Bhikaji Cama Birth Anniversary : ‘ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी’… सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के इस गीत को सुनते ही आंखों के आगे अनायास ही मैडम भीकाजी कामा की तस्वीर सामने उभर आती है। जो सालों विदेशी जमीन पर रहते हुए भारत की स्वतंत्रता की अलख जगाती रहीं।
युवाओं को देश के लिए कुछ कर गुजरने और मर मिटने की प्रेरणा देती रहीं। क्रांतिकारियों का संबल बनी रहीं और प्रत्येक संघर्ष और पीड़ा में उनकी बराबरी का हिस्सेदार बनी रहीं। भीकाजी कामा विदेशों में भी भारतीयता के प्रचार-प्रसार को ही जीवन का परम लक्ष्य मानकर प्रयासरत रहीं, लेकिन इन सबके बावजूद उनका मन हमेशा अपने देश के लिए तड़पता रहा।
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मैडम भीकाजी कामा (Bhikaji Cama) का जन्म 24 सितम्बर 1861 को बम्बई में एक पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता सोराब जी पटेल एक जाने माने कारोबारी थे और पेशे से वकील भी थे। उनकी माता जैजीबाई सोराबजी पटेल एक कुशल गृहणी थीं। 3 अगस्त 1885 को भीकाजी कामा विवाह रुस्तम कामा से हुआ। रूस्तम कामा भी उस समय के अमीर के. आर. कामा के बेटे थे और पेशे से ब्रिटिश वकील थे, जिनकी रूची तत्कालिन राजनीति में भी थी। भीकाजी कामा के दिल में लोगों की मदद और सेवा करने की भावना कूट−कूट कर भरी थी। साल 1896 में मुम्बई में प्लेग फैल गया था, ऐसे नाजुक वक्त में जब लोग उन मरीजों से दूर भागते थे, भीकाजी कामा (Bhikaji Cama) ने ऐसे मरीजों की सेवा की थी। बाद में वो खुद भी इस बीमारी की चपेट में आ गई थीं। इलाज के बाद वो ठीक हो गई थीं लेकिन उन्हें आराम के लिये उनके परिवार वालों ने उन्हें 1902 मे युरोप भेज दिया, जहां से वो जर्मनी, स्कॉटलंड और फ्रान्स होते हुए साल 1905 में लंदन आ गईं। लंदन आकर उन्होंने अंग्रेजो हुकुमत को भारतीय लोगों के साथ बदसलूकी और अंग्रेजी लोगों के साथ बाइज्जती देखी। ये सब देखकर उन्होंने लंदन में ही भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के लिए काम शुरू कर दिया। भीकाजी ने साल 1907 में अपने सहयोगी सरदारसिंह राणा की मदद से भारत का प्रथम तिरंगा राष्ट्रध्वज का पहला डिजाइन तैयार किया था। भीकाजी कामा ने 46 साल की उम्र में जर्मनी के स्टुटगार्ट में ये झंडा फहराया था। ये झंडा भारत के मौजूदा झंडे से बिल्कुल अलग था। जो आजादी की लड़ाई के दौरान बनाए गए कई झंडों में से एक था।
कहते हैं न कि जननी व जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान होते हैं। मैडम कामा (Bhikaji Cama) भी आजीवन इसी मातृभूमि के लिए मन ही मन दुखी रहीं। मैडम कामा को हमेशा अपने देश की भाषा, अखबार, देशवासी और यहां के साहित्य से दूर रहने का मलाल रहा। देश लौटने से पहले मैडम कामा (Bhikaji Cama) से लिखित में शर्त लगाई गई थी कि वे भारत में किसी भी तरह के राजनीतिक कार्यक्रम, भाषण, समारोह का हिस्सा नहीं बनेंगी। आप ये सोच सकते हैं कि लगातार 35 साल विदेशी जमीन पर रहकर भारत की आजादी का झंड़ा बुलंद करने वाली महिला पर अपने ही देश वापस लौटने के लिए शर्त लगाना कितना कष्टकारी रहा होगा। लेकिन अपनी मातृभूमि को छूने के लिए मैडम कामा ने हर चुनौती को सहस्र स्वीकार कर लिया। 13 अगस्त 1936 में मुंबई में मैडम कामा के रोगग्रस्त शरीर ने अस्पताल के बिस्तर पर दम तोड़ दिया। मैडम कामा (Bhikaji Cama) ने जिस स्वतंत्रता को पाने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया, वो आजादी उनकी मौत के ग्यारह साल बाद मिली। भारत की आजादी में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।