Black Lives Matter आंदोलन को किसने हाईजैक किया?

दुनिया में शायद ही कोई ऐसा सुधार हो जो किसी विरोध या आंदोलन के बिना हुआ हो। अफ़्रीकावंशी काले नागरिकों के साथ होने वाले भेदभाव के विरोध में हो रहे Black Lives Matter या BLM आंदोलन को लेकर जब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भन्ना रहे थे, तब पूर्व राष्ट्रपति ओबामा ने एक छात्रसभा में कहा था, अमेरिकी लोकतंत्र भी विरोध आंदोलनों की ही देन है।

Black Lives Matter

थमने का नाम नहीं ले रहा विरोध प्रदर्शन।

दुनिया में शायद ही कोई ऐसा सुधार हो जो किसी विरोध या आंदोलन के बिना हुआ हो। अफ़्रीकावंशी काले नागरिकों के साथ होने वाले भेदभाव के विरोध में हो रहे Black Lives Matter या BLM आंदोलन को लेकर जब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भन्ना रहे थे, तब पूर्व राष्ट्रपति ओबामा ने एक छात्रसभा में कहा था, अमेरिकी लोकतंत्र भी विरोध आंदोलनों की ही देन है। लेकिन आंदोलनों को जब किसी प्रभावशाली नेता या लक्ष्य से दिशा नहीं मिलती तब वे दिशाहीन हो सकते हैं और अराजकता में बदल जाते हैं। शनिवार को अमेरिकी राज्य जॉर्जिया की राजधानी एटलांटा में गिरफ़्तारी से भागने की कोशिश कर रहे काले युवक रेशार्ड ब्रुक्स की गोरे पुलिस अफ़सर गैरेट रॉल्फ़ की गोलियों से मौत हो गई। गैरेट रॉल्फ़ को बर्ख़ास्त कर दिया गया है और पुलिस प्रमुख ने इस्तीफ़ा दे दिया। लेकिन रोष में आए प्रदर्शनकारियों ने एक रेस्तरां को आग लगा दी जिससे लगता है BLM आंदोलन भी भटकने लगा है और कुछ अराजक तत्व उसे हाइजैक करने की कोशिश कर रहे हैं।

काले नागरिकों पर पुलिस की बर्बरता को रोकने और कालों के साथ होने वाले भेदभाव को मिटाने के लिए पहले पुलिस विभागों और न्याय व्यवस्था में सुधार की मांग उठी थी। जो प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की बर्बरता की घटनाओं की वजह से पुलिस विभागों को भंग करने और सामुदायिक पुलिस के गठन की मांग में बदल गई। ऐसे पुलिस विभाग जिनका गठन समुदाय की रज़ामंदी से हो और जो समुदाय के जातीय स्वरूप और अनुपात पर आधारित हों। ट्रंप प्रशासन के विरोध के बावजूद मिनियापोलिस समेत कई राज्यों के ज़िलों में सामुदायिक पुलिस के गठन की प्रक्रिया शुरू भी हुई। इस बीच आंदोलनकारियों की नज़र ऐसी प्रतिमाओं और झंडों पर गई जिनका इतिहास नस्लवादी था और दास-व्यापार से जुड़ा था। ट्रंप प्रशासन के विरोध के बावजूद कई राज्यों के ज़िला प्रशासन इस मांग पर भी विचार करने को तैयार हो गए।

लेकिन इसी बीच आंदोलनकारियों ने ऐसे लोगों की प्रतिमाओं को निशाना बनाना शुरू कर दिया जो दासता के समर्थक रहे, नस्लवादी विचारधारा के थे और दास-व्यापार से जुड़े थे। इसी जुनून में कुछ लोगों ने अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन डीसी स्थित भारतीय दूतावास के सामने लगी महात्मा गांधी की प्रतिमा पर भी हमला बोल दिया। चेहरे से लेकर पांवों तक रंग फेंक कर प्रतिमा को रंग दिया गया और प्रतिमा की आधारशिला पर नस्लवादी लिख दिया गया। भारत स्थित अमेरिकी राजदूत ने घटना पर माफ़ी मांगते हुए घटना की छानबीन का वादा किया है। लेकिन गांधी जी प्रतिमाओं पर हमले की यह पहली घटना नहीं है। दो साल पहले उनकी प्रतिमा को घाना विश्वविद्यालय के परिसर से हटा दिया गया था। उससे पहले जोहनेसबर्ग में अफ़्रीकी नेशनल कांग्रेस के एक समर्थक ने महात्मा गांधी की प्रतिमा और शिलापट्ट पर सफ़ेद रंग फेंक दिया था।

