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आज ही शुरू हुआ था 1857 का ‘गदर’, इन वीरों ने अंग्रेजों को चटाई थी धूल

मंगल पांडेय ने मेजर जनरल ह्यूसन और लेफ्टिनेंट बाघ को उसी समय मौत के घाट उतार दिया।

आज 10 मई है। यानी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम इतिहास की वो तारीख, जिस दिन फूटी थी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की पहली चिंगारी। यही चिंगारी बाद में पूरे देश में आग की तरह फैल गई। अंग्रेजों के खिलाफ लगतार बढ़ता असंतोष सन 1857 में महान क्रांति के रूप में प्रकट हुआ। यही था ‘प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857’ का आरंभ। जिसके नायक थे नाना साहेब पेशवा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, अजीमुल्ला खां, वीर कुंवर सिंह, मंगल पांडेय और ऐसे हजारों वीर जिन्होंने मातृभूमि की आजादी के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए।

नाना धुंधू पंत, जिन्हें नाना साहब पेशवा भी कहा जाता था, कानपुर के पास बिठूर के राजभवन में रहते थे। उन्होंने अपने प्रमुख सहयोगी अजीमुल्ला खां के साथ देश भर में घूमकर अंग्रेजों के विरूद्ध एक महासंग्राम की योजना बड़ी दूरदर्शिता और चतुराई से बनाई। पूरे भारत में स्वतंत्रता संग्राम को प्रारंभ करने का एक ही दिन निश्चित हुआ। वह दिन था 31 मई, 1857। उस दिन रविवार था। अंग्रेज प्रार्थना के लिए गिरजाघर में एकत्र होते थे। उसी दिन भारत के अंग्रेजों को समाप्त करने की योजना बनी। स्वतंत्रता के युद्ध में लाल कमल व रोटी को क्रांति के प्रचार का संकेत चिह्न बनाया गया। लाल कमल वीरता और रोटी देश की एकता की प्रतीक थी। युद्ध की सारी तैयारी अत्यंत गुप्त रूप से की जा रही थी। असंतोष की ज्वालामुखी अंदर ही अंदर धधक रही थी। सारा देश 31 मई, 1857 की प्रतीक्षा कर रहा था। उसका विस्फोट असमय न हो, इसलिए क्रांति के नेतागण सतर्कता बरत रहे थे।

क्रांति घड़ी की सुइयों के समान नहीं चलती। अकस्मात एक घटना घट गई। कोलकाता से 8 मील दूर बैरकपुर में स्थित कारतूस बनाने के कारखाने में एक बात फैल गई कि कारखाने में नए तरह के कारतूस बन रहे हैं। उसमें गाय और सुअर की चर्बी लगी है। उसे दांत से काट कर बंदूक में भरना पड़ेगा। लोगों का खून खौलने लगा। चर्बी वाले इस कारतूस का प्रयोग करने की बात से हिन्दू और मुसलमान सैनिकों की भावनाओं को ठेस पहुंची थी। सभी ने विद्रोह करने का निश्चय कर लिया। बैरकपुर की 35वीं पलटन के मंगल पांडेय का स्वाभिमान जाग उठा। उन्होंने कारतूस के प्रयोग से इनकार कर दिया। 29 मार्च, 1857 को दोपहर के समय मंगल पांडेय हाथ में बंदूक ले कर निकाल पड़े और गर्जना की “मारो फिरंगियों को।” मंगल पांडेय ने मेजर जनरल ह्यूसन और लेफ्टिनेंट बाघ को उसी समय मौत के घाट उतार दिया।

मंगल पांडेय को मौके से ही पकड़ लिया गया। सैनिक न्यायालय ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई। बैरकपुर के सभी जल्लादों ने उन्हें फांसी देने से मना कर दिया। कोलकाता से जल्लाद बुलाकर 8 अप्रैल, 1857 को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। मंगल पांडेय के बलिदान का समाचार बिजली की तरह चारों ओर फैल गया।

6 मई का दिन था। मेरठ में घुड़सवारों के एक दल को कारतूस को दांत से काट कर प्रयोग करने की आज्ञा दी गई। उन्होंने आज्ञा मानने से इनकार कर दिया। उन सैनिकों को बन्दी बनाकर कठोर सजा दी गई। इन घटनाओं से भारतीय सिपाही विचलित हो उठे। 31 मई की राह देखना उनके लिए असंभव हो गया। मेरठ अंग्रेजों की प्रमुख छावनी थी। छावनी के सैनिकों ने गुप्त बैठक कर 10 मई को क्रांति आरम्भ करने का दिन निश्चित किया। पेशवा की सहमति के लिए बिठूर संदेश भेजा गया।

10 मई को रविवार था। मेरठ के आस-पास के गांव से भी लोग अपने हथियार ले कर एकत्र होने लगे। प्रातःकाल क्रांति के सिपाही शस्त्र ले कर निकल पड़े। जेल की दीवारें तोड़ दी गईं। सभी कैदी मुक्त कर दिए गए। चारों ओर अंग्रेजों पर हमला होने लगा उन्हें चुन-चुन कर मौत के घाट उतार गया। बारूद के कारखाने ओर खजाने पर क्रांतिकारियों का कब्जा हो गया। मेरठ स्वतंत्र हो गया किन्तु सैनिक चुप बैठने वाले कहां थे। ‘दिल्ली चलो’ का नारा गूंज उठा। एक रात में दिल्ली से मेरठ पहुंच सैनिकों ने दिल्ली पर भी अपना कब्जा कर लिया और देखते ही देखते पूरे भारत मे क्रांति की मशाल जल उठी। अंग्रेजी हुकूमत में हाहाकार मच चुका था। कानपुर में नाना साहब पेशवा, झांसी में रानी लक्ष्मीबाई , बिहार में वीर कुंवर सिंह समेत अनेक क्रांति दूतों ने अंग्रेजी हुकूमत के ऊपर जमकर कहर बरपाया।

पूरे संग्राम में हिन्दू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर लड़े, लेकिन क्रांति समय से पहले शुरू हो गई थी। इस कारण इतने व्यापक युद्ध होने पर भी, अंग्रेजों ने इसे कुचल दिया। क्रांति के दमन के दौरान ब्रिटिश सैनिकों ने क्रांति के नेताओं, सैनिकों और आम जनता को अमानवीय यातनाएं दीं। अंग्रेजों ने भयंकर अत्याचार किए और बड़ी संख्या में लोगों को मौत के घाट उतार दिया। बहुत से गांव को मिट्टी में मिला दिया गया। शहरों को लूट कर आग लगा दिया गया। अकेले अवध में लगभग 1,50,000 लोगों की हत्याएं हुईं। बड़ी संख्या में लोगों को फांसी पर लटकाया गया। स्वतंत्रता के इस संग्राम में हजारों वीर योद्धा शहीद हुए।

सन 1857 का स्वाधीनता संग्राम सफल तो नहीं हो सका, लेकिन क्रांतिवीरों के बलिदानों ने हमारी गौरव गाथा में साहस और वीरता का सुनहरा अध्याय जरूर जोड़ दिया। देशवासियों का खोया स्वाभिमान जाग उठा और देश को स्वतंत्र कराने की इच्छा बलवती हो उठी।