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रबींद्रनाथ टैगोर पुण्यतिथि: जिन्होंने राष्ट्रीय गीत ‘जन-गण-मन’ और ‘गीतांजलि’ की रचना की

Rabindranath Tagore Death Anniversary

Rabindranath Tagore Death Anniversary: भारतीय इतिहास में बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्ध महात्मा गांधी और रबींद्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) की जीवन गाथाओं का इतिहास है। ये भारत के अतिरिक्त विश्व के अन्य देशों में भी समान रूप से प्रसिद्ध और चर्चित रहे। महात्मा गांधी ने जहां देश को स्वतंत्रता दिलाई वहीं रबींद्रनाथ टैगोर ने विश्वप्रसिद्ध ‘नोबेल पुरस्कार’ प्राप्त कर देश का नाम रोशन किया।

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रबींद्रनाथ (Rabindranath Tagore) का परिवार बंगाल के प्राचीन कला-प्रेमी परिवारों में गिना जाता है। उनके पूर्वज बनर्जी ब्राह्मण और जमींदार थे, जिन्हें ‘ठाकुर दा’ कहा जाता था, संभवत: यही नाम बिगड़कर ‘टैगोर’ हो गया। वे लोग कलकत्ता (अब कोलकाता) में एक तीन मंजिला विशाल महल में रहते थे, जिसे ‘जोड़ासांको वाला महल’ कहा जाता है। उनका परिवार ‘ठाकुर’ कहा जाता है। उनके पूर्वज समाज के अगुआ थे। वे जाति के ब्राह्मण और शिक्षा तथा संस्कृति के क्षेत्र में अग्रणी थे। कट्टरपंथी हिंदू उन्हें ‘पिराली’ कहते थे, क्योंकि वे लोग मुसलमानों के साथ उठते-बैठते थे। इसलिए उन्हें जाति-भ्रष्ट माना जाता था। रबींद्रनाथ के दादा द्वारकानाथ ठाकुर ‘प्रिंस’ कहलाते थे। उनके वैभव की धाक देश में ही नहीं, विदेशों में भी थी। रबींद्रनाथ के पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर भी काफी प्रसिद्ध थे उनकी बहुत बड़ी जमींदारी थी। उनकी माता का नाम शारदा देवी था रबींद्रनाथ टैगोर के चौदह भाई – बहन थे। रबींद्र  उनमें सबसे छोटे थे।

आरंभिक जीवन

रबींद्रनाथ (Rabindranath Tagore) का जन्म कलकत्ता में 7 मई, 1861 को हुआ था। बचपन में परिवार के लोग उन्हें ‘रवि’ कहकर पुकारते थे उनका बचपन इसी पुश्तैनी मकान में बड़ी सादगी के साथ बीता। जाड़ों में भी वह सूती कपड़े पहनते थे। उनके खान-पान में सादगी दिखाई देती थी। शैश्वावस्था तक रवि हवेली में ही रहे। फिर उन्हें नौकरों के हवाले कर दिया गया। शायद धनी परिवारों की यही रीति-नीति थी। नौकर-चाकर ही रवि को खिलाते-पिलाते थे रात में सोने के लिए ही वह माँं के पास जाते थे नौकरों से उन्हें प्रायः डांट-फटकार मिलती रहती थी, जिसकी पीड़ा के कारण उन्होंने अपने बचपन के जमाने को ‘सेवकशाही’ के रूप में याद किया है।

शिक्षा-दीक्षा के लिए रबींद्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) को पहले बंगाल एकेडमी और फिर सेंट जेवियर स्कूल में दाखिल करवा दिया गया। उन्होंने बड़े जोर-शोर से स्कूल जाना शुरू किया, किंतु धीरे-धीरे स्कूल उन्हें जेल के समान लगने लगा। बंद कमरे में पढ़ाई उन्हें अच्छी नहीं लगती थी। वह खुले में भागने की कोशिश करते। एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा स्कूल बदला गया; लेकिन किसी स्कूल की पढ़ाई उन्हें रास नहीं आई। तब उन्होंने स्कूली पढ़ाई को तिलांजलि दे दी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि वह पढ़ाई-लिखाई से जी चुराते थे। पढ़ाई-लिखाई में तो उनका मन खूब लगता था, पर स्कूल उन्हें नहीं भाते थे वह स्वयं ही दिन-दिन भर पढ़ते रहते थे। सुबह एक घंटा अखाड़े में जोर-आजमाइश करते; उसके बाद बँगला, संस्कृत, इतिहास, भूगोल, विज्ञान, संगीत, चित्रकला आदि की पढ़ाई करते। बाद में अंग्रेजी भी इस सूची में शामिल हो गई। तीव्र बुद्धि के होने के कारण वह जल्दी ही विषय को याद कर लेते थे। लगभग साढ़े ग्यारह साल की उम्र में रबींद्रनाथ का यज्ञोपवीत संस्कार किया गया। यज्ञोपवीत संस्कार के बाद वह अपने पिताजी के साथ सैर-सपाटे के लिए बोलपुर गए। बोलपुर के निकट उनके पिता ने एक आश्रम बनवाया था, जिसका नाम था- शांतिनिकेतन।