पूरी टिप्पणी सुनेंः

पिछले सप्ताह BLM आंदोलन के समर्थन में यहां लंदन में चल रहे प्रदर्शनों के बीच वेस्टमिंस्टर संसद भवन के सामने लगी महात्मा गांधी की प्रतिमा की आधारशिला के सामने किसी ने काले रंग से नस्लवादी लिख दिया।

पिछले कुछ दिनों से इंग्लैंड के उत्तरी शहर लेस्टर से महात्मा गांधी की प्रतिमा के ख़िलाफ़ हस्ताक्षर अभियान चल रहा है। पिछले शनिवार को लंदन में हुए BLM प्रदर्शनों के दौरान अति दक्षिणपंथी प्रदर्शनकारियों का भी एक गिरोह प्रदर्शन करने उतरा था। उनका उद्देश्य चर्चिल और नेल्सन की प्रतिमाओं को BLM आंदोलनकारियों के हमलों से बचाना था। हैरत की बात है कि नस्लवादी विचारधारा वाले चर्चिल और नेल्सन की प्रतिमाओं की रक्षा के लिए तो लोग आए लेकिन महात्मा गांधी की प्रतिमा को नस्लवादी नारा लिखने वाले से बचाने के लिए कोई आगे नहीं आया। आप कह सकते हैं कि जिन्हें चर्चिल, नेल्सन और गांधी जी के बीच फ़र्क नज़र न आता हो उनसे ऐसी उम्मीद रखना ही भूल है।

गांधी जी की प्रतिमाओं पर हमले करने का चलन अफ़्रीका, अमेरिका और यहां लंदन में ही नहीं भारत में भी बढ़ा है। लोगों को अब अम्बेडकर और लोहिया ज़्यादा बड़े नेता नज़र आने लगे हैं। अफ़्रीका में नेल्सन मंडेला को और अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग को आदर्श मानने वाले लोगों को गांधी जी के बयानों में और पत्रों में नस्लवादी विचार नज़र आते हैं। हर नेता की अपनी ख़ूबियां हैं और कमियां भी। लेकिन एक बात निर्विवाद है। अपनी कथनी, करनी और विचारों को जीवन में ढाल कर दिखाने वाला नेता दुनिया में गांधी जी के सिवा कोई नहीं हुआ है। वे जननेता होने के साथ-साथ, मंजे हुए राजनीतिज्ञ, दार्शनिक, विचारक, पत्रकार और सत्याग्रही सभी कुछ थे। इंसान की बराबरी की बातें करना आसान है, लेनिन, माओ, चर्चिल, नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग, अंबेडकर और लोहिया में से एक नेता में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि दूसरे इंसान से अपना मैला साफ़ न कराए। अब इसके बावजूद यदि लोगों को गांधी जी नस्लवादी नज़र आते हैं तो यह उनकी समझ है।

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जहां तक समझ की बात है इस सप्ताह कोविड-19 की महामारी पर चिकित्सा विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका लान्सेट के संपादक रिचर्ड हॉर्टन की एक पुस्तक – The Covid-19 Catastrophe: What’s gone wrong and how to stop it happening again प्रकाशित हो रही है। अपनी इस बेबाक पुस्तक में रिचर्ड हॉर्टन ने कोविड-19 महामारी की रोकथाम के ब्रितानी सरकार के प्रयासों को वर्तमान युग में विज्ञान नीति की सबसे बड़ी नाकामी बताया है। उनका कहना है कि महामारी की रोकथाम के लिए बनाए गए आपात कालीन विज्ञान सलाहकार दल – सेज – ने सरकार की जन प्रचार शाखा की भूमिका निभाने के अलावा कुछ नहीं किया। सलाहकार दल सेज के साथ-साथ उन्होंने ब्रितानी रॉयल कॉलेजों, चिकित्सा विज्ञान अकादमियों, ब्रिटिश चिकित्सा संगठन और पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड को भी महामारी की गंभीरता के बारे में मुखरता से न बोलने के लिए आड़े हाथों लिया है।

