तालिबान के सामने सरेंडर करता अमेरिका!

ट्रंप साहब चाहे जितने जीत के दावे और आइसिस ख़त्म करने के दावे करते फिरें। असलियत में यह समझौता अगर किसी की जीत के रूप में देखा जा सकता है तो वह तालिबान की जीत है।

Taliban, America

अमेरिका-तालिबान में शांति समझौता।

ऐसा लग रहा है कि चीन के हूबे प्रांत और उसकी राजधानी वूहान में Corona वायरस का फैलाव अब धीमा पड़ चुका है। नए रोगियों की संख्या और मरने वाले रोगियों की संख्या दिनों-दिन घटती आ रही है। चीन के दूसरे प्रांतों और महानगरों में बंद पड़े कारख़ाने खुलने लगे हैं और दफ़्तरों में काम हो रहा है। हालांकि हूबे प्रांत और आस-पास के लगभह 6 करोड़ लोग अभी तक घरों में बंद रहने को मजबूर हैं। यातायात अभी तक बंद है और बाकी चीन में भी यातायात सामान्य नहीं है। चीन के कारख़ाना उत्पादन में इतिहास की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई है।

चीन में जहां हालात सुधर रहे हैं वहीं बाकी दुनिया में वायरस के फैलाव से समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। चीन के बाद दक्षिण कोरिया, ईरान और उत्तरी इटली में Corona वायरस का सबसे ज़्यादा फैलाव हुआ है। कुल मिलाकर वायरस रोगियों की संख्या 90 हज़ार तक जा पहुंची है और मरने वालों की संख्या तीन हज़ार तक पहुंच गई है। अमेरिका पूर्वोत्तरी राज्य वॉशिंगटन में छह ऐसे रोगियों का पता चला है जिनका किसी वायरस प्रभावित क्षेत्र से कोई संपर्क नहीं रहा है। ये रोगी न तो किसी वायरस प्रभावित क्षेत्र में गए हैं और न ही किसी ऐसे व्यक्ति से मिले हैं जो उन क्षेत्रों से आया हो। इनमें से दो रोगियों की मौत भी हो गई है। न्यूयॉर्क में भी एक महिला रोगी का पता चला है जो ईरान की यात्रा से लौटी थी। दिल्ली में भी दो रोगियों का पता चला है।

संक्रामक रोग विशेषज्ञ इस बात को लेकर काफ़ी हैरान हैं और समझ नहीं पा रहे हैं कि Corona वायरस इन लोगों तक कैसे पहुंचा होगा। वायरस प्रभावित क्षेत्रों और लोगों से कोई संपर्क न रखने वाले लोगों में वायरस के फैलाव को देखकर संक्रामक रोग विशेषज्ञ यह आशंका जताने लगे हैं कि यह वायरस कहीं भी किसी भी समय तेज़ी से फैल सकता है। जब तक इसका टीका तैयार नहीं हो जाता तब तक, रोगियों का क्वारंटीन कर बाकी लोगों से अलग रखते हुए इलाज करने के अलावा और कोई उपाय नहीं है। ब्रिटेन में भी 13 नए रोगियों का पता चला है और इटली के अलावा यूरोप के दूसरे देशों में भी रोगियों की संख्या बढ़ रही है। ऑस्ट्रेलिया में भी एक ऐसा रोगी मिला है जिसका वायरस प्रभावित क्षेत्रों से कोई संपर्क नहीं रहा।

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संक्रामक रोग विशेषज्ञों का कहना है कि Corona वायरस भले ही SARS जितना घातक नहीं है। इसके रोगियों में से लगभग दो प्रतिशत की ही मौत होती है और उनमें भी ज़्यादातर लोग वे होते हैं जो या तो बूढ़े हैं या फिर दूसरी बीमारियों के शिकार हैं। फिर भी आम ज़ुकाम की तुलना में यह बीस गुना घातक है। जहां तक इसके फैलने की बात है। तो यदि 2009 के स्वाइन फ़्लू से इसकी तुलना करें तो स्वाइन फ़्लू छह महीने के भीतर लगभग डेढ़ अरब लोगों में फैला था जिससे लगभग डेढ़ लाख मौतें हुई थीं। यदि Corona वायरस उसी तरह फैलता है तो इसके आर्थिक प्रभाव का अंदाज़ा भी लगा पाना मुश्किल है।

