Corona Virus से मची तबाही के बीच भारत के लिए एक बड़ा मौका भी छिपा है

भारत सरकार और भारत के उद्योगपति अगर इस मौके का लाभ उठाएं और वही सामान अपने यहां बनाने पर ज़ोर दें तो आगे चल कर यही संकट फ़ायदे का सौदा भी साबित हो सकता है।

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भारत में भी कोराना वायरस के कई मामले।

जब बीमारियां महामारी का रूप ले लेती हैं तो वे हफ़्ते भर में ही दुनिया को कितना बदल देती हैं! पिछले हफ़्ते तक Corona वायरस Covid-19 के फैलाव का केंद्रबिंदु मध्य चीनी प्रांत हूबे की राजधानी वूहान था। इस सप्ताह उसकी जगह उत्तरी इटली ने ले ली है। इटली में Corona वायरस के रोगियों की संख्या 25 हज़ार का और मरने वालों की संख्या 1800 का आंकड़ा पार कर चुकी है। वैसे इटली में Corona वायरस से मरने वाले रोगियों की संख्या चीन में मरे रोगियों की तुलना में करीबन दो तिहाई है। लेकिन आप यह देखें कि चीन की आबादी इटली से लगभग चौबीस गुना है। इटली यूरोप का पुराना औद्योगिक और अमीर देश है जहां की स्वास्थ्य सेवा अच्छी मानी जाती है। इटली के सामने चीन और दक्षिण कोरिया के उदाहरण थे जहां लोग इस वायरस से पिछले दो महीनों से जूझ रहे थे। फिर भी इटली की हालत चीन से कहीं ज़्यादा बुरी हो गई।

इतनी बुरी की विश्व स्वास्थ्य संगठन को ऐलान करना पड़ा कि Corona वायरस का केंद्रबिंदु अब चीन नहीं बल्कि यूरोप बन चुका है। इटली से फैलते वायरस ने समूचे यूरोप को अपनी चपेट में ले लिया है। अब चीन से ज़्यादा रोगी यूरोप में हैं और स्पेन, फ़्रांस, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड के हालात बहुत ख़राब हो चुके हैं। कहां तो अमेरिका और यूरोप के देश चीन के 6 करोड़ लोगों को क्वारंटीन कर देने के क़दम को तानाशाही बता कर उसका मखौल उड़ा रहे थे और कहां अब यूरोप के सारे देशों को वैसे ही क़दम अपने यहां उठाने पड़ रहे हैं। लोगों का कहना है कि ऐसी पाबंदियां तो शायद उन्होंने महायुद्ध के दिनों में भी नहीं देखी थीं। इटली, स्पेन, फ़्रांस, जर्मनी और अमेरिका ने आपातकाल लागू कर दिए हैं। यातायात और सीमाएं बंद हैं। खेल-कूद, सिनेमा, थियेटर, शॉपिंग मॉल, रेस्तरां, संग्रहालय, दर्शनीय स्थल, पार्क, पर्यटन केंद्र, शराबखाने और नाचघर सब बंद हैं। स्कूल और कॉलेज बंद हैं, लोगों का जमा होना बंद है, गले मिलना, हाथ मिलाना सब बंद है।

पश्चिम एशिया में ईरान की हालत बद से बदतर होती जा रही है। चीन और इटली के बाद रोगियों और मरने वालों की सबसे बड़ी संख्या ईरान में है। ऊपर से अयातोल्लाह खमेनेई की हिदायत के बावजूद लोग बाज़ारों में जमा होने और मिलने-जुलने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। बरसों के आर्थिक प्रतिबंधों के कारण ईरान में दवाओं की भी भारी किल्लत है। सऊदी अरब और रूस के बीच तेल उत्पादन में कटौती का समझौता न हो पाने की वजह से तेल की क़ीमतों में जो भारी गिरवाट आई है उससे ईरान की पहले से ही फटेहाल अर्थव्यवस्था और भी बदहाल हो गई है। लोग काम पर जाने और कारोबार करने के लिए मजबूर हैं। लेकिन महामारियां किसी की मजबूरियां नहीं देखतीं। इसलिए रोगियों और मरने वालों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है।