रिचर्ड हार्टन अपनी साफ़गोई के लिए जाने जाते हैं। वे त्वचा के कैंसर मेलेनोमा की चौथी और चरम अवस्था से जूझ रहे हैं और थोड़े ही समय के मेहमान हैं। इसलिए उनकी आलोचना ख़ास वज़न रखती है। उनका कहना है कि ब्रितानी चिकित्सा संस्थाओं ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की जनस्वास्थ्य आपदा की चेतावनी को पूरी गंभीरता से नहीं लिया। हालांकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन पर भी चेतावनी जारी करने में देरी करने के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को फ़रवरी में जनस्वास्थ्य आपदा घोषित कर दिया था। लान्सेट में रिचर्ड हॉर्टन भी जनवरी के महीने से ही महामारी की गंभीरता के बारे में लिखते आ रहे थे। ब्रितानी चिकित्सा संस्थाएं महामारी की गंभीरता का अंदाज़ा लगाने के लिए चीनी चिकित्सा संस्थाओं से सीधा संपर्क भी कर सकती थीं। लेकिन न तो चिकित्सा संस्थाओं ने ऐसा कुछ किया और न ही सरकार ने किसी की बात सुनी।

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रिचर्ड हॉर्टन का कहना है कि चिकित्सा संस्थाओं और सलाहकारों के दब्बूपन और सरकार की लापरवाही की वजह से लॉकडाउन लगाने में तीन से चार हफ़्तों की देरी हुई। महामारी की गंभीरता को और उससे बचाव करने के लिए मास्क, दस्ताने और गाऊन जैसे पीपीई उपकरणों के महत्व को न समझ पाने के कारण सरकार समय रहते बचाव के लिए ज़रूरी साधन नहीं जुटा पाई। इस भूल की कीमत हज़ारों लोगों को अपनी जान से चुकानी पड़ी। रिचर्ड हॉर्टन का मानना है कि समय रहते कदम उठा लिए जाते तो ब्रिटन में मारे गए 41,700 लोगों में से कम से कम आधे लोगों की जानें बचाई जा सकती थीं। ब्रिटेन ने अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें बंद करने और बड़े शहरों में सार्वजनिक यातायात बंद करने में बहुत देर की।

लान्सेट के संपादक की यह आलोचना केवल ब्रितानी सरकार और उसकी चिकित्सा संस्थाओं पर ही नहीं बल्कि अमेरिका, ब्राज़ील, इटली, स्पेन, रूस और भारत जैसे और भी बहुत से ऐसे देशों पर सटीक बैठती है जो बुरी तरह महामारी का शिकार हुए हैं। मिसाल के लिए कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। इटली और ग्रीस दोनों आमने-सामने के देश हैं बीच में संकरा सा एड्रियाटिक सागर पड़ता है। इटली में लॉकडाउन करने में देरी और टैस्ट-ट्रेस-आइसोलेट करने की प्रक्रिया में देरी होने की वजह से 2,36,651 लोगों को यह महामारी लगी और 34,301 लोग मारे गए। जबकि ग्रीस में समय रहते मुस्तैदी से कदम उठाने के कारण केवल 3,121 लोगों को बीमारी लगी और 183 लोग ही मारे गए। इटली की आबादी ग्रीस से छह गुना है। लेकिन ग्रीस आर्थिक मामले में इटली से बहुत कमज़ोर है और उसकी अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह पर्यटन पर आश्रित है।

