
यूरोपीय संसद में CAA के खिलाफ प्रस्ताव।
बुधवार से यूरोपीय संसद का प्लीनरी यानी कि महाधिवेशन शुरू हो रहा है जिसमें भारत की निंदा करने वाले छह प्रस्तावों के मसौदे रखे जाएंगे जिन्हें पारित करने के लिए अगले दिन मतदान भी हो सकता है। ये प्रस्ताव CAA यानी कि नागरिकता संशोधन कानून, असम की NRC यानी कि राष्ट्रीय नागरिक पंजी, CAA और NRC का विरोध करने वालों के ख़िलाफ़ उठाए गए दमनकारी कदमों और जम्मू-कश्मीर के नेताओं और लोगों पर लगाई गई पाबंदियों की निंदा करते हैं। प्रस्तावों में चिंता प्रकट की गई है कि भारत सरकार की ये राष्ट्रवादी नीतियां अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव करती हैं, उनको नागरिकता हीन बना सकती हैं, बुनियादी अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के ख़िलाफ़ हैं और विश्व बिरादरी में भारत की छवि को बट्टा लगा सकती हैं।

यूरोपीय संसद में रखे जाने वाले इन निंदा प्रस्तावों पर भारत ने अभी तक कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है और कूटनीतिक स्तर पर कोशिशें हो रही हैं कि इन प्रस्तावों में फेरबदल करा कर इनकी धार कम की जाए और बहस के बाद इन्हें पारित होने से रोका जाए। भारत सरकार की दलील यही होगी कि CAA शरणार्थियों के साथ भेदभाव करने के लिए नहीं बल्कि उन शरणार्थियों की नागरिकता की प्रक्रिया सरल बनाने के लिए है जिन्हें और किसी देश में शरण मिलने की संभावना नहीं है और CAA तथा NRC के बीच कोई संबंध नहीं है। जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन को भारत पहले ही अपना आंतरिक मामला बता चुका है। इसे लेकर पिछले साल यूरोपीय संसद में इसी तरह के निंदा प्रस्ताव रखे गए थे। लेकिन वे पारित नहीं हो सके थे।
यूरोपीय संघ की विदेशी और रक्षा मामलों की प्रवक्ता वर्जिनी बैट्टू हैनरिकसन ने स्पष्ट किया है कि पहली बात तो, जिन छह निंदा प्रस्तावों की बात हो रही है वे अभी तक मसौदे की शक्ल में हैं। उन पर आमराय बनाने के लिए अभी काफ़ी फेरबदल हो सकते हैं। दूसरे, ये प्रस्ताव यूरोपीय संघ की सरकारों या यूरोपीय संघ की नीतियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। ये केवल यूरोपीय सांसदों के उन गुटों की राय का प्रतिनिधित्व करते हैं जो इन्हें रखना चाहते हैं।
बैट्टू हैनरिकसन के स्पष्टीकरण से मोदी सरकार को थोड़ी राहत ज़रूर मिली होगी। लेकिन यह काफ़ी नहीं है। यह सही है कि यूरोपीय संसद में पारित होने वाले निंदा प्रस्ताव यूरोपीय संघ के सदस्य देशों की नीतियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते और न ही उनकी कोई बाध्यता है। लेकिन ऐसे प्रस्तावों से और इतनी बड़ी संख्या में एक साथ आने वाले प्रस्तावों से छवि ज़रूर धूमिल होती है। वो भी ऐसे समय जबकि कश्मीर के पुनर्गठन और नागरिकता संशोधन कानून को लेकर चारों ओर निंदा का माहौल हो और प्रधानमंत्री को अगले दो महीने के भीतर शिखर बैठक के लिए यूरोप आना हो। यूरोपीय संघ के 28 देश भारत के सबसे बड़े व्यापार साझीदार हैं और भारत को अपनी धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए अपने निर्यात और निवेश बढ़ाने हैं। और उसके लिए इस समय यूरोपीय संघ के साथ व्यापक व्यापार संधि की सख़्त ज़रूरत है।
इसका मतलब यह नहीं है कि यूरोपीय संघ के जर्मनी, फ़्रांस, बेल्जियम और इटली जैसे प्रमुख देश CAA या कश्मीर की भारत नीतियों को लेकर किसी व्यापार सौदे से पीछे हट जाएंगे। फिर भी, छीछालेदार के माहौल से देश की सौदेबाज़ी की ताकत थोड़ा कमज़ोर पड़ती है। आप सब को शायद याद होगा कि इसी यूरोपीय संसद ने दो साल पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सात इस्लामी देशों से आने वाले यात्रियों पर पाबंदी की नीतियों की कड़ी निंदा का प्रस्ताव पारित किया था। फ़िलस्तीनियों और लेबनानियों के ख़िलाफ़ इजराइल की नीतियों को लेकर यही संसद ढेरों प्रस्ताव पारित कर चुकी है जिनका कभी कोई असर नहीं हुआ।
यूरोपीय संसद इसके 28 सदस्य देशों से चुन कर आने वाले 751 यूरोपीय सांसदों से बनी है जिनका काम यूरोप और दुनिया के ज्वलंत मुद्दों को उठाना और यूरोपीय संघ की नीतियों को दिशा देने की कोशिश करना है। लेकिन इनकी आवाज़ केवल माहौल बनाने का काम करती है। असली ताकत यूरोपीय परिषद के पास है जिसके सदस्य यूरोपीय देशों के नेता होते हैं, या फिर यूरोपीय आयोग के पास, जो नीतियों का क्रियान्वयन करता है।
मोदी सरकार को सबसे बड़ी चिंता इस बात से होनी चाहिए कि यूरोपीय संसद में रखे जाने वाले छह के छह निंदा प्रस्तावों की भाषा कमोबेश यही साबित करती है कि विदेशी समाचार माध्यमों की तरह यूरोपीय सांसद भी CAA और NRC और कश्मीर के पुनर्गठन को आलोचकों की नज़र से ही देखते हैं, मोदी सरकार की नज़र से नहीं। अब यह मोदी सरकार की विदेश नीति और कूटनीति दोनों की ही एक तरह की जय है या पराजय यह बात मैं आप पर छोड़ता हूं।
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