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लेकिन बाज़ारों और अर्थशास्त्रियों की चिंता का केंद्रबिंदु अब अमेरिका बनने लगा है। इसकी दो बड़ी वजहें हैं। एक तो अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने Corona वायरस की गंभीरता को समझने में देरी की। शुरू में तो इसे उन्होंने विरोधियों द्वारा खड़ा किया जा रहा हव्वा और झूठी ख़बरें उड़ाने वालों का प्रपंच बता कर टालने की कोशिश की और कहा कि अमेरिका में हर साल तीस हज़ार लोग ज़ुकाम से मरते हैं। मगर देश का कामकाज तो कभी बंद नहीं हुआ। उनकी इस ढील के चलते वायरस को अमेरिका में पांव पसारने का मौक़ा मिल गया। दूसरी वजह यह है कि यूरोप में वायरस के फैलाव से घबरा कर उन्होंने यातायात रोकने और आपातकाल की घोषणा करने जैसे जो कदम उठाए वे संदिग्ध रोगियों का बड़ी संख्या में परीक्षण करने की व्यवस्था नहीं कर पाने की वजह से बेअसर साबित हुए। अमेरिका के केंद्रीय बैंक फ़ैडरल रिज़र्व ने इतवार की रात को ब्याज दरें घटा कर शून्य प्रतिशत करने और सस्ती दरों पर सात सौ अरब डॉलर देने का ऐलान किया है। ताकि सोमवार को बाज़ार खुलने पर हड़कंप न मचे। लेकिन देखना यह है कि इस कदम से घबराहट घटेगी या और बढ़ेगी।

विश्व स्वास्थ्य संगठन शुरू से ही कहता आ रहा है कि Corona वायरस का टीका न होने और हमारे शरीर में इससे लड़ने की क्षमता न होने की वजह से इससे बचाव के दो ही कारगर उपाय हैं। पहला तो यह कि संदिग्ध रोगियों का जल्दी से जल्दी और व्यापक पैमाने पर परीक्षण कराया जाए ताकि रोगियों की पहचान की जा सके। दूसरा यह कि सामाजिक संपर्क कम किया जाए और संक्रमण से बचने के लिए हाथ धोना और दस्ताने पहन कर बाहर निकलना जैसे एहतियात बरते जाएं। दुर्भाग्य से अमेरिका की स्वास्थ्य सेवा काम इस तरह से करती है कि वहां चाह कर भी आप मुफ़्त में व्यापक पैमाने पर लोगों का वायरस परीक्षण नहीं करा सकते। वहां की स्वास्थ्य सेवा बीमा आधारित है। यदि आपके पास बीमा है और उसमें ऐसी सेवा का प्रावधान है तो आप टेस्ट करा सकते हैं, वरना नहीं। स्वास्थ्य बीमा या तो स्थाई कर्मचारियों को मिलता है या फिर लोगों को ख़ुद पैसा ख़र्च करने निजी तौर पर कराना होता है। ग़रीब, बरोज़गार और अपना काम-धंधा करने वाले लोग आम तौर पर बीमा नहीं कराते या फिर वह बड़ी बीमारियों के लिए ही होता है। ऊपर से अमेरिका के पचास राज्यों में स्वास्थ्य बीमा के अलग-अलग नियम और दरें हैं।

कोई आपातकालीन कानून बना कर यदि बीमा कंपनियों को सब का मुफ़्त में परीक्षण कराने के लिए विवश कर भी लिया जाए तब भी राज्यों के अस्पतालों के पास इतने न इतने वेंटिलेटर हैं और न ही लाखों लोगों के परीक्षण के लिए परीक्षण किट। ऐसे में राष्ट्रपति ट्रंप बार-बार लाखों परीक्षणों की बातें और वादे तो करते आ रहे हैं लेकिन उन्हें करने के लिए उनके पास कोई एक केंद्रीय संस्था नहीं है। परीक्षण किट कौन बनाएगा, कौन परीक्षण करेगा, कहां करेगा, कौन पैसा देगा, कितने परीक्षणों की व्यवस्था होगी, कौन कहां करा सकेगा? इस तरह के बहुत से सवाल हैं जिनका किसी के पास संतोषजनक जवाब नहीं है। इस बीच अमेरिका में रोगियों की संख्या 3300 और मरने वालों की संख्या 60 पार कर चुकी है। यूरोप के साथ यातायात बंद करने की घोषणा के बाद हवाई अड्डों पर यूरोप से वापस आने वाले अमेरिकियों की कतारें लग गईं। उन्हें कहां रखा जाएगा, कौन उनका परीक्षण करेगा इसकी कोई व्यवस्था नहीं थी। अमेरिका के राज्य धीरे-धीरे आपातकाल लगाते जा रहे हैं और न्यूयॉर्क के गवर्नर ने तो हार कर सेना बुलाने की अपील कर डाली है।