इसलिए अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उपराष्ट्रपति माइक पेंस की अध्यक्षता में एक रोगरक्षा समिति का गठन किया है और ब्रितानी प्रधान मंत्री बोरिस जॉन्सन ने रोकथाम की युद्ध स्तर पर तैयारी करने के लिए कोबरा समिति की बैठक की है। अमेरिका ने ईरान के साथ यातायात बंद कर दिया है और दक्षिण कोरिया व उत्तरी इटली के वायरस प्रभावित इलाकों से यातायात पर कड़ी चेतावनी जारी की है। अब तक दुनिया भर की पांच लाख से ज़्यादा उड़ानें रद्द हो चुकी हैं। एशिया में जहाज़ों से होने वाली समुद्री सैर ठप हो चुकी है।

जापान को अपने स्कूल बंद करने पड़े हैं, खेल आयोजन रद्द हो रहे हैं जिससे जापान में होने जा रहे इस वर्ष के ओलंपिक खेलों पर भी अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं। अंतर्राष्ट्रीय मोटर शो, विमान शो, व्यापार मेले, टैक सम्मेलन और व्यापारिक संमेलन रद्द हो रहे हैं। डिज्नी को चीन और जापान के अपने मनोरंजन पार्क बंद करने पड़े हैं और फ़ेसबुक ने अपना वार्षिक टैक सम्मेलन रद्द कर दिया है। चीन से आने वाले पुर्ज़ों और माल की भारी किल्लत है और बड़ी-बड़ी कंपनियां इस तिमाही में मुनाफ़ा कम होने की चेतावनियां जारी कर रही हैं। जापान के कार उत्पादन में दस प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है और चीन की विकास दर में भारी गिरावट की आशंका है।

Corona वायरस के दुनिया भर में बढ़ते फैलाव और उसके कारोबार पर पड़ते असर को देखते हुए शेयर और वित्तीय बाज़ारों में नाटकीय बिकवाली का दौर जारी हो गया है। पिछले सप्ताह वॉशिंगटन राज्य में रोगियों का पता चलने की ख़बर मिलते ही अमेरिकी शेयर बाज़ार प्रतिदिन एक हज़ार अंकों की रफ़्तार से गिरने लगा और सप्ताह ख़त्म होते-होते साढ़े तीन हज़ार अंकों यानी कोई 12 प्रतिशत की गिरावट के साथ बंद हुआ। एक हफ़्ते में साढ़े तीन हज़ार अरब डॉलर की पूंजी ग़ायब हो गई। लोगों ने पैसा शेयर बाज़ारों से निकाल कर अमेरिकी केंद्रीय बैंक के दस साल की अवधि वाले बॉन्ड में और सोने में लगाना शुरू किया। सोने के दामों में प्रतिदिन पचास डॉलर प्रति ओंस से भी बड़े उतार-चढ़ाव आने लगे और दस साल वाले अमेरिकी बॉन्ड की ब्याज दर घट कर इतिहास के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई। यूरोप और एशिया के दूसरे बड़े बाज़ार भी इस हाहाकार से बच नहीं पाए। 2008 के वित्तीय संकट के बाद से शेयर बाज़ारों का यह सबसे बुरा सप्ताह साबित हुआ। आज बाज़ारों में कुछ रिलीफ़ रैली दिखाई दे रही है लेकिन जब तक दुनिया के सारे बड़े केंद्रीय बैंक मिलकर विश्वास की बहाली के लिए कोई कदम नहीं उठाते तब तक यह हड़कंप शांत होता दिखाई नहीं देता।