रबींद्र (Rabindranath Tagore) को शांतिनिकेतन में बहुत अच्छा लगा। इस यात्रा के दौरान पिता ने रवि को संस्कृत, अंग्रेजी, गणित और ज्योतिष की शिक्षा दी। इसी यात्रा के दौरान रबींद्रनाथ ने सम्राट् पृथ्वीराज चौहान की ऐतिहासिक पराजय पर एक पद्यात्मक नाटक रचा। सैर-सपाटे से लौटकर वह बिलकुल बदले-बदले से नजर आने लगे; लेकिन स्कूल जाने से अब भी कतराते थे। अगले वर्ष उनकी माँ चल बसीं। पंद्रह साल की उम्र में उन्होंने पहली बार हिंदू मेले के अवसर पर जनता के सामने काव्य-पाठ किया। इस मेले का संगठन एवं आयोजन उनके बड़े भाइयों की मित्र-मंडली ने किया था इस अवसर पर उन्होंने जो कविता पढ़ी थी, वह उनकी स्वयं की रचना थी और राष्ट्रीय भावों से भरी हुई थी।

इसके बाद रबींद्रनाथ ने ‘वनफूल’ शीर्षक से एक लंबी कविता लिखी। ‘वैष्णव पदावली’ की तर्ज पर उन्होंने ‘भानुसिंहेर पदावली’ की रचना की, जो सन् 1877 में प्रसिद्ध बंगाली मासिक ‘भारती’ में प्रकाशित हुई थी। यह भानु सिंह स्वयं रबींद्रनाथ थे इस पदावली के पदों को देखकर कोई सहज ही यह विश्वास नहीं कर सकता था कि किसी सोलह-सत्रह साल के किशोर ने इनकी रचना की होगी। रबींद्रनाथ में अभिनय की प्रतिभा भी थी। उन्होंने अपने मित्रों तथा भाइयों के लिखे तथा शौकिया ढंग से खेले हुए नाटकों में अभिनय किया था। संगीत में भी उनकी बहुत रुचि थी। उनका स्वर भी बहुत मधुर था। बचपन से ही वह अपने लिखे हुए गीत गुनगुनाते और मधुर स्वर से गाते थे।

रग-रग में बसा था संगीत

परिवारवालों ने रबींद्र  (Rabindranath Tagore) में छिपी इस गायन प्रतिभा को पहचान लिया था उनकी इच्छा थी कि रबींद्र  इसी क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए किसी उच्च स्थान पर पहुंच जाएं अथवा पढ़-लिखकर बड़े अफसर बन जाएं। इसी उद्देश्य से रबींद्रनाथ सन् 1877 में उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए। वहां वह कुछ दिन ब्राइटन स्कूल में अध्ययन करने के बाद लंदन विश्वविद्यालय में दाखिल हो गए। वह वहां के सामाजिक जीवन में आंखें मूंदकर कूद पड़े और उसी में मग्न हो गए। उन्होंने वहां के साहित्य, नृत्य एवं गायन का गहराई तक अध्ययन किया वहां के जीवन एवं रीति-नीति को सावधानी और सूझ-बूझ के दौरान देखा तथा परखा। किंतु सन् 1880 में रबींद्रनाथ को अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर भारत लौटना पड़ा। इस बीच उनके दो गीत संग्रह–’सांध्य संगीत’ और ‘प्रभात संगीत’ प्रकाशित हुए, जिनकी बहुत चर्चा हुई।