यह अच्छी बात है कि Corona वायरस के फैलाव की वजह से राष्ट्रपति ट्रंप पिछले सप्ताह भर से नियमित रूप से संवाददाता सम्मेलन बुलाने लगे हैं और संवाददाताओं के सवालों के जवाब देते हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि वायरस से बचने की हाथ न मिलाना, गले न मिलना जैसी उन हिदायतों का वे ख़ुद ही पालन नहीं करते जो हिदायतें वे लोगों को देते हैं। बड़े-बड़े वादे और बड़ी-बड़ी बातें करके बाज़ारों के डूबते हौसले को उबारना चाहते हैं क्योंकि सत्ता संभालने के बाद से बाज़ारों में लगातार आते जा रहे उछाल को उन्होंने अपनी कामयाबी का पैमाना बना लिया है। लेकिन अमेरिका के केंद्रीय बैंक फ़ेडरल रिज़र्व के अध्यक्ष एलन ग्रीनस्पैन कहा करते थे कि बाज़ारों को अपनी कामयाबी से जोड़ना शेर की सवारी करने जैसा है। बाज़ारों का भरोसा जब आपकी बातों से उठने लगता है तब वह वादे पूरे करने पर भी नहीं लौटता। लेकिन जब आप अपनी बातों पर क़ायम न रह पाएं तो फिर वे अपने साथ आपको भी लेकर डूब सकते हैं। Corona वायरस के प्रकोप के बाद से ट्रंप के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही होता नज़र आ रहा है।

बाज़ारों को उम्मीद थी 2008 के वित्तीय संकट की तरह इस संकट से उबारने के लिए बड़े औद्योगिक देशों G7 या G20 की सरकारें और केंद्रीय बैंक एकजुट होकर वायरस प्रभावित उद्योगों और अर्थव्यवस्थाओं को उबारने के लिए कुछ बड़े कदमों का ऐलान करेंगे। जापान, चीन, यूरोपीय संघ और अमेरिका के केंद्रीय बैंकों ने बैंकों को आसान दरों पर पैसा देने की घोषणाएं तो कीं लेकिन एक-साथ नहीं कीं। अमेरिकी बैंक फ़ेडरल रिज़र्व ने और ब्रिटन के केंद्रीय बैंक ने ब्याज दरें घटाईं लेकिन उनका बाज़ार पर और ख़राब असर पड़ा। बाज़ारों को राष्ट्रपति ट्रंप से करों में भारी कटौती और परिवहन, पर्यटन और ऊर्जा जैसे बुरी तरह प्रभावित उद्योगों की मदद के लिए कुछ बड़ी घोषणाओं की उम्मीद थी। ट्रंप ने उसकी जगह यूरोप के साथ होने वाले यातायात पर रोक लगाने की घोषणा की और रोगियों के परीक्षण के लिए कोई ठोस योजना सामने नहीं रख पाए।

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बाज़ारों में यातायात बंद होने से ठप होते कारोबार को लेकर और परीक्षणों की ठोस योजना के बिना तेज़ी से फैलते वायरस को लेकर हड़कंप मच गया और एक-एक दिन में 8-10 प्रतिशत की दरों से दाम गिरने लगे। चार दिनों के भीतर दस से बारह लाख करोड़ डॉलर की पूंजी हवा हो गई। अमेरिका और यूरोप के सभी शेयर बाज़ार बीस प्रतिशत से ज़्यादा गिर कर मंदी की चपेट में आ गए। समुद्री जहाज़ पर्यटन का कारोबार, पर्यटन का कारोबार और हवाई यातायात का कारोबार लगभग ठप हो चुका है और आधी से ज़्यादा कंपनियां बंद हो जाने के कगार पर हैं। यातायात और पर्यटन के कारोबार ठप हो जाने की वजह से तेल की मांग बुरी तरह गिर गई है। ऊपर से रूस और सऊदी अरब के बीच तेल के उत्पादन में कटौती का समझौता न होने की वजह से तेल के उत्पादन की होड़ लग गई है जिसके चलते तेल के दाम तेज़ी से गिर रहे हैं। गिरते तेल के दामों की वजह से अमेरिका की उन शेल कंपनियों के बंद हो जाने का खतरा पैदा हो गया है जो चट्टानों में छिपा तेल निकालती हैं और जिनकी वजह से अमेरिका तेल में आत्मनिर्भर ही नहीं उसका निर्यातक बन गया है।

