…तो पल भर में हवा हो जाएगा तालाबंदी का सारा फायदा

स्वीडन को छोड़ कर दुनिया के लगभग सभी देशों ने लॉकडाउन या तालाबंदी का सहारा लिया जो सात सौ साल पहले प्लेग की रोकथाम के लिए अपनाई गई थी। लेकिन लोगों और उनके कारोबारों को अनिश्चित काल तक तालेबंदी में नहीं रखा जा सकता।

Covid-19, coronavirus

भारत समेत दुनिया भर में लॉकडाउन में आंशिक ढील।

सार्स कोवी-2 वायरस और उससे फैलने वाली बीमारी कोविड-19 की रोकथाम करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। क्योंकि यह वायरस एकदम नया था और किसी को इसके स्वभाव और रोकथाम के सही उपायों की जानकारी नहीं थी। इसलिए स्वीडन को छोड़ कर दुनिया के लगभग सभी देशों ने लॉकडाउन या तालाबंदी का सहारा लिया जो सात सौ साल पहले प्लेग की रोकथाम के लिए अपनाई गई थी। लेकिन लोगों और उनके कारोबारों को अनिश्चित काल तक तालेबंदी में नहीं रखा जा सकता। इसलिए आज से अमेरिका के 50 में से 32 राज्य तालाबंदी के नियमों में आंशिक ढील दे रहे हैं। इटली, स्पेन और स्विट्ज़रलैंड में पिछले ही सप्ताह से चीज़ें खोली जाने लगी हैं। ब्रिटेन में भी अगले कुछ दिनों के भीतर ढील दिए जाने की उम्मीद है।

लेकिन वायरस की रोकथाम के लिए लगाई गई तालाबंदी को खोलना सरकारों के लिए उसे लागू करने से भी बड़ी चुनौती साबित होने वाला है। क्योंकि सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए देशों में वायरस के फैलने की रफ़्तार भले ही धीमी पड़ गई हो, लेकिन वायरस का ख़ात्मा नहीं हुआ है। वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि नए रोगियों का पता लगाने वाले टेस्ट, रोगी पाए जाने वाले लोगों का जितने भी लोगों से संपर्क हुआ उनकी टोह और फिर रोगियों और उनके संपर्क में आए लोगों के इलाज और एकांतवास की व्यवस्था किए बिना पाबंदियों को खोलना वायरस की नई और पहले से भी प्रबल लहर को न्योता देना है। पिछले हफ़्ते तक अमेरिका में महामारी से हर रोज़ पर्ल हार्बर के हमले जितने लोग मर रहे थे। डर इस बात का है कि सोची समझी रणनीति के बिना तालाबंदी खोल देने से रोज़ का पर्ल हार्बर रोज़ के ग्यारह सितंबर में भी बदल सकता है। इसलिए अमेरिका ही नहीं भारत को भी इस ख़तरे को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए वरना तालाबंदी के ज़रिए हासिल हुए सारे फ़ायदे हवा हो सकते हैं।

वैसे भी, भारत में पांच हफ़्ते से भी लंबी तालाबंदी के कारण वायरस फैलने की रफ़्तार धीमी भले ही पड़ गई हो, लेकिन वह गिर नहीं रही है। बल्कि जिन देशों के बारे में अटकलें लगाई जा रही थीं कि वे वायरस की मार से बच गए हैं वहां भी वायरस फैलने लगा है। रूस, तुर्की, ब्रज़ील, पेरू, इंडोनेशिया, कनाडा और मैक्सिको की हालत पतली होती जा रही है। इसलिए वर्तमान आंकड़े देखकर ऐसे अनुमान लगाना कि अमुक देश किसी ख़ास जीन या मौसम की वजह से कोविड-19 की बीमारी बच गया है, एकदम भ्रामक है। रोगियों की संख्या और मरने वालों की संख्या के आधार पर देशों की तुलना करना और उनकी सरकारों की नीतियों के गुण-दोष परखना भी सही नहीं है। क्योंकि वायरस कितने लोगों को लग चुका है इसकी जानकारी केवल टेस्टों से मिल रही है और हर देश में प्रति लाख टेस्टों की संख्या उसकी सामर्थ्य के हिसाब से अलग-अलग है।

