छत्तीसगढ़ में क्यों एक बड़ी समस्या है नक्सलवाद? इन प्वाइंट्स पर है बदलाव की जरूरत

Naxalites: छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के खिलाफ ताबड़तोड़ अभियान जारी है। बस्तर में बड़े पैमाने पर नक्सल अभियान चलाए जा रहे हैं।

Naxalites

नक्सलियों (Naxalites) की वजह से बीते 4 सालों में सुरक्षाबलों को काफी नुकसान पहुंचा है। 2020 के बाद से ये तीसरा बड़ा नक्सली हमला था। इस हमले से करीब 10 दिन पहले ही एक IED ब्लास्ट भी हुआ था, जिसमें 5 डीआरजी के जवान शहीद हो गए थे।

रायपुर: छत्तीसगढ़ में नक्सलियों (Naxalites) के खिलाफ ताबड़तोड़ अभियान जारी है। बस्तर में बड़े पैमाने पर नक्सल अभियान चलाए जा रहे हैं। 2 अप्रैल की रात को भी 2000 से ज्यादा जवान बीजापुर और सुकमा के जंगलों में घुसे थे। ये वो इलाके हैं, जहां नक्सलियों ने अपना सेफ जोन बना रखा है। इसके बाद शनिवार शाम (3 अप्रैल 2021) को इस बात की जानकारी मिली कि नक्सलियों और सुरक्षाबलों के बीच मुठभेड़ हुई है और इसमें 5 जवान शहीद हुए हैं। खबर ये भी थी कि कई जवान लापता हैं। बाद में रविवार 4 अप्रैल को ये साफ हो गया कि हमारे 22 जवान शहीद हुए हैं।

नक्सलियों (Naxalites) की वजह से बीते 4 सालों में सुरक्षाबलों को काफी नुकसान पहुंचा है। 2020 के बाद से ये तीसरा बड़ा नक्सली हमला था। इस हमले से करीब 10 दिन पहले ही एक IED ब्लास्ट भी हुआ था, जिसमें 5 डीआरजी के जवान शहीद हो गए थे।

देखा जाए तो नक्सली मुठभेड़ों में केवल मरने वालों की संख्या और घायलों की संख्या बदल रही है, लेकिन बीते कुछ सालों से बस्तर के जंगलों की हालत जस की तस बनी हुई है। कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) के बैन होने के 12 साल बाद और पूर्व पीएम मनमोहन सिंह द्वारा नक्सलवाद को देश की बड़ी आंतरिक समस्या बताए जाने के 11 साल बाद भी नक्सलवाद एक बड़ी चुनौती है। साल 2000 में छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद चरम पर था, जब यहां 200 से ज्यादा जिले नक्सल प्रभावित थे और बस्तर के अबूझमाड में 700 किलोमीटर का कॉरिडोर था, जो कि नक्सलियों का मुख्यालय था।

आखिर ऐसा क्या है जो छत्तीसगढ़ को नक्सलियों (Naxalites) का मजबूत गढ़ बनाता है? क्यों सारे हमले एक ही नजरिए से होते हैं? क्यों हर बार सुरक्षाबलों के जवानों की शहादत और उनके परिजनों की दुख से भरीं चीखें सुनाई पड़ती हैं? क्यों हर बार बस यही सुनाई देता है कि करारा जवाब दिया जाएगा? नक्सलवाद के खिलाफ छत्तीसगढ़ की लड़ाई अपने सुरक्षाकर्मियों के लिए विशेष रूप से चुनौतीपूर्ण है। यहां सेंट्रल और स्टेट फोर्स के सेट में काफी भिन्नता है।

विश्वास की कमी

जंगल, घुमावदार इलाके और बीजापुर, सुकमा, दंतेवाड़ा और नारायणपुर जिलों में एक मजबूत माओवादी (Naxalites) नेटवर्क, नक्सलियों को फायदा पहुंचाता है। कुछ इनफॉरमर्स हैं लेकिन फोन नेटवर्क अभी भी काफी कमजोर हैं। कोई भी ह्यूमन इंटेलीजेंस अगर सुरक्षाबलों तक पहुंचता भी है, तो काफी देर हो चुकी होती है। इसमें कहीं न कहीं विश्वास की कमी भी आड़े आती है।