उन्हीं दिनों उन्होंने बच्चों के लिए एक कविता लिखी-‘बिष्टि पड़े टापुर-टापुर’, जो बाद में बहुत चर्चित और लोकप्रिय हुई। इसके बाद उन्होंने बच्चों के लिए ‘शिशु भोलानाथ’ आदि कई पुस्तकें लिखीं। दिसंबर 1883 में मृणालिनी देवी के साथ रबींद्रनाथ (Rabindranath Tagore) का विवाह हुआ। विवाह के बाद भी उनकी गीत-संगीतमय प्रतिभा निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ती रही। धीरे-धीरे लोगों को यह महसूस होने लगा कि रबींद्रनाथ महान् गीतकार ही नहीं, विचारक और सुधारक भी हैं। जो लीक छोड़कर आगे बढ़ता है उसकी निर्मम आलोचनाएं होती हैं। रबींद्रनाथ भी इसके अपवाद नहीं थे साहित्य जगत् में उनके भी कई आलोचक बन गए। फिर भी, युवा कवि की चिंतन धारा निर्बाध गति से प्रवाहित होती रही। रबींद्रनाथ के पांच संतानें पैदा हुई। अपने स्कूल के दिनों को याद करके उन्होंने अपने बच्चों को घर पर ही शिक्षा देने की व्यवस्था कर दी। जमींदारी के सिलसिले में अक्सर गांव-देहात के चक्कर लगाने पड़ते थे। वह अकसर पद्मा नदी और उसके आस-पास के दृश्य देखा करते थे। देहात और देहातियों के जीवन से उन्हें बड़ा गहरा लगाव हो गया था गाँवों की समस्याओं के बारे में वह निरंतर हल खोजते रहते थे। वह प्रकृति के उन्मुक्त प्रांगण में बच्चों के लालन-पालन और उनकी शिक्षा-दीक्षा के पक्षधर थे। इस दृष्टि से उन्हें प्राचीन गुरुकुल की शिक्षा पसंद थी। संभवत: इसीलिए उन्होंने शांतिनिकेतन में अपने विचारों के अनुकूल एक विद्यालय बना लिया। इसके लिए उन्हें अनेक कुर्बानियां  देनी पड़ी। पुरी का एक मकान बेचना पड़ा। मृणालिनी देवी ने भी अपने गहने बेचकर पति के उद्देश्य को पूरा करने में हाथ बंटाया।

सन् 1901 में आरंभ हुआ वह विद्यालय आज बढ़ते-बढ़ते ‘विश्व भारती विश्वविद्यालय’ बन गया है। शुरुआत में विद्यालय में दो-तीन कोठियां थीं, कुछ कच्चे झोंपड़े थे। पढ़ाई-लिखाई पेड़ों की छाया में होती थी। रबींद्रनाथ (Rabindranath Tagore) स्वयं पढ़ाते थे धीरे-धीरे विद्यालय चल निकला। छात्रों की संख्या बढ़ी। गुणी सहकर्मी आ जुटे। छात्रों से मामूली फीस ली जाती थी शिक्षकों को मामूली सा वेतन दिया जाता था। रहन-सहन सादा था। गुरु-शिष्य के संबंध भी मधुर थे शिक्षा पुस्तकों के पन्नों तक ही सीमित नहीं थी। बागबानी, खेलकूद, खेतीबाड़ी, समाज-सेवा आदि भी पढ़ाई में शामिल थे।

पारिवारिक सुख से वंचित

सन् 1902 में रबींद्रनाथ (Rabindranath Tagore) की पत्नी का देहांत हो गया| सन् 1903 में उनकी दूसरी बेटी रेणुका को क्षय रोग हो गया। टैगोर उसे इलाज के लिए अल्मोड़ा ले गए। किंतु वहां भी उसकी हालत बिगड़ती गई और सन् 1904 में उसका भी देहांत हो गया। सन् 1905 में रबींद्र  के पिता रबींद्रनाथ और 1906 में उनका छोटा बेटा शमी भी चल बसा। रबींद्रनाथ ने परिवार के प्रति कर्तव्य-पालन में कोई कमी नहीं छोड़ी। इस प्रकार उन्हें लगातार दुःखद परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, जिसकी सहज अभिव्यक्ति उनके ‘स्मरण’ और ‘खेया’ काव्यों में दिखाई देती है। इन्हीं दिनों उन्होंने ‘गोरा’ नामक उपन्यास भी लिखा, जिसमें रूसी उपन्यासों के समान विशुद्धता व गंभीरता है।