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अभी तक केवल उन्हीं लोगों के टेस्ट किए जा रहे हैं जो या तो बीमार हो चुके हैं, या बीमारों के संपर्क में रहे हैं या फिर जिन्हें वायरस लगने का संदेह है। इसलिए इन टेस्टों से मिले आंकड़ों से पूरी तस्वीर साफ़ नहीं होती। अमेरिका के स्टेनफ़र्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने इस वायरस को मारने के लिए लोगों के शरीरों में बनने वाले एंटीबॉडी का टेस्ट करके आम लोगों में वायरस के फैलाव की थाह लेने की कोशिश की थी। इसके लिए उन्होंने केलीफ़ोर्निया के सांता क्लेरा ज़िले को चुना और स्वेच्छा से आगे आए 3,330 लोगों के एंटीबॉडी टैस्ट किए। इनसे पता चला कि यह वायरस सांता क्लेरा के ढाई से सवा चार प्रतिशत लोगों में फैल चुका है। यदि आप इस आंकड़े का औसत निकाल कर यह मान लें कि यह वायरस कम से कम तीन प्रतिशत आम लोगों में फैल चुका है। तो अमेरिका में वायरस प्रभावित लोगों की संख्या एक करोड़ से ऊपर चली जाएगी।

यह आंकड़ा चौंकाने वाला लग सकता है। लेकिन इसके आधार पर भी हम यह अनुमान नहीं लगा सकते कि अगर रोकथाम न की जाए तो कोविड-19 की बीमारी कुल कितने लोगों में फैल सकती है। इसका अंदाज़ा तभी लग सकेगा जब रेंडम पद्धति से करोड़ों की संख्या में एंटीबॉडी टेस्ट कर लिए जाएंगे। तब तक हम इतना जानते हैं कि सार्स कोवी-2 इंसानों में फैले हुए वायरसों की उस प्रजाति का सबसे नया सदस्य है जो हमारे श्वास तंत्र पर वार करते हैं। अभी तक इस प्रजाति के छह वायरस थे जिनमें सार्स और मर्स की महामारी को फैलाने वाले वायरस शामिल हैं। सार्स कोवी-2 इस प्रजाति का सातवां वायरस है। इनमें से चार वायरस फ़्लू की बीमारी फैलाते हैं और दुनिया के लगभग सत्तर प्रतिशत लोगों को लग चुके हैं। इनको रोकने वाले टीकों से या सहज रूप बनने वाली इम्यूनिटी कुछ महीनों तक ही रहती है इसलिए हर साल टीके लगवाने पड़ते हैं।

इनसे ज़ुकाम, खांसी और बुख़ार के अलावा और कोई गंभीर बीमारी नहीं होती। इसीलिए ये इतने लोगों में फैले हैं। इनके मुकाबले सार्स और मर्स के वायरस बहुत ख़तरनाक़ थे। इसलिए वे कुछ हज़ार लोगों से ज़्यादा लोगों में नहीं फैल पाए। कोई वायरस जब जानलेवा बन जाता है तो उसके लगने से लोगों की हालत गंभीर हो जाती है। वे अस्पतालों में भर्ती कर दिए जाते हैं। लोगों से उनका मिलना-जुलना बंद हो जाता है और वायरस का फैलाव भी थम जाता है। इसके उलट जो वायरस गंभीर बीमारियां नहीं फैलाते, उनकी लोग परवाह नहीं करते और वायरस लोगों के मेल-जोल के साथ-साथ दूसरे लोगों में फैलता चला जाता है। मौसमी इंन्फ़्लुएंज़ा या फ़्लू के वायरस उसी श्रेणी में आते हैं।

