुझे और विशेषकर ‘तेरे पूजन को भगवान बना है मंदिर आलीशान’ उल्लेखनीय और लोकप्रिय थे।
पर स्वतंत्र संगीतकार के रूप में उनकी प्रथम फिल्म ईस्टर्न टूर्स की हीरेन बोस निर्देशित ‘धर्म की देवी’ (1935) थी, जिसमें उन्होंने फकीर की भूमिका भी निभाते हुए क्षमा करो तुम क्षमा करो यह कहकर सब चिल्लाते हैं’, ‘कुछ भी नहीं भरोसा दुनिया है आनी जानी’ और ‘कर हाल पे अपने रहम ज़रा यूँ कुदरत को तू यूँ नाशाद न कर जैसे गीत स्वयं गाए। ‘कुछ भी नहीं भरोसा’ की रेकॉर्डिंग का शरद दत्त ने अनिल विश्वास (Anil Vishwas) पर लिखी अपनी पुस्तक में बड़ा रोचक वर्णन किया है।
पार्श्वगायन के अभाव में आउटडोर शूटिंग रात के वक्त इस तरह की जा रही थी कि फकीर की भूमिका में अनिल विश्वास (Anil Vishwas) को सड़क पर चलते हुए गाना था और माइक्रोफ़ोन सँभाले हुए एक आदमी और ट्राली पर वादक बैठकर पीछे-पीछे चल रहे थे। गाना लगभग खत्म होने को था कि बारिश शुरू हो गई, रात के अंधेरे में दिखाई नहीं दिया कि सामने गड्ढा है और विश्वास, साजिदे-सभी उस पानी के गड्ढे में जा गिरे। चोट तो खास नहीं आई, पर पूरे गाने की रिकॉर्डिंग नए सिरे से करनी पड़ी। इस फिल्म के एकाध गाने में सिंधी लोकधुन की प्रेरणा उन्हें फिल्म के अभिनेता गोप ने दी थी।
संगीत में सरस तत्वों के प्रवेश का आभास उन्होंने इस फिल्म के ‘न भूलो न भूलो प्रिय आज को यह अर्पण अनुराग’, ‘जिधर देखो जहाँ देखो उसी शै में रमा वह है’ और ‘अजब हाल अपना होता जो विसाल यार होता’ जैसे गीतों में दे दिया था। यही प्रवृत्ति हमें ‘प्रेम-बंधन’ (1935) के ‘कैसे कटे मोरी सूनी रे सेजरिया’, ‘चैन न आए जब पिया मधु आती’, “बिन देखे तुम्हारे मैं मर जाऊँगी’, ‘प्रतिभा’ (1936) के ‘जा जा रे भौंरा’ (सरदार अख्तर), ‘झूला झूल झूल झूल’ (सरदार अख्तर), ‘आज देखी मैंने जीवन ज्योति’ (नज़ीर, (रदार अख्तर), ‘पिया की जोगन’ (1936) के अति लोकप्रिय ‘ये माना हमने मुहब्बत की दवा तुम हो’ (सरदार अख्तर), ‘बढ़कर परी से शक्ल मेरे दिलरूबा की है’, ‘साकी हो सहने बाग हो (अनिल विश्वास (Anil Vishwas), सरदार अख्तर), ‘संगदिल समाज’ (1936) के ‘नैनों के तीर चलाओ न हम पर’ (सरदार अख्तर), ‘प्रीत की रीत बसी है मन में’, ‘वह मुहब्बत के मज़े और वह मुलाकातें गई’, कव्वालीनुमा ‘क्या लुत्फ जिंदगी का’, ‘शेर का पंजा’ (1936) एक ‘ऐसी चलत पवन सुखदाई’, ‘साँवरिया बांके मदमाते”, ‘क्या नैना मतवाले निकले’, ‘तोहार फुलवारिया में न जइहो रे’ और कव्वाली की शैली के ‘चिलम जो गाँजे की भरी पीते हैं सब यार’, ‘शोख दिलरूबा’ (1936) के खुर्शीद के गाए (मयजोशी मदहोशी है जहाँ में जिंदगानी मस्तों की’, ‘बुलडॉग’ (1997) के ‘आशा आशा मोरे मुरझाए मन की आशा’ (युसुफ एफंदी), ‘जेंटिलमैन डाकू (1937) के ‘हदय सेज पर फूल बिछाए आओ बैठो’, ‘नदिया पे आजा सैंया सावन आया), ‘इंसाफ’ (1997) के ‘जल- भरने को पनघट पे सखियां आती हैं (सहगान), ‘दिल की गहराइयों में छुपाएँ’, “हदय में प्रेम बसाएँ और ‘आज बना सुंदर संसार’ आदि में कहीं कम और कहीं अधिक नज़र आती है।
