Corona के ताप से बच गए तो मंदी मार देगी!

भारत अगर अपने यहां फैलते संक्रमण की रोकथाम में कामयाब हो जाए तो बदले हुए हालात में भारतीय कंपनियों को यूरोप और अमेरिका में पांव पसारने के अवसर भी मिल सकते हैं।

Corona Virus, Covid-19

वैश्किव अर्थव्यवस्था में विकास की बजाय 2.2 प्रतिशत गिरावट की आशंका।

शहरयार साहब का शेर हैः

अब जी बहलाने की है एक यही सूरत,

बीती हुई कुछ बातें हम याद करें फिर से…

चंद रोज़ पहले की तो बात है, जो पसीना गुलाब था। हल्की सर्दियों और थमने का नाम न लेने वाली बारिशों के बाद कुदरत वसन्त की तैयारियां कर रही थी। अर्थव्यवस्थाएं उठान पर थीं। सर्दियों की सैरगाह दावोस में दुनिया की अच्छी विकास दर के अंदाज़े लगाए जा रहे थे। बैंकों-बाज़ारों, दफ़्तरों-रेस्तराओं में रौनक थी। कोई ओलंपिक की तैयारियों में लगा था, कोई यूरो 2020 की। कहीं आईपीएल की तैयारियां चल रही थीं तो कोई T20 विश्वकप की राह देख रहा था। बाज़ारों में उछाल था और ट्रंप साहब को लगता था कि जीत उनकी मुट्ठी में है। तभी वूहान के मछली बाज़ार में ख़ून-चर्बी-आंत और पिघलती बर्फ़ की कीचड़ के माहौल में मरने-कटने से पहले सांस के लिए फड़फड़ाते जानवरों की सांसों में, पल और बदल कर इंसान में दाख़िल हुए, एकदम नए Corona वायरस Covid-19 ने सारा सीन बदल कर रख दिया।

अब न बैंक हैं न बाज़ार हैं। जहाज़ हैं न हवाई जहाज़। खेल हैं न खलिहान। सिनेमा हैं न रंगमंच। सड़कें, पार्क, सैरगाहें, सागर-तट, झीलें-पहाड़ सब सुनसान हैं। घरों में बंद लोगों को महानगरों में भी तारे नज़र आने लगे हैं। निजी आज़ादी को समाज में सर्वोपरि मानने वाले अमेरिका के महानगर न्यूयॉर्क के हालात इतने ख़राब हो गए हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप को सेना बुलानी पड़ी है ताकि लोग घरों से बाहर न निकलें। इटली और स्पेन में सेना का काम शवों को अस्पतालों से कब्रिस्तानों तक पहुंचाना बन गया है। ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन को हालत न सुधरने के कारण अस्पताल में भर्ती होना पड़ा है और उनकी गर्भवती पार्टनर भी वायरस के लक्षणों की शिकायत कर रही हैं। महारानी को देश के नाम संदेश देने आना पड़ा है। वे क्रिसमस पर या बड़े संकट के वक़्त ही संदेश देने आती हैं।

गुणात्मक रफ़्तार से फैलते वायरस से दुनिया के 13 लाख से अधिक लोग बीमार हो चुके हैं और 70 हज़ार से ज़्यादा की मौत हो चुकी है। मार्च का महीना शुरू होने तक चीन सबसे बुरी तरह प्रभावित था। एक महीने के भीतर सीन पूरी तरह बदल चुका है। चीन ने रोग के फैलाव की रोकथाम करीब-करीब कर ली है। लेकिन अमेरिका में रोगियों की संख्या चीन से चार गुना और इटली और स्पेन में डेढ़-डेढ़ गुना हो चुकी है। जर्मनी और फ़्रांस भी रोगियों की संख्या में चीन को पार कर चुके हैं। जापान में भी रोगियों की संख्या बढ़ने लगी है।