Corona की रफ्तार धीमी हुई है, पर धार वही है

कोविड-19 की बीमारी फैलाने वाला सार्स वायरस फ़्लू के वायरस से ज़्यादा और सार्स की महामारी फैलाने वाले वायरस से कम घातक है। ऊपर से यह शुरू के आठ-दस दिनों में कोई परेशानी नहीं करता। इसलिए इसका शिकार होने के बाद रोगी अनजाने में इसे दूसरों तक फैलाता चला जाता है। जब फेंफड़ों में इसका प्रकोप बढ़ने लगता है तब हमारा शरीर उसे रोकने के लिए बेकाबू होकर मारक कोशिकाओं की बरसात करने लगता है। इससे फेंफड़े बंद हो जाते हैं। सांस लेना दूभर होने लगता है और वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती। कुछ लोगों के ख़ून में थक्के जमने लगते हैं और धमनियां रुंधने लगती हैं। इससे दिल के दौरे पड़ सकते हैं और दिमाग़ को मिलने वाले ख़ून की सप्लाई बंद होने से पक्षाघात भी होने लगते हैं। ख़ून की धमनियां रुंधने से जिगर और गुर्दों पर भी असर पड़ सकता है।

निचोड़ यह है कि कोविड-19 की महामारी का वायरस ज़ुकाम के वायरस की तरह आसानी से फैल भी सकता है और कुछ दिनों बाद सार्स महामारी के वायरस की तरह तेज़ी से मार भी सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और दूसरी कई रोग-विज्ञान संस्थाओं के मॉडलों के अनुसार कोविड-19 के वायरस के फैलने की क्षमता स्पेनी फ़्लू वायरस से भी ज़्यादा है जो 1917 से लेकर 1918 तक दुनिया के हर तीसरे व्यक्ति को लग चुका था और पचास लाख लोगों की जान ले ली थी। स्पेनी फ़्लू अमेरिका के केंटकी शहर की मुर्गियों से फैलना शुरू हुआ था और पहली लहर धीमी पड़ने के बाद सर्दियों के साथ उसकी दूसरी लहर भी आई थी जो पहली से ज़्यादा जानलेवा साबित हुई। तो यदि यह मान लें कि कोविड-19 के वायरस में भी स्पेनी फ़्लू की तरह ही फैलने की क्षमता है, तो यह कहा जा सकता है कि तालाबंदी और समाजिक दूरी जैसे उपायों के बिना यह भी दुनिया के हर तीसरे व्यक्ति को लग सकता है। यानी यह दुनिया के ढाई सौ करोड़ लोगों को लग सकता है जिनमें 45 करोड़ लोग भारत के होंगे और 12 करोड़ अमेरिका के।

वायरस का शिकार होने वाले और मरने वाले लोगों के अब तक के आंकड़ों के अनुसार कोविड-19 महामारी सारे उपायों के बावजूद से एक प्रतिशत लोग मर रहे हैं। इसका मतलब यह होगा कि दुनिया के ढाई करोड़ लोग मारे जा सकते हैं जिनमें से 45 लाख भारत के और 12 लाख अमेरिका के होंगे। अमेरिका के वैज्ञानिक कई बार बारह से बीस लाख लोगों के मरने की चेतावनी दे भी चुके हैं। लेकिन अमेरिका और भारत में ऐसे समझदार लेखकों और विश्लेषकों की एक पूरी फौज तैयार हो गई है जो लॉकडाउन यानी तालाबंदी और सामाजिक दूरी को ग़ैरज़रूरी तानाशाही फ़रमान बता कर सरकारों को आड़े हाथों ले रही है।

तेल की धार पर कोरोना की मार

उनकी दलील है कि कोविड-19 का हव्वा खड़ा किया गया है। ग़रीबों और कारोबारों का गला घोंटने वाले इन फ़रमानों को हटा कर केवल टैस्ट और टोह के ज़रिए बीमारी को काबू में लाना चाहिए। लेकिन जब अमीर से अमीर देशों की सरकारें भी अभी तक 20 से 40 टेस्ट प्रति हज़ार भी नहीं कर पा रहीं तो करोड़ों लोगों के टेस्ट कैसे और कहां से हो पाएंगे? भारत सरकार तो अभी तक प्रति हज़ार एक टेस्ट भी नहीं कर पा रही। तालाबंदी का एक सबसे बड़ा कारण स्वास्थ्य सेवा को चरमराने से बचाना भी है। एक साथ यदि लाखों लोग बीमार पड़ जाएं तो इस धरती पर कोई ऐसा देश नहीं है जिसके अस्पतालों में उनके लिए बिस्तर और डॉक्टर हों। सही है कि हर साल हज़ारों लोग तपेदिक और मलेरिया जैसी दूसरी बीमारियों और दुर्घटनाओं से भी मरते हैं। लेकिन एक तो इन बीमारियों से अचानक इतने सारे लोग बीमार नहीं होते जितने कोविड-19 से हो सकते हैं। दूसरे कोई भी सरकार बीमारी से बचाने की बजाय उसमें झोंकने की नीति पर तो नहीं चल सकती!