Black Lives Matter आंदोलन और डोनाल्ड ट्रंप की बदनीयती

महामारी के ख़तरे को समय रहते भांपने और चेतावनियों से सजग होकर तत्काल क़दम उठाने के बावजूद वही देश रोकथाम में कामयाब रहे हैं जहां सामाजिक और राजनीतिक मतभेदों के कारण लोग बँटे हुए नहीं थे और सब ने मिलजुल कर महामारी का सामना किया। इसीलिए न्यूज़ीलैंड, वियतनाम, ताईवान और दक्षिण कोरिया महामारी की रोकथाम में कामयाब रहे। जबकि अमेरिका, ब्राज़ील, ब्रिटेन और भारत बुरी तरह नाकाम। अमेरिका और ब्राज़ील में तो सरकारें अपनी ही वैज्ञानिक संस्थाओं के ख़िलाफ़ मोर्चे खोले हुए हैं। पार्टी विचारधाराओं को लेकर देश के लोग इतने बँटे हुए हैं कि एक-दूसरे के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं। ब्राज़ील में हालात इतने ख़राब हो चुके हैं कि अस्पतालों और मरघटों में जगह नहीं है। राष्ट्रपति जाइर बोल्सोनारो को कोविड-19 महामारी अपनी सरकार के ख़िलाफ़ साज़िश नज़र आती है। इसलिए सरकार ने अब महामारी से मरने वालों और बीमार होने वालों की सूचना देना ही बंद कर दिया है। पेरू, चिली और मैक्सिको के हालात भी गंभीर हैं।

लोग चीन में मरने वालों की संख्या पर सवाल उठाते रहे हैं। लेकिन चीन सही-ग़लत सूचना तो देता रहा है। रूस में पता ही नहीं लग पा रहा है कि कितने लोग कहां मर रहे हैं। सवा पांच लाख से ज़्यादा लोगों को महामारी लग चुकी है। लेकिन मरने वालों की संख्या सात हज़ार से नीचे है जिस पर बाकी देशों के आंकड़ों को देखते हुए भरोसा कर पाना मुश्किल है। भारत में देशव्यापी लॉकडाउन के बावजूद अब कारोबार खुलने के साथ-साथ बीमारी तेज़ी से फैल रही है। मृत्युदर दूसरे देशों की तुलना में अभी तक बहुत कम है। लेकिन मॉनसून में बुख़ारों का मौसम आने के बाद हालात कितने काबू में रह पाएंगे कहना मुश्किल है। सरकार ने यदि प्रवासी कामगारों की समस्या का हल करते हुए फ़रवरी में लॉकडाउन किया होता तो शायद हालात बहुत बेहतर होते। लेकिन देश में राजनीतिक कड़वाहट इतनी है और लोगों की आपाधापी की आदतें इतनी ख़राब हैं कि यह सब कर लेने पर भी कितनी रोकथाम हो पाती यह कहना मुश्किल है।

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कुल मिला कर होता वही नज़र आ रहा है जिसका डर था। अमीर और विकसित देशों के बाद अब महामारी ने ग़रीब और विकासशील देशों को निशाने पर ले लिया है। भारत, ब्राज़ील, रूस, मैक्सिको, दक्षिण अफ़्रीका, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नाइजीरिया ये सब बड़ी आबादियों वाले कम विकसित देश हैं जहां की स्वास्थ्य सेवाएं महामारी से बीमार पड़ने वाले लोगों के बोझ से चरमरा सकती हैं। उससे भी बड़ा बोझ अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान का है। अमरीका, यूरोप और जापान तो आसान दरों पर बाज़ार से कर्ज़ लेकर अर्थव्यवस्था को मंदी के दौर से निकाल ले जाएंगे। लेकिन ब्राज़ील, भारत, रूस, दक्षिण अफ़्रीका और नाइजीरिया जैसे देशों को डॉलर में कर्ज़े लेकर अपनी मुद्रा के घटते दामों की वजह से ऊंची दरों पर चुकाने होंगे। इंद्र सराज़ी का शेर है:

जिसका डर था वही हुआ यारो,
वो फ़क़त हम से ही ख़फ़ा निकला।

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