सन् 1905 में बंग-भंग आंदोलन के समय रबींद्रनाथ भ्रातृत्व का संदेश लेकर प्रकट हुए। देश-प्रेम ने उन्हें स्वदेशी आंदोलन, राष्ट्रीय शिक्षा के आंदोलन में नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया। देश-सेवा के कार्यों में जी-जान से जुटकर भी वह दलगत राजनीति से दूर ही रहे। इन तमाम कार्य-कलापों के साथ-साथ अपने साहित्यिक जीवन को भी बरकरार रखा। उनकी कलम कभी रुकी नहीं। कविताओं, गीतों, उपन्यासों और नाटकों की रचना में वह निरंतर प्रवृत्त रहे। राष्ट्रीय गीत ‘जन-गण-मन’ और ‘गीतांजलि’ के गीतों की रचना उन्हीं दिनों हुई।

सन् 1910 में जब वह विदेश गए तो कई प्रतिष्ठित लेखकों, विचारकों आदि से उनकी मित्रता हुई, जिनके प्रोत्साहन से उन्होंने अपने कुछ गीतों और कविताओं के अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित किए, जो ‘गीतांजलि’ के नाम से संग्रहीत हुए थे। हालांकि ‘गीतांजलि’ नाम से बंगला में भी उन्होंने एक गीत प्रकाशित किया था, किंतु वह केवल बांग्ला भाषियों के लिए ही सीमित रह गया, जबकि अंग्रेजी में अनुवादित ‘गीतांजलि’ का देश विदेश, दोनों जगह गहरा प्रभाव पड़ा। पाश्चात्य काव्य जगत् में तहलका-सा मच गया। उमर खय्याम की कविता के बाद ‘गीतांजलि पूर्व से आने वाला पहला काव्य ग्रंथ था, जिसने पाश्चात्य काव्य-प्रेमियों को मुग्ध कर दिया। इंग्लैंड से रबींद्र अमेरिका गए और वहां भी अपनी काव्य प्रतिभा विकीर्ण कर सन् 1913 में भारत लौटे। उनकी इस विदेश यात्रा ने उन्हें विश्वविख्यात कर दिया और उनकी गणना विश्व के श्रेष्ठ कवियों में होने लगी। रबींद्र के भारत लौटने के कुछ सप्ताह बाद उन्हें साहित्य का सुप्रसिद्ध ‘नोबेल पुरस्कार’ मिला। पुरस्कार में प्राप्त 1 लाख 20 हजार रुपए रबींद्रनाथ (Rabindranath Tagore) ने शांति निकेतन के विभिन्न कार्यों में लगा दिए। इस धन से एक ग्राम सहकारी बैंक खोला गया, ताकि ग्रामीणों को सस्ते ब्याज पर ऋण मिल सके।

गांधी और टैगोर (Rabindranath Tagore) की मित्रता

सन् 1915 में महात्मा गांधी शांति निकेतन में पधारे। तब टैगोर और गांधीजी में जो मित्रता हुई वह दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही गई। सन् 1915 में ही अंग्रेज सरकार ने रबींद्रनाथ को ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया। इसके बाद उन्होंने ‘घर-बाहर’, ‘माली’, ‘बालक’ आदि कई पुस्तकें लिखीं। सन् 1916 में रबींद्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) ने ‘राष्ट्रीयता’ और अमेरिका में ‘व्यक्तित्व’ विषय पर प्रभावोत्पादक व्याख्यान दिए। सन् 1914 में प्रथम विश्व युद्ध आरंभ होने पर रबींद्र  के मन में पाश्चात्य भौतिकवाद एवं युद्ध-प्रेम के प्रति घृणा पैदा हो गई। उन्हीं दिनों देश में राष्ट्रीयता की जबरदस्त लहर दौड़ गई थी, जिसके परिणामस्वरूप कई राष्ट्रीय आंदोलन आरंभ हुए।  

रबींद्रनाथ (Rabindranath Tagore) ने सन् 1919 में सरकार को वह ‘सर’ की उपाधि लौटा दी, क्योंकि जलियांवाला बाग हत्याकांड में निर्दोष और निहत्थे भारतीयों पर अंग्रेज सरकार ने जो गोलीबारी की थी उससे उन्हें बेहद शोक, लज्जा और रोष था। उपाधि लौटाते हुए उन्होंने बड़े लाट साहब को लिखित अपने पत्र में अत्याचारों का प्रबल विरोध किया था। वह पत्र भी उनकी एक अविस्मरणीय रचना है।