यह सही है कि लोग हफ़्तों लंबी तालाबंदी से उकता चुके हैं। कारोबार के बिना बदहाल हो चुके हैं। पर उसमें दोष तालाबंदी और सामाजिक दूरी का नहीं बल्कि ग़रीबों और कारोबारों के प्रति सरकारों की संवेदनशीलता की कमी का और कंजूसी का है। पहली बात तो सरकारों ने तालाबंदी और सामाजिक दूरी लागू करने और लोगों को उनकी आवश्यकता समझाने में टाल-मटोल की। जनवरी में जब चीन ने वूहान और हूबे में तालाबंदी कर ली, तब इटली और स्पेन खुले थे। इटली और स्पेन ने जब फ़रवरी के अंत में तालाबंदी की तब अमेरिका और भारत खुले थे। अमेरिका और भारत ने जब मार्च में तालाबंदी की तब रूस और ब्राज़ील खुले थे। भारत और अमेरिका को फ़रवरी के आरंभ में तालाबंदी कर लेनी चाहिए थी और भारत सरकार को तालाबंदी लागू करने से पहले अपने उन लाखों प्रवासी मज़दूरों और दिहाड़ी मज़दूरों के खाने-रहने की व्यवस्था करनी चाहिए थी जिन पर पाबंदियों की सबसे बुरी मार पड़नी थी।

अब तालाबंदी में ढील के साथ-साथ प्रवासी और दिहाड़ी मज़दूर हज़ारों की संख्या में इधर से उधर जा रहे हैं। भारत में वे अपने गांवों को लौट रहे हैं। इस्राइल, अरब देशों और लातीनी अमेरिकी देशों में वे काम पर लौट रहे हैं। उनके साथ-साथ वायरस भी नई जगहों और नए लोगों में फैल रहा है। अमेरिका में अपने नेता ट्रंप के उकसाए लोग धरने-प्रदर्शनों और बग़ावतों पर उतर आए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमेरिका के वायरस वैज्ञानिकों को भय है कि इस सब से स्पेनी फ़्लू की दूसरी लहर की तरह कोविड-19 की भी दूसरी लहर का सामान तैयार हो रहा है। यह तो तय है कि पाबंदियां खुल जाने पर वायरस एक बार फिर फैलेगा। लेकिन उससे कितने लोग बीमार पड़ेंगे और कितनों की हालत गंभीर होगी यह कह पाना मुश्किल है। यदि सरकारें टेस्ट और टोह के काम में दक्षिण कोरिया और न्यूज़ीलैंड जैसी मुस्तैदी से काम लें और वायरस प्रभावित लोगों का पता चलते ही उन्हें और उनके संपर्क में आने वालों का क्वारंटीन कर इलाज करने की व्यवस्था कर सकें तो महामारी पर काबू पाया भी जा सकता है।

डोनाल्ड ट्रंप को किस चीज से चाहिए आजादी?