तेल के दाम गिरने से अमेरिकी शेल कंपनियों पर ही नहीं बल्कि सौर ऊर्जा और ग्रीन ऊर्जा की दूसरी कंपनियों पर भी ख़तरा मंडरा रहा है जो काफ़ी संघर्ष और नए विकास के बाद क़ीमतों में तेल के सामने टिकने लायक हुई थीं। तेल सस्ता होने से उनकी ऊर्जा महंगी हो जाएगी और उसकी मांग कम हो जाएगी। इससे जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए ग्रीन ऊर्जा की तरफ़ बढ़ने के अभियान को धक्का लगेगा। संयुक्त राष्ट्र की संस्था UNCTAD का अनुमान है कि Corona वायरस से दुनिया की अर्थव्यवस्था को लगभग दो लाख करोड़ डॉलर का नुक़सान हो चुका है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक दुनिया की आर्थिक विकास दर 2.9 प्रतिशत से घटकर 1.6 प्रतिशत पर आ जाएगी। भारत की अर्थव्यवस्था को जहां तेल के दामों में आने वाली गिरावट से फ़ायदा होगा वहीं पर्यटन के बंद होने, हीरे-जवाहरात और गहनों के कारोबार में मंदी आने और चीन से आने वाले दवा रसायनों के अभाव में जेनरिक दवाओं के उत्पादन और निर्यात में कमी आने से नुकसान होगा। चीन से दवा रसायनों के अलावा वाहनों के पुर्ज़े और मोबाइल फ़ोनों के पुर्ज़े न आने से वाहन और मोबाइल फ़ोनों के कारोबार का भी नुकसान हुआ है।

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लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि चीन से आने वाले माल की कमी को कोसने की बजाए यदि भारत सरकार और भारत के उद्योगपति इस अवसर का लाभ उठाएं और वही सामान अपने यहां बनाने पर ज़ोर दें तो आगे चल कर यही संकट फ़ायदे का सौदा भी साबित हो सकता है। अवसर का लाभ उठा कर बाज़ार के लिए वाजिब दाम पर अच्छा माल बनाने वाले देश ही विकास करते हैं, शिकायत करने वाले नहीं। आपने कभी युद्ध में बर्बाद होने के बाद भी जापान, जर्मनी और दक्षिण कोरिया को यह शिकायत करते सुना है कि फलां माल फलां देश से नहीं मिल रहा इसलिए हमारा कारोबार चौपट हो रहा है। आज वियतनाम उन्हीं की राह पर है। सिले हुए वस्त्रों का उद्योग बांग्लादेश और वियतनाम ने भारत से चुपचाप छीन लिया है। आखिर मार्क्सवादी लेनिनवादी एकदलीय पार्टी के शासन वाले वियतनाम के पास ऐसा क्या है कि वह चीन के बाद हिंदचीन का निर्माण उद्योग का नया केंद्र बन कर उभर रहा है और भारत इतनी बड़ा बाज़ार होने और कुशल कारीगर होने के बावजूद मंदी के गर्त में धंसता जा रहा है।

ख़ैर, ये सब बाद की बातें हैं। अभी तो पूरी दुनिया को एकजुट होकर Corona वायरस की रोकथाम के लिए प्रयास करना है वरना यह 1918 की स्पेनी फ़्लू की महामारी की तरह फैल सकता है। उस महामारी में यूरोप और बाकी दुनिया के इतने लोग मारे गए थे जितने पिछले सौ साल में हुई सारी लड़ाइयों में मिलाकर भी नहीं मारे गए। इसकी रोकथाम के लिए बाकी देशों को ताईवान, वियतनाम और थाईलैंड से सबक लेना चाहिए। इन तीनों देशों ने वायरस के पहले रोगी का पता लगते ही व्यापक पैमाने पर परीक्षण किए और फैलाव को रोकने के लिए सार्वजनिक संपर्क पर सख़्ती से रोक लगाई। दक्षिण कोरिया और जापान ने भी यही सब किया लेकिन थोड़ी देर के बाद। इसलिए वहां पहले चरण के फैलाव की रोकथाम नहीं हो पाई। लेकिन दोनों देशों ने बाद में उठाए कड़े कदमों से फैलाव को काबू में कर लिया।