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हालांकि G-20 देशों के वित्त मंत्रियों ने विश्वास बहाल करने लिए मिलजुल कर कदम उठाने का ऐलान किया है और अमेरिकी केंद्रीय बैंक के अध्यक्ष ने भी आश्वासन दिया है कि वे परिस्थिति को देखते हुए आवश्यक कदम उठाने को तैयार हैं। लेकिन अनिश्चितता बाज़ारों की सबसे बड़ी दुश्मन मानी जाती है। जब तक इस वायरस का फैलना धीमा नहीं पड़ जाता या इसका कोई टीका तैयार नहीं हो जाता, तब तक निवेशकों की घबराहट दूर होने के आसार नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी बाज़ारों से संयम से काम लेने की अपील की है। राष्ट्रपति ट्रंप और उपराष्ट्रपति माइक पेंस ने भी इत्मीनान रखने की अपील की है। ट्रंप साहब की मुश्किल यह है कि उनके सत्ता में आने के बाद से शेयर बाज़ार में जितना उछाल आया था उसका आधा इस वायरस ने एक हफ़्ते में ही साफ़ कर दिया है। वे अपने चुनाव में शेयर बाज़ार के उछाल को भुनाने के सपने सजाए बैठे थे। यदि वायरस फैलता है और बाज़ार मंदी की राह पर चल पड़ता है तो उनके सपने धरे रह जाएंगे।

राष्ट्रपति ट्रंप का दूसरा सपना था चीन और भारत के साथ बड़ी व्यापार संधियां करने का जिन्हें वे रोज़ग़ार लाने के दावे करते हुए चुनाव में भुना सकते। मगर चीन के साथ दो साल लंबी तनातनी के बाद भी वे केवल एक छोटा सा व्यापार समझौता ही कर पाए और भारत के साथ वह भी संभव नहीं हुआ। लॉकहीड मार्टिन और बोइंग में बने लड़ाकू हैलीकॉप्टर बेचने के और एक्सॉन मोबिल के साथ गैस और तेल की आपूर्ति बेहतर बनाने के सौदे ज़रूर हुए लेकिन मुक्त व्यापार सौदे की बात तो छोड़िए, न भारत छह अरब डॉलर के तरजीही व्यापार दर्जे को बहाल करा पाया और न ही अमेरिका अपने चिकित्सा उपकरणों, मोटर साइकिलों और कृषि के माल पर शुल्क कम करा पाया।

राष्ट्रपति ट्रंप अभी अहमदाबाद की रैली और अपने स्वागत-सत्कार से मंत्रमुग्ध नज़र आते हैं। भारत से लौटते समय उन्होंने भारत की ऊंची शुल्क दरों की कई बार शिकायत की थी। लेकिन अमेरिका लौटने के बाद अपनी जनसभाओं में भारत की रैलियों और उनके स्वागत-सत्कार में उमड़े लोगों की कहानियां सुनाते रहते हैं। लेकिन भारत को इस मंहगी यात्रा से क्या हासिल हुआ? प्रेक्षकों की राय है कि भारत-अमेरिका संबन्धों को सामरिक स्तर की समग्र वैश्विक साझीदारी का दर्जा मिलने और कश्मीर, धार्मिक आज़ादी और दिल्ली के दंगों पर ट्रंप के चुप्पी साधे रखने के सिवा भारत को कुछ ख़ास हासिल नहीं हो सका है। आप कह सकते हैं कि ट्रंप और मोदी के बीच आपसी विश्वास और गहरा हुआ है जिससे मुक्त व्यापार संधि करने में आसानी होगी बशर्ते कि ट्रंप अगला चुनाव जीत जाएं।

