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अंग्रेजों की ईंट से ईंट बजाने वाली रानी की वीरता को दुश्मन भी करते थे सलाम

Remembering the Queen of Jhansi, Rani Lakshmibai :
चमक उठी सन् सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।

सुभद्रा कुमारी चौहान की ये कविता हम सब ने बचपन में पढ़ी और सुनी है। यह कविता भारत की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) की वीरता का बखान है। शौर्य, साहस और वीरता से भरी वह रानी जिसने अकेले अंग्रेजी हुकूमत की ईंट से ईंट बजा डाली। जिनकी बिजली सी चलती तलवार ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। अपनी झांसी, अपने स्वाभिमान और देश की स्वतंत्रता के लिए झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने आज के ही दिन यानि 17 जून, सन् 1858 में अंग्रेजी सेना से लड़ते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिए।

आजादी की लड़ाई की पहली वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) का जन्म 19 नवंबर, 1835 को वाराणसी में हुआ था। पिता का नाम मोरेपन्त था और माता भागीरथी बाई थीं। बचपन में नाम मणिकर्णिका था, प्यार से सब मनु बुलाते थे। 4 साल की उम्र में मनु पिता के साथ बिठूर चली आयीं। पिता बिठूर के पेशवा के यहां रहते थे। मनु भी साथ रहती थीं। बचपन नाना साहब के साथ बीता। नाना उन्हें अपनी बहन मानते थे और प्यार से उन्हें छबीली बुलाते थे। नाना के साथ-साथ मनु घुड़सवारी, तलवारबाजी और युद्ध कौशल सीखने लगीं। मनु जब 14 साल की थीं, उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव से हो गया। विवाह के बाद महराज गंगाधर राव ने उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा। 1851 में लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन महज 4 महीने बाद ही उनके पुत्र की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों से अपने राज्य को बचाने के लिए गंगाधर राव ने एक बच्चे को गोद लिया। बच्चे का नाम दामोदर राव रखा गया। लेकिन गंगाधर राव बीमार रहने लगे और कुछ ही दिनों में उनकी भी मृत्यु हो गई।

अपनी संतान नहीं होने के कारण अंग्रेजी हुकूमत ने रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) को झांसी छोड़ने का फरमान जारी कर दिया। गवर्नर जनरल लार्ड डालहौजी ने झांसी पर कब्जा और रानी को गद्दी से बेदखल करने का आदेश दिया। लेकिन स्वाभिमानी रानी ने फैसला कर लिया था कि वो अपनी झांसी अंग्रेजों को नहीं देंगी। जब अंग्रेजी दूत रानी के पास किला खाली करने का फरमान ले कर आये तो रानी ने गरज कर कहा “मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी”। जनवरी, 1858 में अंग्रेजी सेना झांसी पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़ी। लक्ष्मीबाई युद्ध के मैदान में कूद पड़ीं और उनकी सेना ने अंग्रेजों को आगे बढ़ने से रोक दिया। लड़ाई दो हफ़्तों तक चली और अंग्रेजी सेना को पीछे हटना पड़ा। लेकिन अंग्रेज बार-बार दोगुनी ताकत के साथ वापस आ जाते। झांसी की सेना लड़ते-लड़ते थक गई थी। आखिरकार अप्रैल, 1858 में अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा कर लिया।

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रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) अपने कुछ भरोसेमंद साथियों के साथ अंग्रेजों को चकमा दे किले से निकलने में सफल हो गईं। रानी और उनकी सेना कालपी जा पहुंची और ग्वालियर के किले पर कब्जा करने की योजना बनाई गई। ग्वालियर के राजा किसी भी ऐसे हमले की तैयारी में नहीं थे। 30 मई, 1858 को रानी अचानक अपने सैनिकों के साथ ग्वालियर पर टूट पड़ीं और 1 जून को ग्वालियर के किले पर रानी का कब्जा हो गया। ग्वालियर अंग्रेजी हुकूमत के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। ग्वालियर के किले पर रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) का अधिकार होना अंग्रेजों की बहुत बड़ी हार थी। अंग्रेजों ने ग्वालियर के किले पर हमला कर दिया। रानी ने भीषण मार-काट मचाई। बिजली की भांति लक्ष्मीबाई अंग्रेजों का सफाया करते हुए आगे बढ़ती जा रही थीं।

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ग्वालियर की लड़ाई का दूसरा दिन था। रानी (Rani Lakshmibai) अंग्रेजों से चारों तरफ से घिर गईं थीं। वह लड़ते-लड़ते एक नाले के पास आ पहुंचीं। आगे जाने का कोई रास्ता नहीं था और घोड़ा नया था वह नाले को पार नहीं कर पा रहा था। पीछे दुश्मन की पूरी फौज थी। रानी पूरी तरह से फंस चुकी थीं। रानी अकेली थीं और सैकड़ों अंग्रेज सैनिक। सबने मिल कर रानी पर वार शुरू कर दिए। रानी घायल हो कर गिर पड़ीं। लेकिन अंग्रेज सैनिकों को जाने नहीं दिया और मरते-मरते भी उन्होंने उन सभी अंग्रेजों को मार गिराया। लक्ष्मीबाई नहीं चाहती थीं कि उनके मरने के बाद उनका शरीर अंग्रेज छू पाएं। वहीं पास में एक साधु की कुटिया थी। साधु उन्हें उठा कर अपने कुटिया तक ले आए। लक्ष्मीबाई ने साधु से विनती की कि उन्हें तुरंत जला दिया जाए और इस तरह रानी वीरगति को प्राप्त हो गईं।

सुभद्रा कुमारी चौहान की उनके जीवन पर लिखी कविता से अच्छी शौर्य गाथा इस वीरांगना की हो ही नहीं सकती। उनकी कविता की ये अंतिम पंक्तियां रानी लक्ष्मीबाई बाई के बलिदान को सच्ची श्रद्धांजलि हैं-

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।