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गोपबंधु दास जयंती विशेष: उड़ीसा में ‘दरिद्रसखा’ के तौर पर मशहूर, समाज सेवा के लिए समर्पित कर दी अपनी जिंदगी

Gopabandhu Das

‘उत्कलमणि और ‘दरिद्रसखा’ के नाम से विख्यात गोपबंधु दास (Gopabandhu Das) का जन्म उड़ीसा में, पुरी जिले के साक्षी गोपाल के निकट सुआंडो नामक गांव में 1877 ई. में हुआ था। शिक्षा पूरी करके आजीविका के लिए वकालत करते हुए आप जीवन- पर्यंत शिक्षा, समाज-सेवा और राष्ट्रीय कार्यों में संलग्न रहे। राष्ट्रीय भावना गोपबंधु दास के अंदर बचपन से ही थी। विद्यार्थी जीवन से ही वे ‘उत्कल सम्मेलनी’ संस्था में सम्मिलित हो गए थे। इस संस्था का एक उद्देश्य सभी उड़िया-भाषियों को एक राज्य के रूप में संगठित करना भी था। उन्होंने इसे स्वतंत्रता संग्राम की अग्रवाहिनी बनाया और जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन आरंभ किया तो गोपबंधु दास ने अपनी संस्था कांग्रेस में मिला दी।

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गोपबंधु दास (Gopabandhu Das) उड़ीसा में राष्ट्रीय चेतना के अग्रदूत थे स्वतंत्रता -संग्राम में उन्होंने अनेक बार जेल यात्राएं कीं। 1920 की नागपुर कांग्रेस में उनके प्रस्ताव पर ही कांग्रेस ने भाषावार प्रांत बनाने की नीति स्वीकार की थी।

शिक्षा के क्षेत्र में गोपबंधु दास (Gopabandhu Das) का योगदान उल्लेखनीय है। साक्षी गोपाल में उनके द्वारा स्थापित वन विद्यालय शांतिनिकेतन की भाँति खुले वातावरण में शिक्षा देने का एक नया प्रयोग था।

गोपबंधु दास (Gopabandhu Das) का साहित्यिक योगदान भी बहुत बड़ा है। उड़िया साहित्य के ‘नये सत्यवादी’ युग के वे ही श्रेष्ठ माने जाते हैं। उनकी प्रमुख कृतियां हैं – ‘अवकाश चिन्ता’, ‘बंदीर आत्मकथा’, ‘धर्मपद’, ‘गो महात्म्य’, ‘कारा कविता’, ‘नचिकेता उपाख्यान’ आदि। 17 जून 1928 को इनका निधन हो गया।

गोपबंधु दास (Gopabandhu Das) की मानव समुदाय के संबंध में दृष्टि का परिचय ‘समाज’ की इस टिप्पणी से मिलता है- ‘’आज मनुष्य और मनुष्य के बीच न केवल हमारे देश में बल्कि पूरी दुनिया में जो भेज पाया जाता है, वह असह्य है। ईश्वरीय सत्ता में यह ज्यादा दिनों तक चल नहीं सकता। ‘’