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लेकिन अगर अमेरिका, यूरोप, एशिया और अफ़्रीका के भारत से बाहर के समाचार माध्यमों पर नज़र डालें तो भारत और अमेरिका के साझा बयान और ट्रंप की भारत सराहना दिल्ली दंगों को लेकर हुई कड़ी आलोचना में खोकर रह गई है। ज़रा न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट, गार्डियन, टाइम्स, लामोंद, Der Spiegel, BBC, CNN और अलजज़ीरा की हेडलाइन्स और संपादकीय शीर्षकों पर नज़र दौड़ाएं तो लगता है जैसे भारत में मुसलमानों की हालत बर्मा के रोहिंग्या मुसलमानों से भी बदतर है और प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री शाह के इरादे तैमूरलंग और नादिर शाह जैसे हैं। हिंदू दंगाई मुसलमानों को मार रहे हैं – मोदी ने भड़काई आग – दिल्ली पुलिस ने लगाया पलीता – दिल्ली जलती रही मोदी पार्टी करते रहे – पीटे, लिंच किए और ज़िंदा जलाए गए – यह दंगा नहीं मुस्लिम विरोधी बर्बरता है – नरेंद्र मोदी ने कराया रक्तपात – ऐसे-ऐसे शीर्षकों वाली एकतरफ़ा रिपोर्टों और संपादकीयों में हिंदुओं को हुए जानमाल के नुक़सान का ज़िक्र तक नहीं है। इसलिए तुर्की और पाकिस्तान ने भी भारत को मानवाधिकारों की नसीहत दे डाली है।

आप कह सकते हैं कि इस तरह की सतही और एकतरफ़ा रिपोर्टें दंगों से ज़्यादा पत्रकारिता की चिंताजनक हालत को बयान करती हैं। लेकिन इनका विदेशों में देश और समाज के प्रति एक आमराय पर असर पड़ता है। प्रधानमंत्री को इसी महीने व्यापार वार्ताओं के लिए यूरोप आना है। यूरोपीय संघ भारत का सबसे बड़ा व्यापार साझीदार है। देश की आर्थिक मंदी और दुनिया की अर्थव्यवस्था पर मंडरा रहे Corona वायरस के ख़तरे के माहौल में यूरोप के साथ मुक्त व्यापार संधि करना मोदी सरकार के लिए बेहद अहम हो गया है। क्योंकि व्यापार बढ़ाए बिना न तो आर्थिक मंदी से उबरा जा सकता है और न ही रोज़गार पैदा किए जा सकते हैं। हिंद-प्रशान्त के व्यापार गुट के साथ समझौते से भारत पहले ही हाथ खींच चुका है। अमेरिका के साथ इस साल समझौता होना मुश्किल जान पड़ रहा है। ऐसे में यूरोप संघ ही एक ऐसी मंडी बचती है जहां व्यापार को फैलाया जा सकता है बशर्ते कि संधि हो जाए। लेकिन दिल्ली दंगों से जैसी छवि बनी है उसके चलते मोदी को यूरोप से स्वागत-सत्कार और गर्मजोशी की जगह सार्वजनिक प्रदर्शनों का सामना करना पड़ सकता है।

पिछले सप्ताह एक और ऐसी घटना हुई है जो भारत की सामरिक सिरदर्द साबित हो सकती है। चुनावी वादे को पूरा करने के लिए मजबूर होकर राष्ट्रपति ट्रंप ने इस्लामी कट्टरपंथी तालिबान गुट के साथ शांति समझौता कर लिया है जिसके तहत अमेरिका अफ़गानिस्तान में बची अपनी सेना में से आधे सैनिक साल के मध्य तक हटा लेगा। अफ़गान सरकार के साथ बातचीत की मेज़ पर आने के बदले तालिबान ने हमले रोक लेने का वादा किया है और बदले में पांच हज़ार तालिबान क़ैदियों को छोड़ने की मांग रखी है। यदि तालिबान शांति बनाए रखते हैं और अगले चौदह महीनों के भीतर अफ़गान सरकार के साथ एक ऐसी साझा सरकार बनाने को राज़ी हो जाते हैं जिसमें औरतों के अधिकार और कानून व्यवस्था की गारंटी हो, तो अमेरिका और नेटो अपने सारे सैनिक हटा लेंगे।

कई बातें ऐसी हैं जिन्हें तालिबान शांति समझौते में साफ़ नहीं किया गया है। मसलन, तालिबान को पाकिस्तान से मिलने वाली पनाह और प्रशिक्षण कैसे बंद होगा और इसकी गारंटी कौन देगा। क्या तालिबान हक्कानी गुट जैसे अपने उन आतंकवादी संगठनों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करेंगे जिन्हें अमेरिका आतंकवादी मानता है? मौजूदा अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ़ ग़ानी का कहना है कि तालिबान को केवल अल क़ायदा ही नहीं बल्कि लश्कर और जैश जैसे सभी आतंकवादी गुटों के साथ नाता तोड़ना होगा, जो भारत की भी मांग रही है। लेकिन क्या इसके लिए तालिबान तैयार होंगे?