इंडियन एक्सप्रेस अखबार के मुताबिक, बीजापुर के एसपी कमलोचन कश्यप ने 2 अप्रैल को शुरू हुए एनकाउंटर पर कहा था कि ये टोपोग्राफी की जगह डेमोग्राफी है, जो पुलिस को अधिक प्रभावित करती है।

उन्होंने कहा था कि यहां सबसे बड़ी समस्या ये है कि बच्चों से लेकर बड़ों तक, सभी किसी ना किसी तरह माओवादियों के लिए काम करते हैं। सशस्त्र कैडर आने तक, आंदोलन की जानकारी से लेकर जमीन पर सुरक्षाबलों को उलझाने तक, इन ग्रामीणों ने खुफिया तरीके से माओवादियों के लिए बहुत काम किया। इन इलाकों में दशकों से ब्रेनवॉश कैंपेन चलाया जा रहा है।

इंडियन एक्सप्रेस अखबार के मुताबिक, छत्तीसगढ़ सरकार के एक अधिकारी, जिन्होंने बस्तर के जिलों में कई साल जिलाधिकारी के रूप में काम किया है, उन्होंने बताया कि विश्वास की कमी आपसी और स्पष्ट थी।

उन्होंने कहा कि कोबरा जवान राकेश सिंह मनहास की रिहाई की तस्वीर को जरा ध्यान से देखिए। आप पाएंगे कि हजारों ग्रामीण वहां बैठे हुए हैं। सुकमा और बीजापुर के अंदरूनी इलाकों में ये तस्वीर नक्सलियों के नेटवर्क के बारे में बताती है। ग्रामीणों की ये पीढ़ी जो वहां बैठी हुई है, वो आज भी इस बात को मानती है कि माओवादी उनकी सच्ची सरकार हैं और हम (सरकार और प्रशासन) बाहरी और हमलावर लोग हैं।

उन्होंने ये भी कहा कि नक्सलियों को दिल और दिमाग से जीतने का पुराना तरीका विशेष रूप से तब कठिन हो जाता है, जबकि इतना बड़ा हमला नक्सलियों की ओर से किया गया हो।

इंटेलीजेंस की समस्या

छत्तीसगढ़ में हुए एनकाउंटर के बाद सीएम भूपेश बघेल ने कहा था कि राज्य सरकार माओवादियों (Naxalites) के गढ़ में घुसेगी और नए कैंप बनाएगी। हालांकि इस मुद्दे पर काफी समीक्षा की जरूरत है, जिससे केवल कैंप्स की संख्या ना बढ़े बल्कि उनका ज्यादा से ज्यादा उपयोग किया जा सके।

ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि जिन जगहों पर सुरक्षाबलों के कैंप हैं, वो जगह अब वॉर जोन बन गई हैं। लेकिन हमें इन कैंप्स की जरूरत है तो हम इस चीज पर काम कर सकते हैं कि कैसे इन कैंप्स का बेहतर तरीके से ज्यादा से ज्यादा उपयोग किया जा सके। माओवादी ग्रामीणों को हमारे खिलाफ भड़काते हैं, इसका समाधान निकालना जरूरी है।

एक अधिकारी के मुताबिक, हमें ये जानना होगा कि ये ग्रामीण चाहते क्या हैं? इनकी जरूरतों को पूरा कर हम इनका विश्वास हासिल कर सकते हैं। ग्रामीण अपने पशुओं के लिए डॉक्टर्स चाहते हैं, वे हेल्थ कैंप्स चाहते हैं और कृषि कार्य में मदद चाहते हैं। राज्य सरकार को इस दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाने की जरूरत है।