इस दौर में नई शैली की लोकप्रियता का चरम गीत था फिल्म ‘मनमोहन’ (1936) -तुम्हीं ने मुझको प्रेम सिखाया’ (सुरेन्द्र, बिब्बो)। हालांकि नाम संगीतकार के रूप में अशोक घोष का था, पर अनिल विश्वास (Anil Vishwas) के अनुसार इस गीत की धुन के सृजक वे स्वयं थे। सागर मूवीटोन की महबूब निर्देशित इस फिल्म का यह गीत ‘क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?’ संवाद की अदायगी से प्रारम्भ होता था, और यह अदा न सिर्फ नवीन थी, बल्कि गीत की धुन भी अपनी सुगमता और सरसता से जनसाधारण के बीच बेहद लोकप्रिय रही।
फिल्म-जगत में अनिल विश्वास (Anil Vishwas) की अंतिम फिल्म मोतीलाल द्वारा निर्मित और निर्देशित ‘छोटी-छोटी बातें’ (1965) रही। फिल्म मोतीलाल के सहज अभिनय के कारण भी यादगार बन गई है, इस फिल्म के तुरंत बाद मोतीलाल के निधन के कारण भी, और अनिल विश्वास के बेहतरीन संगीत के कारण भी। कोमल सारंग पर आधारित ‘कुछ और ज़माना कहता है, कुछ और है ज़िद मेरे दिल की मीना कपूर के स्वर में मुशायरे की शैली में ज़बर्दस्त असर करता है। सारंगी, तबले और सितार के साथ यह गीत अपनी सुंदर तर्ज और गायकी के कारण मीना कपूर और अनिल विश्वास दोनों की ही सर्वेश्रेष्ठ रचनाओं में अपना स्थान रखता है। बिहार की लोकशैली पर ‘मोरी बाली रे उमरिया’ (लता, साथी) और ‘अंधी है दुनिया’ (मन्ना डे, साथी) भी अच्छे गीत थे। ‘मोरी बाली रे उमरिया’ की धुन अपने कलकत्ता के दिनों में विश्वास ने बिहार के कुछ मजदूरों को आग तापते हुए गाते सुना था और यह धुन उनके मन में रच-बस गई थी।
वहीं ‘दिल का करे न कोई मोल सिंधी लोकधुन पर आधारित था। राग नंद कल्याण पर ‘जिंदगी का अजब फसाना है (मुकेश, लता) शायराना अंदाज़ में रचित एक अन्य बहुत सुंदर तर्ज थी। इस फिल्म में शैलेन्द्र के लिखे कुछ गीतों को अनिल विश्वास (Anil Vishwas) ने बहुत अच्छी शायराना तर्ज दी थी। पर इस फ़िल्म का सबसे अच्छा गीत में दर्द से सराबोर मुकेश के स्वर में ‘जिंदगी ख्वाब है या हमें भी पता’ को मानूँगा।
यह गीत एक तरह से मोतीलाल को श्रद्धांजलि की तरह था और कहते हैं कि इसे मुकेश ने खुद ही कम्पोज़ किया था पर नाम अनिल विश्वास (Anil Vishwas) का रहा। इस फिल्म के पार्श्वसंगीत का काम बाकी था और मोतीलाल को अनिल विश्वास को कुछ पारिश्रमिक देना शेष रह गया था। उन्होंने इसके लिए अनिल विश्वास को दिल्ली से बुलवाया। पर जब अनिल विश्वास दिल्ली से फिल्म के रिलीज़ होने के समय बंबई पहुंचे, तो पहुँचकर पता चला कि मोतीलाल अत्यंत गम्भीर हालत में हैं। विश्वास ने आनन-फानन में फिल्म का पार्श्वसंगीत तैयार किया पर इसके एक दिन बाद ही मोतीलाल गुज़र गए।