अगर मरने वालों की संख्या की बात करें तो इटली सबसे आगे है। इटली में सोलह हज़ार, यानी चीन से पांच गुना, स्पेन में चीन से चार गुना, अमेरिका में तीन गुना, फ़्रांस में ढाई गुना, ब्रिटन में डेढ़ गुना और ईरान में चीन से ज़्यादा लोग मर चुके हैं। इन सारे देशों में कुल मिलाकर उतनी आबादी नहीं है जितनी अकेले चीन में है। इसलिए, प्रति व्यक्ति के हिसाब से आंकें तो अमेरिका और यूरोप के देशों में चीन के मुकाबले दस से बीस गुना लोग बीमार पड़ चुके हैं और चालीस से पचास गुना मर चुके हैं। मरने वालों में भले ही साठ से ऊपर की उम्र वाले बुज़ुर्गों की संख्या अधिक हो, लेकिन बीमार होने वालों में पचास से कम उम्र के लोगों की संख्या अधिक है। मरने वालों में कुछ हफ़्ते के नवजात शिशुओं से लेकर किशोरों और वयस्कों की भी बड़ी संख्या है इसलिए यह धारणा सही नहीं है कि यह वायरस बच्चों, किशोरों और युवाओं के लिए घातक नहीं है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी निरंतर मिल रहे नए आंकड़ों के साथ-साथ रोग के बारे में अपनी सलाह को बदलना पड़ रहा है। मसलन, कुछ दिनों पहले तक कहा गया था कि Corona वायरस रोगी की खांसी, छींक, हाथ के स्पर्श से और रोगी द्वारा छुई गई चीज़ों और सतहों को छूने से फैलता है। परसों के एक शोध से पता चला कि यह रोगी की सांस और बातचीत के दौरान मुंह से निकलने वाली भाप के ज़रिए भी फैल सकता है। इसलिए अब लोगों को सलाह दी जा रही है कि वे मुंह पर मास्क लगाकर या कपड़ा बांध कर ही घरों से निकलें। कपड़े के दस्ताने पहन कर निकलना और घर आकर कम से कम बीस सेकेंड तक साबुन से हाथ धोना भी बचाव के लिए ज़रूरी माना जा रहा है।

सुनें पूरी समीक्षाः

वैज्ञानिकों के बीच इस बात पर तो आम राय है कि किसी को Corona वायरस लगने के बाद वह संक्रामक बन जाता है यानी रोग को दूसरों में फैलाने लगता है। लेकिन अभी तक इसकी जानकारी नहीं है कि वायरस लगने के कितने दिनों बाद रोगी पूरी तरह संक्रामक बनता है। वायरस लगने के बाद खांसी और बुख़ार होने में पांच से दस दिन लगते हैं। विशेषज्ञों की राय है कि वायरस लगने के दो-तीन दिनों के भीतर ही रोगी संक्रामक होने लगता है, यानी उस रोगी को छूने या रोगी द्वारा छुई गई चीज़ों को छूने वालों और उस रोगी के साथ उठने-बैठने वालों में वायरस फैलने लगता है। खांसी-बुख़ार के लक्षण पैदा होने के बाद रोगी पूरी तरह संक्रामक हो जाता है और उस हालत में उसके आस-पास रहना रोग को न्योता देना है।

अब सवाल उठना स्वाभाविक है कि यूरोप के देशों और अमेरिका की हालत चीन की तुलना में बदतर क्यों होती जा रही है। अमेरिका के बारे में आप कह सकते हैं कि अमीर देश होने के बावजूद वहां की स्वास्थ्य सेवा जनसाधारण के लिए बहुत अच्छी नहीं है। लेकिन इटली, फ़्रांस और जर्मनी जैसे यूरोपीय देशों की स्वास्थ्य सेवाएं विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर दुनिया के लगभग सभी मानकों पर पहले दस स्थानों में गिनी जाती हैं। ब्रिटेन और स्पेन की स्वास्थ्य सेवाएं भी काफ़ी अच्छी हैं। कम से कम चीन की तुलना में तो सभी यूरोपीय देशों और अमेरिका की स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर माना जाता है। फिर भी यहां के हालात चीन से दस गुना ख़राब क्यों हो गए हैं।