इसके अलावा अगर हमारे पास ह्यूमन इंटेलीजेंस की कमी है, तो हमें इस दिशा में भी फोकस की जरूरत है। हम टेक्निकल इंटरसेप्शन और ड्रोन्स का सहारा ले सकते हैं। लेकिन इस एनकाउंटर ने ये समझाया है कि हमें जो भी जानकारी मिलती है, वो हमेशा हमारे लिए फायदेमंद नहीं हो सकती।

सूत्रों का कहना है कि करीब डेढ़ साल पहले दंतेवाड़ा पुलिस ने ऊंचाई पर एक इनफॉरमेशन रिसीवर सेटअप किया था। ये इंटरसेप्ट्स के लिए था। इस बीच एक सीनियर अधिकारी ने कहा कि हमें ये सोचना बंद कर देना चाहिए कि माओवादी गांव के लोग हैं, वो क्या जान पाएंगे? ऐसा लगता है कि जैसे वे ज्यादातर एनकाउंटर से पहले ही मामले को भांप लेते हैं। क्योंकि जब हम मौके पर पहुंचते हैं तो हमें खाली जगहें मिलती हैं और वे तब हमला करते हैं, जब हमारी फोर्स मौके से लौट रही होती है।

संचालन और कई एजेंसियों का शामिल होना

सूत्रों का कहना है कि छत्तीसगढ़ में जब नक्सल ऑपरेशन करना एक आम बात हो गई है, ऐसे में संचालन और तमाम एजेंसियों के मेल-जोल को एक बार रिव्यू जरूर करना चाहिए। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि जब कोई बड़ा नक्सल ऑपरेशन किया जा रहा हो, तो उसका गुप्त रहना असंभव हो जाता है।

एक सीनियर CRPF अधिकारी ने बताया कि बड़े नक्सल ऑपरेशन का गुप्त रूप से होना असंभव है। पूरे एरिया को ये पहले से मालूम हो जाता है कि कुछ बड़ा होने वाला है। कैंप्स में राशन जा रहा होता है और बड़े अधिकारी इधर से उधर मूव कर रहे होते हैं। लोग अपने परिजनों से फोन पर बात कर रहे होते हैं। ऐसे में कैसे इन बातों को गुप्त रखा जा सकता है? उन्होंने कहा कि आज की तारीख में हम ड्रोंस पर निर्भर हैं, ऐसे में कोई ड्रोन ऐसा नहीं है जो दिखाई ना दे। सब दिखाई ही पड़ते हैं। जब माओवादी इन्हें देखते हैं, तो समझ जाते हैं कि सुरक्षाबल इस इलाके में कुछ करना चाह रहे हैं।

इस बारे में बीजापुर के एसपी कमलोचन कश्यप ने बताया था कि हमारे साथ चुनौती ये होती है कि माओवादियों (Naxalites) के साथ मुठभेड़ तब शुरू होती है, जब हमारा जवान 30 किलो वजन साथ लेकर 25 किलोमीटर चल चुका होता है। यानी ना हमारे जवान की नींद पूरी हो पाती है और ना उन्हें सही तरीके से आराम मिल पाता है। ऐसी स्थिति में भी हमारे जवान पूरी बहादुरी के साथ नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब देते हैं।

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इसके अलावा नक्सलियों (Naxalites) के खिलाफ एक चुनौती ये भी है कि यहां कई एजेंसियां हैं, जो ऑपरेशन में शामिल हैं। इसमें सीआरपीएफ और इसकी स्पेशलाइज्ड क्रैक टीम, कोबरा, छत्तीसगढ़ पुलिस, एसटीएफ और डीआरजी के जवान शामिल होते हैं।

इन जवानों के साथ अलग-अलग तरह की समस्याएं होती हैं, किसी को परिवार से मिले काफी वक्त हो चुका होता है, कोई इतनी दूर से पोस्टिंग लेकर आया है कि उसकी आधी से ज्यादा छुट्टियां ट्रैवल में ही निकल जाती हैं और किसी के शरीर को जरूरी आराम ही नहीं मिल पाया है। ऐसे में जवान भी कई बार मानसिक तनाव के प्रेशर में आ जाते हैं। जंगलों में रहकर वह आम जीवन से काफी दूर हो जाते हैं। 

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