लेकिन भारत जैसे देशों की समस्या यह है कि जब लोग सब के तालाबंद रहते हुए ही तालाबंदी के नियमों का पालन करने के लिए तैयार नहीं हुए तो तालाबंदी खुल जाने के बाद यदि वायरस प्रभावित पाए गए तो क्या फिर से क्वारंटीन में रहने के लिए तैयार होंगे? जो लोग हर किसी के बंद रहते डॉक्टरों, नर्सों और पुलिस वालों पर हमले कर रहे हैं वे दूसरों के खुला रहते ख़ुद कैसे बंद हो जाने को तैयार होंगे? और फिर वायरस प्रभावित लोगों के संपर्कों की टोह लगा पाना कितना मुमकिन होगा? अमेरिका की दो बड़ी टैक कंपनियों एपल और गूगल ने अपनी व्यावसायिक दुश्मनी भुलाते हुए मिल कर एक ऐसा API इंटरफ़ेस तैयार किया है जिससे आप वायरस प्रभावित लोगों और उनके संपर्क में आने वालों की टोह रखने वाला ऐप तैयार कर सकते हैं। यदि इस ऐप को सबके फ़ोनों पर डाउनलोड कर दिया जाए तो जब आप किसी वायरस प्रभावित इंसान के संपर्क में आने वाले हों तो आपको चेतावनी मिल जाती है। यही चेतावनी ऐप के द्वारा स्वास्थ्य नियंत्रण विभाग को भी चली जाती है। बबल नाम के इस ऐप का API बहुत जल्द सभी सरकारों और विभागों को दे दिया जाएगा।

दूसरी तरफ़ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी ग़लतियों पर परदा डालने के विश्व स्वास्थ्य संगठन और चीन को बलि का बकरा बनाने के लिए कमर कस ली है। अमेरिकी ख़ुफ़िया विभाग के एक गोपनीय डोसिए में आरोप लगाए गए हैं कि चीन ने शुरुआती दिनों में कोविड-19 महामारी की गंभीरता के बारे में दुनिया को अँधेरे में रखकर गंभीर अपराध किया है। इसके लिए चीन से हरजाने की मांग की जाएगी। ट्रंप के आर्थिक और व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ने कहा है कि चीन को दिसंबर और जनवरी में ही वायरस की गंभीरता का अंदाज़ा हो गया था। लेकिन उसने जान बूझ कर दुनिया को अंधेरे में रखा और वूहान से जाने वाली उड़ानों के ज़रिए बीमारी को पूरी दुनिया में फैलने दिया। ये वही पीटर नवारो हैं जिन्होंने 29 जनवरी को राष्ट्रपति ट्रंप को एक नोट भेज कर सचेत किया था कि यह वायरस आम ज़ुकाम के वायरस की तुलना में तीन से चार गुना तेज़ी से फैल रहा है। इसलिए यदि यह महामारी के रूप में फैल गया तो अमेरिका को तबाह कर सकता है।

लेकिन ट्रंप, पीटर नवारो से भी दो क़दम आगे जाकर यह आरोप लगा रहे हैं कि कोविड-19 का वायरस वूहान के मछली बाज़ार के जानवरों से नहीं बल्कि वूहान की उस वायरस प्रयोगशाला से फैला है जिसमें चमगादड़ों के सार्स जाति के वायरसों पर शोध हो रहा था। यह वायरस चीनी प्रयोगशाला में तैयार किया गया वायरस है इस धारणा पर अमेरिका के दक्षिणपंथी ट्रंप समर्थक समाचार माध्यमों में कई दिनों से चर्चा हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन इस अफ़वाह का कई बार खंडन कर चुका है। अमेरिका के सबसे बड़े वायरस वैज्ञानिक एंटनी फ़ाउची भी इसका खंडन कर चुके हैं। पर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है। ट्रंप को चुनाव के लिए एक दुश्मन की तलाश है। वायरस पर कोई ज़ोर नहीं चल रहा है। इसलिए चीन से बेहतर और कौन हो सकता है। दिलचस्प बात यह है कि चीन की वूहान प्रयोगशाला में फ़्रांस भी साझीदार है। लेकिन उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है!