इसका पहला और सीधा सा कारण तो यह है कि जब तक कोई टीका नहीं बन जाता तब तक Corona वायरस एक असाध्य रोग है। स्वास्थ्य सुविधा या सेवा के इस रोग के लिए कोई माने नहीं हैं। पहली बात तो रोगियों को घर पर रहकर पैरासीटामोल जैसी बुख़ार कम करने की गोलियां खाने और गले को गरम पेय से साफ़ और नम रखने की सलाह दी जाती है। अगर आपको सांस लेने में कठिनाई होने लगे तो अस्पताल ले जाकर आईसीयू वार्ड में दाख़िल करा दिया जाता है। वहां वेंटिलेटर और दवाएं आपके शरीर को वायरस से लड़ने के लिए दो-चार दिन और दे देती हैं। लेकिन लड़ना आपके शरीर को ही है। अगर वह जीत गया तो आप बच जाते हैं, नहीं तो कहानी ख़त्म। इसलिए आपके देश की स्वास्थ्य सेवा दुनिया में कौन से नंबर पर है इसका इस बीमारी में कोई महत्व नहीं है।

तो फिर चीन के मुकाबले बुरे हाल क्यों हैं? इसका जवाब सरकारों की सूझबूझ और लोगों के अपने व्यवहार में छिपा है। आप जानते ही हैं कि वायरस का फैलाव चीनी प्रांत हूबे की राजधानी वूहान की वेट मार्केट यानी मछली बाज़ार से शुरू हुआ था। पहले दो-तीन हफ़्ते तो वूहान के स्वास्थ्य विभाग को यह समझने में लग गए कि यह बीमारी कोई आम बीमारी नहीं है क्योंकि रोगी निमोनिया की किसी दवा से ठीक नहीं हो रहे थे। बाद के दो-तीन हफ़्ते शहरी, प्रांतीय और केंद्रीय सरकारों के बीच चले आरोप-प्रत्यारोपों और रणनीति बनाने में निकल गए। चीनी नए साल का अवसर भी था। लाखों चीनी इधर-से उधर आ-जा रहे थे। इस सारे झमेले में वायरस मछली बाज़ार से सारे वूहान शहर और हूबे प्रांत में फैल चुका था।

आधी जनवरी बीतते-बीतते चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को समझ आ गया था कि इस बीमारी से देश को और अर्थव्यवस्था को बचाना है तो हूबे को बाकी चीन से काटना होगा। पहले वूहान और फिर पूरे हूबे प्रांत की तालाबंदी की गई और 23 जनवरी को हवाई यातायात भी बंद कर दिया गया। उसके बाद पूरे देश के स्वास्थ्य कर्मचारियों और सेना को हूबे के लोगों को सख़्त तालेबंदी में रखने, टेस्ट करके रोगियों का पता लगाने और उन्हें एकांतवास में रखने और बीमारों की देखभाल करने में झोंक दिया गया। इन सारे उपायों से चीन के बाकी हिस्से बीमारी से बचे रहे, फ़रवरी के बाद हूबे में रोग का फैलाव धीमा पड़ने लगा और मार्च के मध्य तक आते-आते फैलाव रुक गया लेकिन मरने वालों का सिलसिला मार्च के अंत में जाकर थमा।

यूरोप के देश और अमेरिका यह सब देख रहे थे। लेकिन लोकतंत्र और निजी आज़ादी की आदी सरकारों से दो जगह भारी चूक हुई। एक तो वायरस का फैलाव रोकने के लिए उन्होंने हवाई यातायात को बंद करने और बाहर से आने वालों के लिए सीमाएं सील करने में ढील बरती। दूसरे जहां-जहां वायरस के पहले रोगियों का पता चला उन इलाकों की तत्काल चीन जैसी तालेबंदी नहीं की। लंदन में आज भी भूमिगत मेट्रो चल रही है। बसें भी चलती हैं। स्वीडन में रेस्तरां, बाज़ार, दफ़्तर सब खुले हैं। अमेरिका में न्यूयॉर्क का हाल चीन से बदतर हो चुका है लेकिन पूरी तरह तालेबंदी नहीं है। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप अब भी तरह-तरह की बातें करते हैं। कभी कहते हैं कि एक से दो लाख लोगों की मौत के लिए तैयार हो जाओ। कभी कहते हैं ईस्टर के त्योहार पर चर्च जाना कैसे बंद कर सकते हो। इसलिए फ़ासला रखते हुए चर्च जाओ। कभी सेना को मदद के लिए बुला लेते हैं। कभी कहते हैं कि वायरस के आतंक में लोग जीना कैसे छोड़ दें।