जहां तक तालिबान का सवाल है तो वे तो अफ़ग़ान सरकार को अमेरिका की कठपुतली सरकार मानते हैं इसलिए कब तक और कहां तक उसके साथ काम करेंगे? अशरफ़ ग़ानी का यह भी कहना है कि तालिबान के पांच हज़ार क़ैदियों को एकसाथ आज़ाद करना संभव नहीं है। इनमें से बहुत से ख़तरनाक आतंकवादी भी हो सकते हैं। क्या इनको छोड़ने से शांति कायम रह पाएगी? सबसे बड़ी समस्या तो यही है कि अभी अफ़गान सरकार का नेता कौन हो इसी को लेकर अशरफ़ ग़ानी और डॉ अब्दुल्ला अब्दुल्ला के बीच झगड़ा चल रहा है। ऐसे में संभावना इस बात की ज़्यादा है कि आधे अमेरिकी सैनिकों और नेटो सैनिकों के जाते ही गर्मियों में बातचीत भंग हो जाए और अस्सी के दशक के अंत के मुजाहिदीन गृहयुद्ध वाले हालात पैदा हो जाएं।

भारत के लिए इसका मतलब होगा अपना अरबों डॉलर का निवेश ख़तरे में पड़ जाना और अफ़गानिस्तान में काम और व्यापार करने वाले भारतीयों को वापस लाने की नौबत आना। पाकिस्तान को भी अपनी सेना और आतंकवादियों को पश्चिमी अफ़गान सीमा से हटा कर भारतीय सीमा पर लगाने का मौक़ा मिल जाएगा जो भारत के लिए एक बड़ा सिरदर्द साबित हो सकता है। हो सकता है कि भारत को अभी इस समझौते की शर्तों को लेकर थोड़ा संतोष मिला हो लेकिन इस समझौते के कामयाब होने और तालिबान और पाकिस्तान के दोबारा अपनी बातों से मुकर जाने की संभावना ज़्यादा प्रबल है।

जहां तक अमेरिका की बात है, तो ट्रंप साहब चाहे जितने जीत के दावे और आइसिस ख़त्म करने के दावे करते फिरें। असलियत में यह समझौता अगर किसी की जीत के रूप में देखा जा सकता है तो वह तालिबान की जीत है। तालिबान अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी फ़ौज को खदेड़ने के लिए लड़ते आ रहे थे। उनका यह सपना पूरा हो रहा है और उनके क़ैदी भी रिहा हो रहे हैं। उनका हिमायती और पनाहगाह पाकिस्तान भी उनके साथ है तो फिर जीत किसकी हुई? अमेरिका की या तालिबान की? अमेरिका न तो तालिबान को ख़त्म कर पाया है। न उन्हें पाकिस्तान में मिलने वाली पनाह का कोई इंतज़ाम कर पाया है। न ही स्थिर और लोकतांत्रिक सरकार बना पाया है और न ही अफ़गानिस्तान से अल कायदा और आइसिस का सफ़ाया कर पाया है। तो फिर बीस साल लंबी लड़ाई से हासिल क्या हुआ है? सिवा इसके कि अमेरिकी करदाता का दो हज़ार अरब डॉलर स्वाहा हो गया है और तालिबान के बने रहने से दुनिया को यह संदेश और जा रहा है कि इस्लामी कट्टरपंथ के सामने दुनिया की कोई ताकत नहीं टिक सकती। राना आमिर लियाक़त की पंक्तियां हैं:

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p style=”text-align: justify;”>’आमिर’ इस तख़्त में ताबूत नज़र आता है,
देखते हम हैं ये दरबान कहां देखते हैं…

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