इटली, ईरान और यूरोप ने रोकथाम के कदम उठाने में एक से दो महीने की देर की है। इसलिए यहां हालत चीन जैसी होती दिखाई दे रही है। यही हालत अमेरिका की है। रोकथाम के कड़े कदम उठाने में अमेरिका यूरोप से भी पीछे दिखाई पड़ रहा है। ऊपर से स्वास्थ्य सेवा के संगठित न होने की वजह से रोगी परीक्षणों को लेकर अव्यवस्था की स्थिति है। यदि अमेरिका अगले हफ़्ते से सामाजिक मेलजोल पर रोक नहीं लगाता है और परीक्षणों के लिए युद्ध स्तर पर काम नहीं शुरू करता है तो वहां यूरोप से भी ख़राब हालत हो सकती है। पहले इस बात को लेकर बहस छिड़ गई है कि पिछले साल अमेरिका में ज़ुकाम और निमोनिया से मारे गए तीस हज़ार से ज़्यादा लोगों में से कहीं कुछ Corona वायरस के शिकार तो नहीं थे। चीन के एक प्रवक्ता ने यह आरोप लगाया है कि शायद यह वायरस पिछले साल अमेरिका में फैलना शुरू हुआ था और अमेरिका से वूहान आए अमेरिकी सैनिकों के एक दल रास्ते वूहान पहुंचा है।

हालांकि, चीनी सरकार के चोटी के नेताओं ने अभी तक इसके समर्थन में कुछ नहीं कहा है और विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी यही बताया है कि Corona वायरस के पहले रोगी की मौत 17 नवंबर को वूहान के अस्पताल में हुई थी। उसके बाद लगभग दो महीनों तक चीनी स्थानीय अधिकारियों ने इस वायरस से बीमार पड़ने और मरने वाले रोगियों के बारे में जानकारी छिपाए रखी। रोगियों के ज़रिए दक्षिण कोरिया और थाईलैंड पहुंच जाने के बाद वायरस की बात को छिपाना कठिन हो गया और स्थानीय अधिकारियों पर कार्रवाई का नाटक खेलते हुए चीनी केंद्र सरकार ने मामला अपने हाथ में ले लिया। चीन के ही स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि यदि वूहान के स्थानीय चिकित्सा अधिकारियों ने नवंबर में ही रोकथाम के कड़े कदम उठा लिए होते और विश्व स्वास्थ्य संगठन को ख़बर करते हुए बाकी दुनिया को सचेत कर दिया होता तो दुनिया में इतनी बड़ी तबाही न मची होती। लगभग पौने दो लाख लोग बीमार पड़ चुके हैं। साढ़े छह हज़ार से ज़्यादा की मौत हो चुकी है और छह हज़ार की हालत गंभीर है।

लेकिन बीमारी और मौत से भी भयंकर चोट दुनिया की अर्थव्यवस्था को पहुंची है। अमेरिका चीन पर अंगुली उठा रहा है तो चीन अमेरिका को दोष दे रहा है। अभी तो फैलाव और उसकी रोकथाम का दौर चल रहा है। उम्मीद है कि यूरोप और अमेरिका में गर्मियां आने से शायद वायरस के फैलाव में ज़ुकाम और निमोनिया के दूसरे वायरसों की तरह ख़ुद ही थोड़ी कमी आ जाए। इस बीच टीका बनाने की होड़ शुरू हो गई है। अमेरिका ने टेस्ट किट बनाने का काम स्विस कंपनी रोश को सौंपा है और ख़बरें हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने जर्मनी के एक ऐसे शोधकर्ता से Corona वायरस के उस टीके का स्वत्वाधिकार पूरी तरह अमेरिका के लिए ख़रीदने की कोशिश की जिस पर वह जर्मन कंपनी CureVac के लिए काम कर रहा है।

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p style=”text-align: justify;”>परदे के पीछे यह सब चल रहा है लेकिन सामने सड़कों पर, चौराहों पर, सागरतटों और सैरगाहों पर, आसमान में और ज़मीन पर सब जगह एक अजीब सा सन्नाटा पसरता जा रहा है। ऐसा सन्नाटा जो आज से तीन-चार दशक पहले यहां लंदन में विडंबना की बात है कि क्रिसमस के दिन दिखाई पड़ता था। नासा के उपग्रहों से भी वे जगहें साफ़ नज़र आती हैं जो कभी प्रदूषण के गुबार से ढकी रहती थीं। दूरियां जो पहले से थीं, Corona वायरस के आतंक ने और बढ़ा दी हैं। मुसकराहटें नकाबों के पीछे छिप गई हैं। लोगों से खचाखच भरी होने के कारण संकरी नज़र आने वाली सड़के इतनी चौड़ी और चौराहे इतने बड़े नज़र आने लगे हैं मानों कहीं सिमटे हुए थे। मस्जिदें, गिरजे, संग्रहालय, खंडहर सब सूने से हैं, मिर्ज़ा ग़ालिब की मशहूर पंक्तियों को याद कराते से–
कोई वीरानी सी वीरानी है!
दश्त को देख के घर याद आया…

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