मुश्किल यह है कि बाहर वायरस भी आपका जीना छुड़वाने के लिए तुला हुआ है। यह एक ऐसी महामारी है कि जिसका बचाव भी आपका विनाश कर सकता है। रोग के लाइलाज होने की वजह से सामाजिक दूरी और एकांतवास के सिवा इसका और कोई शर्तिया इलाज है नहीं और एकांतवास का मतलब है अपनी आजीविका से हाथ धो बैठना जिसका मतलब पहले व्यक्ति का अपना आर्थिक विनाश है और फिर देश और दुनिया का सर्वनाश। इसीलिए टेस्ट करो और क्वारंटीन करो की रट लगाई जा रही है ताकि जहां-जहां वायरस फैला हो उन हिस्सों को बंद करके बाकी देश और व्यवस्था को चालू रखा जा सके। चीन और दक्षिण कोरिया ने यह करके दिखाया भी है। लेकिन अगर ध्यान से देखें तो चीन में वायरस हूबे प्रांत में फैला था। उसे बंद करने के बाद भी चीन अपने बेजिंग, शंघाई, ग्वांगजू और शेनजेन जैसे औद्योगिक केंद्रों के ज़रिए अर्थव्यवस्था को चालू रख पाया। दक्षिण कोरिया के भी मुख्य औद्योगिक केंद्र वायरस से बचे रहे। दक्षिणपूर्वी शहर देगू सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ था।

यूरोप और अमेरिका के उन शहरों और प्रांतों में वायरस फैला जो औद्योगिक और व्यावसायिक केंद्र होने की वजह से चीन के साथ संपर्क में रहे। जैसे इटली का उत्तरी लोम्बार्डी क्षेत्र देश का प्रमुख व्यावसायिक और औद्योगिक क्षेत्र है। स्पेन में राजधानी मैड्रिड के आस-पास का क्षेत्र, जर्मनी में फ़्रैंकफ़र्ट, ब्रिटेन में लंदन और मध्य इंग्लैंड के शहर, अमेरिका में न्यूयॉर्क, पूर्वोत्तरी वॉशिंगटन राज्य जिसमें सियाटल शहर पड़ता है, कारों का शहर डेट्रॉएट, केलीफ़ोर्निया और न्यू ऑर्लीन्स। इन सभी की तालाबंदी करने का मतलब होता देश की अर्थव्यवस्था पर ताला लगाना। लेकिन तब भी ये सरकारें चाहतीं तो जहां-जहां वायरस का पता चलता वहां तत्काल चीन की तरह तालाबंदी करके बाकी देश को खुला रख सकती थीं।

लेकिन केवल क्षेत्रीय तालाबंदी से भी रोकथाम संभव नहीं थी। तालाबंदी के साथ-साथ बड़े पैमाने पर लोगों का टेस्ट करने और उनके फ़ोनों के ज़रिए उनके आने-जाने पर नज़र रखने की ज़रूरत थी। जो दक्षिण कोरिया ने किया और उसे रोकथाम में काफ़ी कामयाबी मिली। जर्मनी ने भी बड़े पैमाने पर टेस्ट और क्वारंटीन की नीति अपनाई लेकिन तालाबंदी नहीं कर पाए। इसलिए रोगियों की संख्या तो चीन को पार कर गई लेकिन मरने वालों की संख्या पर अंकुश लगा रहा। इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि जर्मनी में वायरस फैलने की शुरुआत आल्प्स के ग्लेशियरों पर स्की करने गए लोगों से हुई जो युवा और स्वस्थ थे। बुज़ुर्गों को बहुत जल्दी एकांतवास में भेज दिया गया इसलिए वे संक्रमण से बचे रहे।

