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जब फैज के इंकलाबी नज्मों से डरकर पाक सरकार ने लगाया देशद्रोह का इलजाम

फूलों की शक्ल और उनकी रंगो-बू से सराबोर शायरी से भी अगर आंच आ रही है तो यह मान लेना चाहिए कि फैज (Faiz Ahmad Faiz) वहां पूरी तरह मौजूद हैं। फैज (Faiz Ahmad Faiz) की शायरी की खास पहचान ही है—रोमानी तेवर में भी खालिस इन्किलाबी बात। कारण, इनसान और इनसानियत के हक में उन्होंने एक मुसलसल लड़ाई लड़ी है और उसे दिल की गहराइयों में डूबकर, यहां तक कि ‘खूने-दिल में उंगलियां डुबोकर’, कागज़ पर उतारा है।

फैज अहमद फैज (Faiz Ahmad Faiz) की नज़्में तरक्की पसन्द उर्दू शायरी की बेहतरीन नज़्में हैं और नज़्म की सारी खासियतें और भी निखर-संवर कर उनकी गज़लों में ढल गई हैं। जाहिरा तौर पर फैज (Faiz Ahmad Faiz) की नज़्मों और गज़लों को आप पढ़ेंगे तो इनमें आपको दुनिया के हर गमशुदा, मगर संघर्षशील आदमी की ऐसी आवाज़ सुनाई देगी जो कैदखानों की सलाखों से भी छन जाती है और फांसी के फन्दों से भी गूंज उठती है।

फैज अहमद फैज (Faiz Ahmad Faiz) का जन्म सन् 1911 को सियालकोट (अविभाजित पंजाब) में हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू-फ़ारसी-अरबी में हुई। उन्होंने अंग्रेज़ी और अरबी साहित्य में एम.ए. की डिग्री हासिल की।

इसके बाद फैज (Faiz Ahmad Faiz) ने अमृतसर में अंग्रेज़ी प्राध्यापक के रूप में कार्यारम्भ किया। इस दौरान उन्होंने कई महत्‍वपूर्ण पत्रों का सम्पादन भी किया। फैज (Faiz Ahmad Faiz) ने 1928 में अपनी पहली ग़ज़ल और 1929 में पहली नज़्म की रचना की। फैज (Faiz Ahmad Faiz) को देशद्रोह के झूठे इलजाम में उनके विरूद्ध रावलपिंडी साजिश केस रच कर पाकिस्तान सरकार ने उन्हें लगातार दो बार 1951 और 1958 में गिरफ़्तार कर उनकी आवाज को दबान की कोशिश भी की।

धीरे-धीरे फैज (Faiz Ahmad Faiz) इतने विख्यात हो गए कि उन्हें विदेशों में भी गजलों की प्रस्तुति के लिए बुलाया जाने लगा। उन्होंने सैनफ्रांसिस्को, जिनेवा, चीन, लन्दन, मास्को, हंगरी, क्यूबा, लेबनान, अल्जीरिया, मिस्र, फिलिपाइन और इंडोनेशिया की यात्राएं भी कीं। इस बीच उन्हें 1964 में अब्दुल्ला हारून कॉलेज, कराची के प्रिंसिपल के तौर पर नियुक्त किया गया। फैज (Faiz Ahmad Faiz) ने 1968 में इदारा-ए-यादगार-ए-ग़ालिब की स्थापना की और 1969 में ग़ालिब-शती समारोह का आयोजन कर मिर्जा गालिब को याद किया।

इतिहास में आज का दिन – 20 नवंबर

करीब 40 सालों से अधिक समय में फैली हुई फैज (Faiz Ahmad Faiz) की शायरी भी समय के साथ साथ अपने रूप बदलती रही है और उन्होंने नक्श-ए-फरियादी से मेरे दिल मेरे मुसाफिर तक एक लंबी मानसिक यात्रा तय की है। नक्श-ए-फरियादी के पहले भाग (1928-1935) की शायरी एक बेफिक्रे खुशहाल और हुस्न-ओ-इश्क की मधुर कल्पनाओं में डूबे हुए कॉलिजिएट नवयुवक के व्यक्तित्व का आईना है। इसीलिए इसमें:

थक जायेंगी तरसी हुई नाकाम निगाहें

छिन जायेंगे मुझसे मेरे आसूं, मेरी आहें

छिन जायेगी तुझसे मेरी बेकार जवानी

शायद मेरी उल्फत को बहुत याद करोगी।

जैसी रोमानवी शायरी के नमूने मिलते हैं। फैज (Faiz Ahmad Faiz) को 1972 में राष्ट्रीय कला परिषद्, पाकिस्तान का अध्यक्ष चुना गया। 1973 में अफ्रो-एशियाई लेखक सम्मेलन के अल्मा-अता (सोवियत संघ) और 1978 में लुआंडा (अंगोला) अधिवेशन में हिस्सेदारी की। 1962 में ‘लेनिन शान्ति पुरस्कार’ से सम्मानित किये गए। वो अफ्रो-एशियाई लेखक संघ की पत्रिका ‘लोटस’ के सम्पादक भी रहे।

अपनी जीवनकाल में फैज (Faiz Ahmad Faiz) ने कई पुस्तकें प्रकाशित कीं, उनमें नक़्शे-फ़रियादी, दस्ते-सबा, ज़िन्दाँनामा, दस्ते-तहे-संग, सरे-वादिए-सीना, शामे-शह्रे-याराँ, मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर (कविता-संग्रह); मीजान (लेख-संग्रह); सलीबें मेरे दरीचे में (पत्नी के नाम पत्र); मताए-लौहो-क़लम (भाषण, लेख, साक्षात्कार, भूमिकाएं, पत्र, नाटक आदि) प्रमुख हैं।

लेकिन 20 नवंबर 1984 को उर्दू-हिंदी साहित्य का ये बेबाक सितारा इसांनियत के मर्मों को अपनी लेखनी में समेटकर सदा के लिए आसमान का टिमटिमाता सितारा बन गया।