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बाल गंगाधर तिलक: वह स्वतंत्रता सेनानी जिसने बुलंद किया था ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा

लोकमान्य के नाम से मशहूर बाल गंगाधर तिलक को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का अग्रदूत कहा जाता है।

“स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे ले कर रहूंगा”- भारतीय स्वतंत्रता के आंदोलन में ये नारा देने वाले बाल गंगाधर तिलक की आज जयंती है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के जनक, समाज सुधारक, राष्ट्रीय नेता बाल गंगाधर तिलक भारतीय इतिहास, संस्कृत, हिन्दू धर्म, गणित और खगोल विज्ञान के विद्वान थे। लोकमान्य के नाम से मशहूर बाल गंगाधर तिलक को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का अग्रदूत कहा जाता है। भारत की आजादी के सबसे बड़े नायक माने जाने वाले महात्मा गांधी के साल 1915 में भारत वापस आने से पहले ही, देश में ब्रिटिश राज के खिलाफ आम जनता के बीच बगावत का बिगुल बज चुका था। इसका श्रेय तिलक को ही जाता है। 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी के एक ब्राह्मण परिवार में तिलक जी का जन्म हुआ।

तिलक देश की उस पहली पीढ़ी में से एक थे जिसने ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था के तहत कॉलेज की पढ़ाई पूरी की थी। पढ़ाई पूरी करने बाद तिलक एक स्कूल में गणित के शिक्षक भी रहे। लेकिन नियति ने तो उनको भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का जनक बनाना निर्धारित किया था। जल्दी ही तिलक ने नौकरी छोड़ दी और वह पत्रकारिता करने लगे। तिलक के लेखों की भाषा इतनी तीखी होती थी कि वह अंग्रेजी सरकार के सीने में तीर की तरह चुभती थी। महाराष्ट्र में घर-घर में मनाए जाने वाले गणेश महोत्सव को तिलक ने घरों से बाहर मनाने की अपील की। इसी बहाने लोगों को एक साथ जागरूक और संगठित किया जा सकता था। तिलक का विचार काम कर गया। गणेश उत्सव के सहारे भारतीय जनता संगठित होने लगी।

तिलक ने अपनी बुद्धिमत्ता से एक त्योहार को ब्रिटिश राज के खिलाफ लोगों की अभिव्यक्ति का साधन बना दिया। साल 1890 में तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए। कांग्रेस के भीतर तिलक को जोरदार विरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन तिलक को बंगाल के बिपिन चंद्र पाल और पंजाब के लाला लाजपत राय जैसे देशभक्त नेताओं का साथ मिला। फिर शुरू हुई कांग्रेस के भीतर नरम दल और गरम दल की राजनीति। तिलक गरम दल के अगुआ बने और यह तिकड़ी ‘लाल-बाल-पाल’ के नाम से मशहूर हो गई। साल 1905 में जब वायसराय लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया तो तिलक का नारा ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा’ हर भारतीय की जुबान पर था। तिलक के इस नारे ने पूरे देश को एकजुट कर दिया।

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तिलक ने मराठी में मराठा दर्पण और केसरी नाम से दो दैनिक अखबार शुरू किए, जो बेहद लोकप्रिय हुए। इनमें वे अंग्रेजी शासन की क्रूरता और भारतीय संस्कृति को लेकर अपने विचार बहुत खुलकर व्यक्त करते थे। केसरी में छपने वाले अपने लेखों की विषय-सामग्री और उनके पैनेपन की वजह से उन्हें कई बार जेल भेजा गया। इसके बावजूद वे अपनी लेखनी के जरिए भारतीय समाज को जागरूक और एकजुट करने के मुहिम में जुटे रहे। अपने जीवन के अंतिम दौर में उन्हें 3 जुलाई, 1908 को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर 6 साल के लिए बर्मा के मांडले जेल भेज दिया गया था। मांडले मध्य म्यांमार में है। अंग्रेजों के शासनकाल में वहां किलानुमा जेल थी। लाजपत राय, सुभाष बाबू वगैरह समेत कई कैदी यहां एकांतवास में रखे गए थे। पर सबसे अधिक दिनों तक तिलक को ही यहां पर रखा गया।

उन्हें डेक के नीचे कमरे में बंद रखा गया था। वह वहां लेट कर हवा के लिए बनाये गए गोल सुराखों में से सांस लेकर समय काटते थे। सुबह-शाम महज एक घंटे अंग्रेज अफसर के सख्त पुलिस पहरे में डेक पर घूमने की इजाजत थी। मांडले जेल में बड़े-बड़े बैरक थे। मांडले का मौसम ऐसा है कि सर्दियों में हाड़ कंपा देने वाली सर्दी पड़ती है और गर्मियों में आकाश-धरती सब भट्टी की तरह तपता है। तिलक को लकड़ी के बने कमरे में रखा गया था। यह कमरा हर मौसम के लिए प्रतिकूल था। मांडले जेल जाते समय उनकी उम्र थी 52 वर्ष थी। गीता रहस्य नामक 400 पन्नों की पुस्तक की पूरी रचना लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने मांडला जेल में ही की थी।

बाल गंगाधर तिलक की लोक मान्यता उनके राजनीतिक और सामाजिक कार्यों के अलावा वैज्ञानिक शोध के कारण भी थी। इसी वजह से उन्होंने ओरायन जैसा गहन शोधपरक ग्रंथ लिखा। ओरायन, मृगशीर्ष/ मृगशिरा नक्षत्र का ग्रीक नाम है। 6 वर्ष की अवधि पूरी करके वे जेल से और भी दृढ़ विचार लेकर बाहर लौटे। श्रीमती एनी बेसेंट के साथ मिलकर तिलक ने देश में स्वराज की मांग करते हुए आयरलैंड की तर्ज पर होमरूल आंदोलन की शुरूआत की और देश-भर में उसका प्रचार किया। अब उनका इतना प्रभाव पड़ा कि 1916 में लखनऊ में पूरी कांग्रेस उनके साथ हो गयी। तिलक ने देश के आन्दोलन की जो भूमि तैयार की थी, गांधीजी ने उसी को अपने आगे के आन्दोलन का आधार बनाया। लेकिन विडम्बना देखिये कि गांधीजी का आन्दोलन 1 अगस्त, 1920 को आरम्भ होने वाला था। इधर, 31 जुलाई और 1 अगस्त, 1920 की रात तिलक ने सदा के लिए आंखे बंद कर लीं। गांधीजी ने उस अवसर पर कहा था ‘मेरी ढाल मुझसे छिन गयी।’

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