तो सौ बातों की बात यह है कि जब तक इस बीमारी का टीका नहीं बन जाता, तब तक सरकारों को मुस्तैदी से काम करते हुए जहां-जहां वायरस का पता चले उन इलाकों को कड़ाई से क्वारंटीन करना होगा। वायरस का पता टेस्ट के बिना नहीं चल सकता। इसलिए बड़े पैमाने पर लोगों का टेस्ट करना ज़रूरी है। लोगों का भी यह फ़र्ज़ है कि सरकारों पर भरोसा करें और टेस्ट कराने से न भागें। स्वास्थ्य कर्मचारी अपनी जान जोखिम में डाल कर टेस्ट करने आते हैं इसलिए उनपर पथराव करने और थूकने जैसी आपराधिक हरकतें बंद करें। इटली और स्पेन में मिलाकर Corona वायरस से एक हज़ार स्वास्थ्य कर्मियों की मौत हो चुकी है जिनमें से सौ के आसपास डॉक्टर हैं और सैंकड़ों नर्सें हैं। ब्रिटेन में हर चार में से एक डॉक्टर या तो बीमार हो गया है या बीमारी की छुट्टी पर है। हज़मत गाऊन और रेस्पिरेटरी मास्क के अभाव में नर्सें कूड़दानों में लगने वाले प्लास्टिक बैग पहन कर और कपड़े के मास्क लगाकर मरीज़ों की देखभाल कर रही हैं। लोगों के टेस्ट तो दूर डॉक्टरों और नर्सों तक के टेस्ट नहीं हो पाए हैं। उन्हें यह पता नहीं है कि वे वायरस से बीमार हैं या वैसे सर्दी ज़ुकाम है।

समस्या यह है कि न सरकारों के पास इतने बड़े पैमाने पर टेस्ट कराने की क्षमता है और न ही निजी अस्पतालों के पास। टेस्ट भी कई तरह के हैं। शरीर में वायरस का पता लगाने वाले PCR टेस्ट, एंटीबॉडी का पता लगाने वाले एंटीबॉडी टेस्ट और बायोलॉजिकल मार्कर के ज़रिए वायरस का पता लगाने वाले लेटरल फ़्लो टेस्ट। हर टेस्ट के अपने-अपने फ़ायदे और लक्ष्य हैं। अभी तक जो टेस्ट किए जा रहे हैं वे PCR टेस्ट हैं जिनके लिए एक प्रयोगशाला की ज़रूरत होती है ताकि गले की लार के नमूने कंटैमिनेट न हों। इनके नतीजे मिलने में तीन-चार दिन लग जाते हैं और ये महंगे भी हैं। किसी देश के पास इतनी प्रयोगशालाएं और टेस्ट कर्मचारी नहीं हैं जो लाखों लोगों के टेस्ट कर सकें।

इसलिए आसान और जल्दी विकल्प के तौर पर एंटीबॉडी टैस्टों के विकास की कोशिश चल रही है और कई कंपनियों ने इनके किट बना भी दिए हैं। ये Corona वायरस से लड़ने के लिए शरीर में बने एंटीबॉडी की खोज करते हैं और 5 से 15 मिनट के भीतर नतीजा दिखा देते हैं। लेकिन समस्या यह है कि वायरस लगने के बाद शरीर में एंटीबॉडी बनने में औसतन दस दिन लग जाते हैं। इन दस दिनों के दौरान एंटीबॉटी टेस्ट के नतीजे नेगेटिव आते हैं जो भ्रांति फैला सकते हैं। एंटीबॉडी टैस्ट उन लोगों के लिए उपयोगी हो सकते हैं जिन्हें काम पर भेजने की योजना बनाई जा रही हो। क्योंकि अगर शरीर में एंटीबॉडी मिलते हैं तो उसका मतलब है कि शरीर Corona वायरस से लड़ने में सक्षम हो चुका है और व्यक्ति काम पर लौट सकता है। लेकिन अगर यह पता लगाना हो कि किसी को Corona वायरस है या नहीं, तो एंटीबॉडी टेस्ट काम का नहीं है।

इसलिए कुछ कंपनियां नैनो टेक्नॉलोजी से ऐसा टैस्ट तैयार करने की कोशिश कर रही हैं जो काम एंटीबॉडी टेस्ट की तरह करे लेकिन खोज वायरस की करे। ये टेस्ट वायरस के बायोलॉजिकल मार्कर के ज़रिए उसका पता लगाते हैं और 5 से 15 मिनट के भीतर वायरस का पता लगा सकते हैं। इस टेस्ट के लिए लार के साथ-साथ पेशाब, ख़ून, पसीना और सीरम जैसे किसी भी शारीरिक द्रव का प्रयोग किया जा सकता है। यूरोप के देशों, अमेरिका और भारत को इस तरह के टेस्टों की करोड़ों के पैमाने पर ज़रूरत है। क्योंकि जबतक टीका नहीं बन जाता तब तक वायरस के आतंक से पूरी दुनिया को बंद तो रखा नहीं जा सकता। मौजूदा फैलाव की रोकथाम के बाद धीरे-धीरे कामकाज खोलना होगा और वायरस को काबू में रखने के लिए लोगों का टेस्ट करते रहना होगा। वायरस की भनक पड़ते ही आसपास के इलाकों और लोगों को फिर से तालाबंद करने के लिए तैयार रहना होगा। बहुत ज़्यादा चालाकी की ज़रूरत नहीं है। फिलहाल यही एक इलाज है।

मुसीबत यह है कि हमारी अर्थव्यवस्थाओं को वायरस से भी गंभीर बीमारी हो गई है। काम पर लौटने से पहले उसका इलाज करने की सख़्त ज़रूरत है। अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि Corona संकट की वजह से विश्व की अर्थव्यवस्था में 2.9 प्रतिशत का विकास होने की बजाय 2.2 प्रतिशत की गिरावट आएगी। यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था में छह प्रतिशत से ऊपर और अमेरिका की अर्थव्यवस्था में ढाई से तीन प्रतिशत की गिरावट आएगी। चीन की विकास दर घट कर डेढ़ प्रतिशत और भारत की विकास दर दो प्रतिशत रह जाएगी। यानी करोड़ों लोगों के रोज़गार छिन जाएंगे, नए युवाओं के लिए रोज़गारों का संकट खड़ा हो जाएगा, कमज़ोर बैंक डूबेंगे, मुद्राओं के अवमूल्यन होंगे और बाज़ारों में आई नाटकीय गिरावट से लोगों की पेंशन, बचत और बीमा योजनाएं संकट में पड़ जाएंगी।

इस गहराते संकट से बचने के लिए सारी दुनिया के अर्थशास्त्री सरकारों से एक स्वर में कह रहे हैं कि बजट के नियमों को ताक पर रखकर दिल खोल कर ख़र्च करें। अमेरिका और यूरोप की सरकारों ने इसकी कोशिश भी की है। लेकिन भारत सरकार अभी कंजूसी बरत रही है जो उसे आगे चल कर महंगी पड़ सकती है। भारत में इन दिनों फ़सल पक कर तैयार है लेकिन किसानों के पास न काटने के लिए मज़दूर हैं और न बेचने के लिए मंडी। दिहाड़ी मज़दूर, दस्तगीर, ठेले वाले और छोटे व्यापारी सब घर बैठे हैं। इनकी और असंगठित क्षेत्र के लोगों की हालत पतली होने से अर्थव्यवस्था मंदी के भंवर में फंस सकती है। इसलिए बड़े पैमाने पर जनधन खातों के ज़रिए लोगों को नकद राहत देने और सब्सिडियां बढ़ाने की ज़रूरत है। मैंने पिछली बार भी कहा था। भारत सरकार को सात से आठ लाख करोड़ का राहत पैकेज देने की ज़रूरत है। वर्ना विकास दर दो प्रतिशत की बजाय शून्य की तरफ़ भी जा सकती है।

लेकिन सब तरफ़ अंधेरा हो ऐसी बात भी नहीं है। स्पेन और इटली में हालात में थोड़ा सुधार दिखाई देने लगा है। इटली में पिछले हफ़्ते भर से नए रोगियों के बढ़ने की दर घट रही है जबकि स्पेन में मरने वालो की दैनिक संख्या में कमी आने लगी है। ब्रिटेन के अस्पतालों में भी नए रोगियों की भर्ती की संख्या का बढ़ना बंद हो गया है और अमेरिका में भी रोगियों के बढ़ने की संख्या में ठहराव आता दिखाई दे रहा है। ऐसे में भारत अगर अपने यहां फैलते संक्रमण की रोकथाम में कामयाब हो जाए तो बदले हुए हालात में भारतीय कंपनियों को यूरोप और अमेरिका में पांव पसारने के अवसर भी मिल सकते हैं। लेकिन सारा दारोमदार सरकार के मुट्ठी खोलने पर और लोगों का भरोसा जीतने पर है। कंवल ज़ियाई साहब का एक शेर है:

हमारा दौर अंधेरों का दौर है लेकिन,

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p style=”text-align: justify;”>हमारे दौर की मुट्ठी में आफ़ताब भी है…

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