चीन की इस हरकत के चलते दुनिया भर में फैला Corona Virus

सब जानते हैं कि चीन को कुछ हफ़्ते तो यही समझने में लगे होंगे कि अचानक भयानक निमोनिया से बीमार पड़ने वाले रोगी फ़्लू की ही किसी बदली हुई घातक प्रजाति की बजाय किसी नए वायरस का शिकार बन गए हैं। इस नए वायरस की जीन संरचना की पहचान करने में भी एक-दो हफ़्ते लगे। 11 जनवरी तक नए वायरस का जीनोम तैयार हो चुका था और चीन ने उसे विश्व स्वास्थ्य संगठन को दे दिया था ताकि वायरस की जांच करने के लिए नए टैस्ट का विकास किया जा सके। लेकिन चीन 22 जनवरी तक यही कहता रहा कि वायरस के इंसान से इंसान में नहीं फैल रहा। जानवरों से इंसानों में फैला है। लेकिन वूहान का मछली बाज़ार तो पहले ही सील कर दिया गया था और वायरस फैल रहा था। फिर भी चीन ने दुनिया को यह क्यों नहीं बताया कि वायरस इंसानों से इंसानों में फैलने लगा है और महामारी बन सकता है। इसका जवाब चीन ही दे सकता है।

लेकिन अभी तक इस बात का किसी के पास कोई प्रमाण नहीं है कि वायरस वूहान के मछली बाज़ार से नहीं बल्कि प्रयोगशाला से फैला था। लेकिन उससे क्या फ़र्क पड़ता है। ट्रंप साहब पूछते हैं कि चीन ने वायरस का पता चलते ही अपनी हवाई सेवाएं बंद क्यों नहीं कीं। वायरस प्रभावित चीनियों को अमेरिका और दूसरे देशों के शहरों में क्यों जाने दिया। यह बात दीगर है कि अमेरिका और ब्रिटेन के हवाई अड्डों पर बाहर से आने वाली इक्की-दुक्की उड़ानों से आने वाले यात्रियों को आज भी क्वारंटीन नहीं किया जाता और न ही उनका वायरस टेस्ट लिया जाता है। रही चीन से हरजाना वसूल करने की बात, तो कैसे करेंगे? व्यापार प्रतिबंध लगाएंगे तो उनका नुक़सान भी चीन से पहले अमेरिका और बाकी दुनिया को भुगतना पड़ेगा। प्रतिबंध लगाना तो दूर की बात है चीन को कोसने भर से ही वे बाज़ार गोता खाने लगे हैं जिनका चढ़ना चुनावी जीत के लिए ज़रूरी है। पर उससे क्या फ़र्क पड़ता है!

विश्व स्वास्थ्य संगठन से शिकायत है कि उसने जनवरी में उड़ाने रोकने की सलाह क्यों नहीं दी और यह भी कि उसने क्यों नहीं बताया कि यह वायरस इंसान से इंसान में फैल रहा है और महामारी बनने वाला है। अब यह दीगर बात है कि इसी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जब 2012 में मर्स वायरस को महामारी घोषित कर दिया था तब उसे इस बात के लिए तलब किया गया था कि उसने मर्स को महामारी क्यों बनाया। क्योंकि मर्स कुछ ही लोगों में फैल कर रह गया। महामारी की घोषणा से कई उड़ान कंपनियों और कारोबारों को उनका व्यापार रुकने से घाटा उठाना पड़ा। तो दोष विश्व स्वास्थ्य संगठन का। इस बार विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दूध के जले की कहावत पर चलते हुए कोविड-19 की घातकता देखने के बाद उसे महामारी घोषित किया। पर उससे क्या फ़र्क पड़ता है!

एक दीप खुद के लिए भी जला ही लीजिए!

विश्व स्वास्थ्य संगठन एक बड़ी संस्था ज़रूर है, लगभग दो सौ देश उसके सदस्य हैं। लेकिन उसे अपने लगभग तीन सौ करोड़ डॉलर के बजट में सभी सदस्य देशों की स्वास्थ्य सेवाओं पर नज़र रखनी पड़ती है और ज़रूरत पड़ने पर मदद भी करनी पड़ती है। वह कोई पुलिस या सेना नहीं है। उसके पास ऐसे अधिकार नहीं हैं कि वह सदस्य देश की सरकारों से जबरन सूचना या सच उगलवा ले। बीस साल पहले बीबीसी के कुष्ठ रोग उन्मूलन अभियान की तैयारी में मेरा पाला दिल्ली स्थित विश्व स्वास्थ्य संगठन के अधिकारियों से पड़ चुका है। भारत सरकार की कुष्ठ रोग नीति के बारे में बोलने से पहले उन्हें चार बार स्वास्थ्य विभाग से बात करनी पड़ती थी।

बात साफ़ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन हो, पर्यावरण संगठन हो या मानवाधिकार संगठन, संयुक्त राष्ट्र की इन संस्थाओं को अधिकार और उनका प्रयोग करने की ताकत सदस्य देशों से ही मिलती है। यदि आप बात-बात पर खुले मंच पर फटकार लगाने और चंदा बंद करने की धमकियां देंगे तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के लोगों के पास चीन से या आपसे किसी वायरस या महामारी का सच निकलवाने की हिम्मत कहां से आएगी। वैसे भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास न कोई प्रयोगशाला है और न ही अपनी अनुसंधानशाला। एक-एक दवा और बीमारी के स्वभाव की खोज में कंपनियां विश्व स्वास्थ्य संगठन के बजट से कई गुना ख़र्च करती हैं। पर उससे क्या फर्क पड़ता है!

इसी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2005 की अपनी महामारी रिपोर्ट में सदस्य देशों से अनुरोध किया था कि वे विश्व स्वास्थ्य संगठन को बीमारियों की सीधी रिपोर्ट देने और महामारियों की रोकथाम के लिए मिलजुल कर काम करने की व्यवस्था कायम करें। पिछले सितंबर में ही, इस महामारी के फैलने से तीन महीने पहले इसी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सार्स के किसी नए वायरस के महामारी बनकर फैलने की चेतावनी दी थी। अमेरिका की संसद के दोनों सदनों में हर साल रणनीतिक चुनौतियों की चर्चा के दौरान सार्स जैसी महामारी के फैलने के ख़तरे और उनका सामना करने के लिए तैयारी की बातें की जाती हैं। अमेरिका की ही जासूसी संस्थाएं लगातार पिछले कई सालों से वायरस युद्धों और महामारियों की चेतावनी देती आ रही हैं। लेकिन उससे क्या फ़र्क पड़ता है! ट्रंप साहब ने कह दिया ग़लती चीन और विश्व स्वास्थ्य संगठन की है, तो है!

Corona Virus का कहर और Trump का गणित

बुश ने कहा था कि इराक के पास संहारक अस्त्र हैं, तो थे। नहीं मिले इससे क्या फ़र्क पड़ता है! सद्दाम हुसैन तो नहीं रहे और चुनावों में फ़ायदा हो गया। आज यूरोपीय संघ के नेता एक बैठक करेंगे जिसमें कोविड-19 की रोकथाम के लिए टेस्ट और टीकों का विकास करने और उन्हें दुनिया भर में सुलभ कराने के लिए पैसा जमा करने का प्रयास होगा। लेकिन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते विश्व स्वास्थ्य संगठन में सबसे ज़्यादा चंदा देने वाला अमेरिका न पिछली बैठक में था न आज की बैठक में है।

इसका संकेत साफ़ है। बाकी देशों की कोशिश है कि जब भी टीका बने हर देश को पर्याप्त मात्रा में सस्ते दामों पर मिल सके। ट्रंप साहब चाहते हैं कि टीका सबसे पहले अमेरिकियों को मिले। होगा यह कि टीके को लेकर बोलियां लगेंगी। जिसके पास धनबल होगा पहले टीका उसे मिलेगा। हो सकता है इस दौड़ में चीन अमेरिका से पहले टीका बना ले जाए। अगर ऐसा हुआ तो आग में घी और गिर जाएगा। हो सकता है ट्रंप साहब यह कह उठें, देखिए पहले बीमारी फैला दी अब टीका बेच कर मुनाफ़ा भी कमा रहे हैं। यूरोप और अमेरिका में जब मास्क. गाउन और फ़ेश शील्ड जैसे बचाव के सामान की कमी हुई तो चीन से विमानों में लाद कर मंगवाया गया। तब भी यही कहा गया था। अब बात दोहराई भी जा रही हो तो उससे क्या फ़र्क पड़ता है!

वहशत रज़ा अली कलकली का शेर हैः

बज़्म में उस बे-मुरव्वत की मुझे,

देखना पड़ता है क्या-कया देखिए।

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