विश्वास के लिए भी यह वक्त अच्छा नहीं था। फिल्मों की कमी तो थी ही, अचानक भाई और बड़े बेटे की हुई मौतों ने अनिल विश्वास (Anil Vishwas) को तगड़ा सदमा पहुँचाया। उन्होंने बम्बई पूरी तरह ही छोड़ दी और दिल्ली का रुख किया, जहाँ वे ऑल इंडिया रेडियो में चीफ प्रोड्यूसर बन गए। ऑल इंडिया रेडियो में रहते हुए रूस की यात्रा के बाद अनिल विश्वास के मन में एक ‘नेशनल ऑरकेस्ट्रा बनाने की धुन सवार हुई, पर सरकारी तंत्र से अधिक सहयोग उन्हें नहीं मिल पाया। वैसे ऑल इंडिया रेडियो के लिए अनिल विश्वास ने नरेंद्र शर्मा के कुछ बेहद मधुर गीतों को संगीतबद्ध किया था जिसमें मन्ना डे के स्वर में शास्त्रीय बौदेश ‘नाच रे मयूरा’ बहुत मशहूर हुई थी।
ऑल इंडिया रेडियो के विविध भारती सेवा के उद्घाटन के अवसर पर पहला गीत ‘नाच रे मयूरा’ ही प्रसारित किया गया था। ऑल इंडिया रेडियो में रहते हुए उन्होंने वाद्यवृंद की 21 रचनाएँ तैयार कर ली थी जिसमें रवींद्रनाथ की कविता से प्रेरित ‘वासवदत्ता’ की बहुत तारीफ हुई थी। भार भी अनिल दा ने वर्षों तक सँभाला। दिल्ली में स्टेज पर प्रस्तुत किए जानेवाले ‘कृष्ण जन्माष्टमी के पार्श्वसंगीत का बाद में वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में संगीत के सलाहकार भी रहे। संगीत की कक्षाएँ भी वे चलाते रहे और कलकत्ते की एक कम्पनी के लिए उत्तरी क्षेत्र में रिकॉर्ड निर्माण का दायित्व भी सँभाला।
अंतर्राष्ट्रीय बाल वर्ष में दिल्ली के विद्यालयों में बच्चों के समूहों का गान भी उन्होंने करवाया था ‘हम लोग’, ‘बैसाखी’ और ‘फिर वही तलाश’ जैसे टी.व्ही. सीरियलों में उन्होंने संगीत दिया। हम लोग के शीर्षक गीत के लिए अनिल विश्वास (Anil Vishwas) ने फैज़ की रचना ‘आइए हाथ उठाएँ हम भी’ को लिया था। भारतीय वाधों के आकार में परिवर्तन कर उनसे ज्यादा सुर निकालने का उनका प्रयास भी इसी दौर में वर्षों चलता रहा। ‘ऋतु आए ऋतु जाए’ नाम से उन पर शरद दत्त द्वारा एक पुस्तक भी लिखी गई है। अनिल विश्वास (Anil Vishwas) ने खुद भी गज़ल पर बाँग्ला में एक पुस्तक लिखी है-‘गज़लेर रंग। गज़लों पर उनका शोध कार्य तो बहुत महत्वपूर्ण है, चाहे ‘गज़लेर रंग’ हो, या चुनिंदा गजलों का संग्रह ‘रंगे तजजुल’ हो।
संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार ने उनका सम्मान करते हुए उन्हें ‘नेशनल फैलो एमेरिट्स’ बनाया। मध्यप्रदेश शासन के लता मंगेशकर पुरस्कार से भी अनिल विश्वास (Anil Vishwas) को सम्मानित किया गया दिल्ली के साउथ एक्सटेंशन में रहते हुए ही 31 मई, 2003 को उनकी मृत्यु हुई।