सन् 1920 और 1930 के बीच रबींद्रनाथ ने सात बार पूर्व और पश्चिम के कई देशों की यात्रा की। इन यात्राओं में उन्होंने रूस, यूरोप, अमेरिका के दोनों महाद्वीप, एशिया के चीन, जापान, मलाया, जावा, ईरान आदि देश शामिल हैं इन यात्राओं के दौरान उनका यह विचार पक्का हो गया कि सभी देशों की जनता में मित्रता और प्रेम भावना के आदान-प्रदान से ही सुख-शांति संभव है। इसी आदर्श पर उन्होंने सन् 1921 में शांति निकेतन में विश्व भारती विश्वविद्यालय की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था कि यहां विश्व के सभी देशों के शिक्षा प्रतिनिधि एकत्र हों। उन्होंने विश्व भारती के आदर्श वाक्य के रूप में संस्कृत का यह श्लोकांश चुना था- ‘यत्र विश्वंभवत्येकनीडम्’, अर्थात जहां सारा संसार एक ही घोंसला बन जाए। सन् 1930 में अपनी रूस यात्रा के दौरान रबींद्रनाथ ने वहां जो प्रगति देखी, उसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘रूस की चिट्ठी’ में शब्दांकित किया है सन् 1931 में ‘हिबर्ट लैक्चर्स’ के अंतर्गत उन्होंने ‘मानव का धर्म’ विषय पर कई व्याख्यान दिए, जो बहुत चर्चित हुए।

सादा जीवन, उच्च विचार

रबींद्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) प्रात:काल बड़े सवेरे जाग जाते थे उन्हें सूर्योदय का दृश्य बहुत भाता था। सुबह नाश्ते में वे चाय-टोस्ट लेते थे और लिखने बैठ जाते थे। लिखते समय वह किसी से मिलना प्राय: कम ही पसंद करते थे। गीत लिखना उनके लिए ऐसा था जैसे किसी बच्चे के लिए खेलना। उन्हें अव्यवस्था बिलकुल पसंद नहीं थी, भले ही वह स्वयं कितने ही अव्यवस्थित क्यों न रहते हों। अपने कागज-पत्र इधर-उधर रखकर फिर उन्हें खोज निकालना उनके लिए मुश्किल हो जाता था। उन्हें समय पर स्नान कराना और अन्य सेवाएं उपलब्ध कराना वन माली का काम था। उनकी खुराक बहुत कम थी, फिर भी वह थाली में रखे सभी भोज्य पदार्थों को चख जरूर लेते थे। वह बिना मसाले वाला सादा भोजन ही पसंद करते थे। फल और देसी गुड उन्हें अच्छा लगता था। पहले वह मांस-मछली भी खाते थे, लेकिन बाद में उन्होंने मांसाहार छोड़ दिया था।

एक ओर तो रबींद्रनाथ (Rabindranath Tagore) जीवन में सादगी को महत्त्व देते थे और दूसरी ओर देश-विदेश की रेल यात्राओं के समय रेलगाड़ी की प्रथम श्रेणी का पूरा डिब्बा अकेले उनके लिए आरक्षित रहता था। उनके स्वभाव में एक विरोधाभास और था कि कभी तो वह इतने गंभीर हो जाते थे कि महीनों मौन-से बने रहते थे; दूसरी ओर अपनी प्रसिद्धि को लेकर उनमें बच्चों जैसा कौतूहल था। रबींद्रनाथ की पोशाक सादा व मनोहर होती थी-सादा पाजामा, ढीला-ढाला कुरता और पतली चप्पल, साथ में चादर। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में रबींद्रनाथ ने चित्रकला की ओर रुख किया और एक से बढ़कर एक हजारों चित्र बना डाले। जब भी उनका मन अधीर हो उठता, वह जो कुछ भी मिल जाता, उसी से चित्र बनाने लगते। कागज न मिलने पर पुरानी पत्रिका की जिल्द पर ही चित्र बनाने लगते, रंग न मिलने पर स्याही से ही चित्र बनाने लगते। इस तरह उन्होंने 2,000 से भी अधिक सुंदर और मनोहारी चित्र बना डाले।

रबींद्रनाथ (Rabindranath Tagore) की सत्तरवीं वर्षगांठ पर उन्हें एक अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया गया था, जिसमें विश्व भर के लेखकों, नेताओं, वैज्ञानिकों तथा कवियों ने विविध रूपों में उनका अभिनंदन किया था। वह संगीतज्ञ, अभिनेता, दार्शनिक, पत्रकार, शिक्षक और नेता भी थे विश्व के इतिहास में विविध कलाओं में पारंगत ऐसा प्रतिभावान् व्यक्ति शायद ही कोई दूसरा हो। 7 अगस्त, 1941 को श्रावण पूर्णिमा के दिन अस्सी वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया।