Corona Virus का कहर और Trump का गणित

क्या डोनाल्ड ट्रंप इंपीचमेंट से बिल क्लिंटन की तरह कोई सीख लेंगे और अपने तौर-तरीक़े बदलेंगे? ब्रिटन को यूरोपीय संघ से बाहर लाने के बाद क्या प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन अब पहले से बेहतर व्यापार संधियां कर पाएंगे?

कोरोना वायरस CoronaVirus COVID-19

कोरोना वायरस CoronaVirus COVID-19

क्या डोनाल्ड ट्रंप इंपीचमेंट से बिल क्लिंटन की तरह कोई सीख लेंगे और अपने तौर-तरीक़े बदलेंगे? ब्रिटन को यूरोपीय संघ से बाहर लाने के बाद क्या प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन अब पहले से बेहतर व्यापार संधियां कर पाएंगे? ब्रितानी अर्थव्यवस्था में भारतवंशी कारोबारियों का योगदान कितना है और इस्लामी देशों के संगठन OIC में पाकिस्तान की क्यों नहीं सुनी जा रही है? आज इन विषयों पर चर्चा करेंगे। लेकिन शुरुआत कोरोना वायरस (Corona Virus) के संकट से।

Coronavirus, Corona Virus
Corona Virus से मरने वालों की संख्या हजार से ऊपर।

मध्य चीन (China) के हूबे प्रांत की राजधानी वूहान से फैली कोरोना वायरस (Corona Virus) की महामारी से मरने वालों की संख्या 2003 में SARS वायरस से मरने वालों की संख्या को पार कर गई है और अब 1000 के आंकड़े की तरफ़ बढ़ रहे हैं। चीन समेत 26 देशों के चालीस हज़ार से ज़्यादा लोग कोरोना वायरस (Corona Virus) से बीमार हो चुके हैं। ग़नीमत इस बात की है कि अभी तक इस वायरस से जो भी लोग मरे हैं वे सभी वूहान और उसके आस-पास के शहरों में थे जिनका यातायात चीन ने पिछले बीस दिनों से बंद कर रखा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि कोरोना वायरस (Corona Virus) SARS वायरस जितना घातक नहीं है और पिछले चार-पांच दिनों से इस वायरस के फैलाव की रफ़्तार भी धीमी पड़ती नज़र आ रही है। लेकिन मरने वालों की संख्या पिछले दो दिनों से बढ़ती जा रही है और रविवार को 97 लोगों की मौत हुई जो मरने वालों की दैनिक संख्या के हिसाब से सबसे ज़्यादा थी।

इस बीच नए साल की दो सप्ताह लंबी छुट्टियों के बाद आज से चीनी लोग अपने-अपने काम-धंधों पर लौटने लगे हैं। लेकिन वूहान समेत हूबे प्रांत के दूसरे शहरों में अभी तक यातायात बंद है। इस प्रांत के लगभग छह करोड़ लोग पिछले करीब बीस दिनों से घरों में बंद हैं। चीन के बाकी शहरों का नज़ारा भी Sci-Fi फ़िल्मों में दिखाए जाने वाले काल्पनिक शहरों जैसा है जहां बाज़ार और सड़कें सुनसान हैं और इक्के-दुक्के लोग मुंह पर मास्क लगाए Aliens की तरह घूमते दिख जाते हैं।

Corona Virus की मार, अर्थव्यवस्था पर हाहाकार!

यह स्थिति वायरस से ज़्यादा चीनी सरकार की पाबंदियों के कारण हुई है जिसकी बाकी दुनिया में तारीफ़ भी की जा रही है और आलोचना भी। तारीफ़ इसलिए कि यदि ऐसे कड़े प्रतिबंध न लगाए जाते तो शायद यह वायरस और बड़े क्षेत्र में और भी तेज़ी से फैल सकता था। आलोचना इसलिए की जा रही है कि यदि चीनी सरकार ने शुरू-शुरू में वायरस के प्रकोप की ख़बर को दबाने की कोशिश न की होती और सूचना माध्यमों को खुला छोड़ा होता तो शायद स्थिति इतनी ख़राब न होती।

दरअसल हुआ यह कि दिसंबर के आखिरी सप्ताह में वूहान के एक बड़े अस्पताल में एक ख़तरनाक ज़ुकाम से बीमार लोग खांसी, बुख़ार और निमोनिया से मरने लगे। डॉक्टरों को समझ नहीं आ रहा था कि इस वायरस पर आम दवाएं काम क्यों नहीं कर रही हैं। अस्पताल में काम करने वाले आंखों के डॉक्टर ली वेनलियांग को इस रहस्यमय वायरस के फैलाव की चिंता हुई जिसके बारे में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपने डॉक्टर मित्रों को सचेत करने की कोशिश की।

चीनी अधिकारियों को इसकी भनक लग गई। उन्होंने बीमारी की जांच और रोकथाम के कदम उठाने की बजाए डॉक्टर ली वेनलियांग को ही धर लिया और धमकाया। इस बीच बीमारी फैलती गई और जब तक चीनी सरकार जागती तब तक यानी जनवरी के मध्य तक आते-आते उसने कोरोना वायरस (Corona Virus) की महामारी का रूप ले लिया। अस्पताल समेत पूरा का पूरा वूहान Corona वायरस की चपेट में आ गया। यहां तक कि डॉक्टर ली वेनलियांग भी बीमारी की गिरफ़्त में आ गए और सात फ़रवरी को उन्होंने दम तोड़ दिया।

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ली वेनलियांग की मौत की ख़बर चीनी सोशल मीडिया पर कोरोना वायरस (Corona Virus) से भी ज़्यादा तेज़ी से फैली और उनकी याद में सड़क-चौराहों पर फूल मोमबत्तियां जलाई जाने लगीं। लोग सोशल मीडिया पर अपना ग़ुस्सा निकालने लगे और सारे मामले की खुली जांच की मांग करने लगे। समाचार माध्यमों पर चीनी सरकार के शिकंजे की आलोचना होने लगी। चीनी सरकार को ली वेनलियांग की मौत की जांच बैठानी पड़ी।

लेकिन इसी बीच वूहान के सिटिज़न जर्नलिस्ट चेन शियुशी के लापता होने की ख़बर आ गई। चेन शियुशी पिछले लगभग दस दिनों से वूहान में लोगों की परेशानियों और चीनी अधिकारियों की ज़ोर-ज़बरदस्ती के वीडियो बना कर यूट्यूब पर लगाते जा रहे थे। उनको फ़ोलो करने वालों की संख्या लाखों में चली गई थी। लेकिन अचानक वे लापता हो गए हैं। ली वेनलियांग की मौत से उमड़े लोगों के गुस्से की आग में चेन शियुशी का लापता हो जाना घी का काम कर रहा है। अमेरिका और यूरोप की सरकारें अभी तक इन दोनों घटनाओं पर चुप हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो शी जिनपिंग की तारीफ़ भी कर डाली है लेकिन यदि कोरोना वायरस (Corona Virus) से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को चोट लगी तो इस तारीफ़ को आलोचना में बदलने में बहुत देर नहीं लगेगी।

अमेरिका ही नहीं पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को कोरोना वायरस (Corona Virus) की चोट लगना अवश्यंभावी है। सवाल बस इस बात का है कि वह चोट कितनी गहरी होगी। सरसरी तौर पर देखें तो, चालीस हज़ार से अधिक उड़ानें रद्द हो चुकी हैं। सैलानी जहाज़ों पर बीमारी फैलने के कारण जहाज़ पर्यटन पर असर पड़ने वाला है। चीन का पर्यटन पिछले महीने भर से बंद है। जापान, हांग-कांग, सिंगापुर, कोरिया और थाइलैंड समेत लगभग सारे पूर्वी एशियाई देशों के पर्यटन पर असर पड़ा है। चीनी शहरों की इलेक्ट्रॉनिक और मोटर उद्योग के पुर्ज़े बनाने वाले कारख़ाने बंद होने से अमेरिका और यूरोप की बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक और मोटर निर्माता कंपनियों के कारोबार में मंदी आने के आसार हैं। लोग चीन से आने वाले सामान के ऑर्डर रद्द करने लगे हैं। हालत यह है कि लोग चीनी नज़र आने वाले लोगों के पास बैठने से कतराने लगे हैं और अगर उन्हें छींकते या खांसते देख लें तो घबराहट का आलम देखने लायक होता है।

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भय का यह वातावरण तब तक दूर नहीं होगा जब तक कि कोरोना वायरस (Corona Virus) का कोई टीका तैयार नहीं कर लिया जाता। अभी तक चीन के कुछ कृषि वैज्ञानिक एक ऐसे जानवर का पता लगाने में कामयाब हुए हैं जिसे होने वाले ज़ुकाम का वायरस कोरोना वायरस (Corona Virus) से लगभग पूरी तरह मेल खाता है। इस जानवर का नाम है पैंगोलिन जो देखने में विशालकाय नेवले जैसा होता है लेकिन इसकी चमड़ी पर बालों की जगह शल्क या सीपीनुमा सख़्त पपड़ी होती है। इसके शरीर की चीज़ें चीनी दवाओं में काम आती हैं इसलिए यह संकटापन्न हो गया है। चीन में इसका शिकार करना अवैध है। फिर भी चोरी-छिपे मंडियों में इसका व्यापार होता है। चीनी वैज्ञानिकों ने यह जानकारी शोधपत्र नेचर के एक लेख में दी है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि वूहान का कोरोना वायरस (Corona Virus) पैंगोलिन से ही फैला है इस पर अभी और काम होना बाकी है।

बहरहाल, अमेरिकी सेनेट ने पिछले हफ़्ते राष्ट्रपति ट्रंप के इंपीचमेंट का काम पूरा कर लिया और उन्हें दोनों आरोपों से बरी कर दिया। इंपीचमेंट की कार्यवाही शुरू करने वाली विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी के हाथ केवल एक छोटी सी कामयाबी ही लगी। सेनेट के 53 रिपब्लिकन सेनेटरों में से केवल एक, मिट रोमनी ने सत्ता का दुरुपयोग करने के आरोप में ट्रंप को गद्दी से हटाने के पक्ष में वोट डाला। 2012 में ओबामा के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने वाले मिट रोमनी को रिपब्लिकन पार्टी ने 2016 के चुनाव में अपना उम्मीदवार नहीं बनाया था। इसलिए मिट रोमनी के वोट को रिपब्लिकन पार्टी ने ट्रंप से बदला लेने की कार्रवाई बता कर ख़ारिज कर दिया।

क्लिंटन की तरह ट्रंप को भी इंपीचमेंट से बरी होने का तात्कालिक लाभ मिला और उनकी लोकप्रियता का ग्राफ़ थोड़ा उछल कर पचास के आसपास जा पहुंचा। लेकिन जिन लोगों को यह उम्मीद थी कि इंपीचमेंट से ट्रंप के तौर-तरीक़ों में क्लिंटन की तरह का कोई बदलाव दिखाई देगा, उन्हें निराशा हाथ लगी। बरी होते ही ट्रंप ने अपने विरोधियों पर खुली ज़बान से प्रहार करने शुरू कर दिए। क्लिंटन की तरह माफ़ी मांगने की बजाए ट्रंप ने अपनी जीत का जश्न मनाने के लिए वाइट हाऊस में एक सभा बुलाई जिसमें वे सारे सेनेटर और उनके कानूनी सलाहकार मौजूद थे जिन्होंने इंपीचमेंट को नाकाम करने में ट्रंप का साथ दिया। यही नहीं उन्होंने अपने ख़िलाफ़ गवाही देने वाले नागरिक अधिकारी और यूरोपीय संघ के पूर्व राजदूत को बर्ख़ास्त कर दिया। उनका वश चलता तो वे मिट रोमनी को और डेमोक्रेटिक पार्टी के उन सभी सेनेटरों को भी निकाल देते जिन्होंने सेनेट में उनके ख़िलाफ़ वोट दिया था।

राजनीतिक समीक्षक इस बात से हैरान हैं कि कैसे अपनी बातों से पलटने वाले, औरतों और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ अपमानजनक बातें कह जाने वाले, मनमाने फ़ैसले करने वाले और अपने विरोधियों को बच्चों जैसी भाषा में घटिया और चोर बताने वाले ट्रंप पार्टी पर इतनी मज़बूत पकड़ और समर्थकों के दिलों में पक्की जगह बनाए हुए हैं। इसकी एक वजह तो यह है कि रिपब्लिकन पार्टी जिसे भारत की कांग्रेस पार्टी की तरह Grand Old Party या GOP कहा जाता है, एक-राय पर चलने वाली पार्टी है। वैचारिक मतभेद को खुले आम प्रकट करना इस पार्टी में अच्छा नहीं माना जाता। दूसरे, ट्रंप ने पिछले तीन सालों में बेबाकी और साफ़गोई के नाम पर अपनी लोक-लुभावनी हरकतों से लोगों की अपेक्षाओं के स्तर को इतना गिरा लिया है कि अब उनकी बातें सामान्य लगने लगी हैं। लोगों को उनकी अटपटी बातों की आदत सी हो चली है।

अर्थशास्त्री और राजनीतिक समीक्षक ट्रंप के आर्थिक विकास, रोज़गार और महानता के दावों की पोल खोलते रहते हैं। लेकिन ट्रंप के समर्थकों पर उनका कोई असर होता नज़र नहीं आता। उन्हें रोज़ शेयर बाज़ारों में टूटते रिकॉर्ड नज़र आते हैं लेकिन बढ़ता व्यापार घाटा, बजट घाटा और कर्ज़ का बोझ नज़र नहीं आता। अमेरिका की राजनीतिक व्यवस्था भी कुछ इस तरह बनाई गई है ताकि देहाती इलाक़ों का राजनीतिक दबदबा शहरी इलाक़ों के बराबर या उनसे ज़्यादा रहे। इन इलाकों में बहुसंख्यक आबादी गोरे यूरोपीय लोगों की है।

मिसाल के तौर पर कैलिफ़ोर्निया राज्य की आबादी चार करोड़ है और नॉर्थ डकोटा की केवल साढ़े सात लाख। लेकिन सौ सदस्यों वाली सेनेट में कैलिफ़ोर्नया भी दो सेनेटर चुनकर भेजता है और नॉर्थ डकोटा भी दो। पिछले तीन-चार दशकों से नॉर्थ डकोटा जैसे छोटे और देहाती राज्य हमेशा रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवारों को ही चुन कर भेजते हैं। उन्हीं के बल बूते पर सेनेट में लगभग हमेशा रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत रहता है और राष्ट्रपतीय चुनावों में देश भर में कम वोट हासिल करने के बावजूद रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार जीत जाते हैं। बुश और ट्रंप दोनों राष्ट्रीय स्तर पर कम वोट हासिल करने के बावजूद जीते हैं।

डोनाल्ड ट्रंप को इस गणित का ध्यान हर वक़्त रहता है। इसलिए वे हमेशा ऐसी बातें करते हैं जो उनके वोटरों को भली लगें। शालीनता के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों की उन्हें कोई परवाह नहीं है। इसलिए वे अपने इंपीचमेंट को किसी सबक की तरह नहीं बल्कि एक अवसर की तरह देखते हैं। उससे सुपरचार्ज होकर आगे वे क्या करेंगे इसकी कल्पना कर पाना मुश्किल है। इसकी एक झलक ब्रिटन को यूरोपीय संघ से निकलने के बाद एक बेहतरीन व्यापारिक संधि के लिए मुंह धोए बैठे ब्रितानी प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन को मिल चुकी है। इंपीचमेंट से बरी होते ही राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने विदेश और व्यापार मंत्रियों के ज़रिए संदेश पहुंचा दिया है कि चीनी कंपनी हुआवे को 5G नेटवर्क बिछाने की सीमित अनुमति देकर ब्रिटेन ने अच्छा नहीं किया है।

बोरिस जॉन्सन हुआवे के मामले में फंस सकते हैं। यदि वे डोनाल्ड ट्रंप की बात मानकर हुआवे का समझौता तोड़ते हैं तो चीन नाराज़ होता है और वे अमेरिका के इशारों पर नाचते नज़र आते हैं। अगर किसी बड़ी ताकत के इशारों पर ही नाचना था तो फिर यूरोपीय संघ की बातें मानते रहना और उसमें बने रहना ही क्या ख़राब था। यदि वे हुआवे के समझौते पर अडिग रहते हैं तो उन्हें अमेरिका के साथ व्यापार संधि करने में कठिनाई आ सकती है। यूरोपीय संघ ने भी नए व्यापार समझौते को लेकर आंखें दिखानी शुरू कर दी हैं। जिस अमेरिका और चीन के भरोसे वे यूरोपीय संघ से बाहर निकले हैं, उनके साथ लाभकारी व्यापार समझौते करना आसान नहीं होगा।

ब्रिटन की इस मुश्किल का एक हल भारत है जिसके साथ ब्रिटेन को नए सिरे से व्यापार संधि करनी होगी। पिछले दिनों भारत के वाणिज्य व्यापार संगठन FICCI और ब्रितानी शोध कंपनी Grant Thornton ने ब्रिटेन में भारतवंशी कारोबारियों के योगदान पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें बताया गया कि भारतवंशियों के कारोबार ब्रिटेन में हर साल 85 अरब पाउंड का कारोबार करते हैं और एक अरब सत्तर करोड़ पाउंड कॉर्पोरेट टैक्स देते हैं। ब्रिटेन में भारतवंशियों की आबादी कुल आबादी का केवल दो प्रतिशत है लेकिन उनके कारोबारों में दो लाख अस्सी हज़ार से ज़्यादा लोग काम करते हैं। भारतवंशियों के कारोबार अधिकतर रिटेल, चिकित्सा, ज़मीन-जायदाद और खान-पान के क्षेत्रों में हैं।

लेकिन ब्रिटेन चाहेगा कि भारत के लोग यहां आकर और पूंजी लगाएं जिनसे रोज़गार बढ़ें। मुश्किल यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था भी इन दिनों मंदी के दौर से गुज़र रही है और उसे भी अपने यहां Infrastructure जैसे क्षेत्रों में पूंजी के निवेश की सख़्स ज़रूरत है। दोनों सरकारें दबाव में हैं इसलिए व्यापार समझौता करने में कोई ख़ास कठिनाई नहीं आनी चाहिए। बदले में मोदी सरकार यह आशा रखेगी कि पाकिस्तान, आतंकवाद और कश्मीर जैसे मामलों पर ब्रितानी सरकार उसके साथ रहे।

वैसे भी जब पाकिस्तान का सबसे बड़ा साहूकार और मजहबी गुरू सऊदी अरब ही कश्मीर पर निंदा प्रस्ताव के लिए इस्लामी देशों के संगठन OIC की विशेष बैठक बुलाने को राज़ी नहीं हो रहा, तो ब्रिटेन और यूरोपीय संघ से उसका उम्मीद लगाना बेमानी है। सऊदी अरब का साथ न देने की कई वजहें हैं। पहली तो यह कि सीरिया और यमन की लड़ाइयों के बाद OIC में अब दो धड़े बन गए हैं। एक का नेतृत्व तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोवान और मलेशिया के प्रधानमंत्री महाथिर मोहम्मद कर रहे हैं। दूसरे ज़्यादा बड़े और शक्तिशाली धड़े का नेतृत्व सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान या MBS कर रहे हैं।

तेल और गैस में अमेरिका के आत्मनिर्भर हो जाने और रूस के बड़ा तेल उत्पादक बनकर उभरने के बाद से सऊदी अरब ने नई मंडियों की तलाश में चीन और भारत के साथ अपने रिश्ते और मज़बूत किए हैं। सऊदी प्रिंस अपनी अर्थव्यवस्था की तेल पर निर्भरता कम करने के लिए दूसरे उद्योगों की तलाश में भी हैं। इसलिए भारत के साथ रिश्ते बढ़ाए जा रहे हैं। ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए सऊदी अरब ने इजराइल को लेकर भी अपना रवैया बदला है और अब उसे भारत इजराइल की बढ़ती नज़दीकियों से फ़र्क नहीं पड़ता। लेकिन पाकिस्तान ने कश्मीर को जीवन-मरण का प्रश्न बना रखा है। पिछले साल जब सऊदी अरब कश्मीर को लेकर OIC के मंच से भारत की निंदा करने को तैयार नहीं हुआ तो पाकिस्तान ने तुर्की और मलेशिया के दरवाज़े खटखटाए थे। सऊदी प्रिंस MBS के यह बात गवारा नहीं हुई।

पाकिस्तान की सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि उसकी अर्थव्यवस्था इजराइल से भी लगभग आधी है और देने के लिए परमाणु बम, आतंकवाद और एक मंडी के अलावा कुछ ख़ास नहीं है। ऐसे में सऊदी अरब या उसके धड़े के दूसरे देश भारत की क़ीमत पर पाकिस्तान का साथ कब तक देंगे? ऊपर से अमेरिका में इंपीचमेंट से सुपर चार्ज हुए डोनाल्ड ट्रंप का दोबारा चुना जाना तय जैसा नज़र आने लगा है। ट्रंप को न फ़िलिस्तीनियों से कोई मोहब्बत है और न ही पाकिस्तान और उसके आतंकवाद से। ऐसे में MBS और उनके इशारे पर चलने वाला OIC क्यों पाकिस्तान की बात मानेगा यह बात समझ में नहीं आती।

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p style=”text-align: justify;”>बात तो यह भी समझ में नहीं आती कि दुनिया का सबसे बड़ा और सफल फ़िल्म उद्योग होने के बावजूद भारत हर साल ऑस्कर पुरस्कारों में अपनी कोई जगह क्यों नहीं बना पाता? अब तो भारत की कई कंपनियों ने हॉलीवुड की कंपनियोँ में और हॉलीवुड की कंपनियों ने भारतीय फ़िल्म कंपनियों में निवेश कर लिया है। फिर भी भारत की फ़िल्मों को चोटी के ऑस्कर पुरस्कार मिलना तो दूर उनके के लिए उनका नामांकन तक नहीं हो पाता। इस साल पहली बार सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का ऑस्कर दक्षिण कोरिया की हास्य-व्यंग्य फ़िल्म Parasite को मिला है। यह निश्चय ही एक अच्छी शुरुआत है और बोंग जून-हो की फ़िल्म निश्चय ही उन चार ऑस्करों के योग्य है जो उसे मिले हैं। लेकिन क्या कभी भारत की भी कोई फ़िल्म सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का ऑस्कर जीत पाएगी? यह एक सवाल है जो ज़हन से जाता नहीं।

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