एक पूर्व नक्सली कैसे बना लाल आतंक का सबसे बड़ा दुश्मन, जानें पूरी कहानी…

अब वह नक्सलियों की हरी या काली वर्दी नहीं पहनाता बल्कि फोर्स की कामाफ्लॉज वर्दी पहनकर नक्सल विरोधी ऑपरेशनों में लाल आतंक (Naxalism) के खिलाफ मजबूती से खड़ा है।

प्रतीकात्मक तस्वीर।

छत्तीसगढ़ सरकार सरेंडर करने वाले नक्सलियों (Naxalites) को इतना बेहतर पैकेज दे रही है, जिससे वे शहर में रहकर बेहतर जीवन जी सकते हैं। अपने परिवार और बच्चों का भविष्य बेहतर बना सकते हैं। इसका जीता जागता उदाहरण हैं 5 आऊट आफ टर्न प्रमोशन पाकर पुलिस इंस्पेक्टर बनने वाले पूर्व नक्सली संजय पोटाम उर्फ बदरू। अब वह नक्सलियों की हरी या काली वर्दी नहीं पहनाता बल्कि फोर्स की वर्दी पहनकर नक्सल विरोधी ऑपरेशनों में लाल आतंक (Naxalism) के खिलाफ मजबूती से खड़ा है।

Naxalism

नक्सली कैडरों को पता ही नहीं क्या है माओवाद: देश के नक्सल आंदोलन (Naxal Movement) के इतिहास में सरेंडर के बाद पहली बार 5 आऊट आफ टर्न प्रमोशन पाकर पुलिस इंस्पेक्टर बनने वाले पूर्व नक्सली संजय पोटाम उर्फ बदरू का मानना है कि नक्सलवाद (Naxalism) अब सिर्फ छलावा बनकर रह गया है। बस्तर के जो लोग नक्सली बनकर जंगलों में घूम रहे हैं, उनमें से ज्यादातर को माओवाद (Naxalism) क्या है, ये नहीं पता। सिर्फ दबाव में नक्सली संगठन के साथ जुड़े और फिर गहराई से इसमें धंसते चले गए। ऐसे लोगों को भी सरेंडर कर मुख्य धारा में लौटना चाहिए।

संगठन में मतभेद के बाद कर दिया सरेंडर: संजय पोटाम उर्फ बदरू नक्सलियों के दरभा डिवीजन का डीवीसी सेक्रेटरी था। एक दशक से भी अधिक समय तक नक्सली संगठन (Naxal Organizations) में रहकर आतंक मचाया। इस दौरान डीवीसी सेक्रेटरी निर्मला से उसके मतभेद हुआ। यह मतभेद काफी बढ़ गया। धीरे-धीरे संगठन से उसका मोहभंग हो गया और उसने साल 2013 में दंतेवाड़ा एसपी के सामने सरेंडर किया।

Sukma Naxal Attack: सैटेलाइट ट्रैकर से संपर्क टूटने से हुआ नुकसान, अब सुरक्षा बलों ने बदली रणनीति

लाल आतंक के खिलाफ लड़ाई में शामिल: सरेंडर के बाद गोपनीय सैनिक के तौर पर उसने कई नक्सल विरोधी अभियानों में पुलिस के साथ मिलकर लाल आतंक (Naxalism) के खिलाफ लड़ाई लड़ी। नक्सलियों की रणनीति और अन्य तौर तरीकों से अच्छी तरह वाकिफ होने से पुलिस को संजय से काफी मदद मिली। यही बजह रही कि 7 साल में दंतेवाड़ा पुलिस को कई बड़ी सफलताएं मिलीं।

कभी कल्पना नहीं किया था जिंदगी ऐसे बदल जाएगी: संजय कहते हैं, “आत्म समर्पण के बाद बहुत खुश व संतुष्ट हूं। पहले जंगल का जीवन बहुत कठिन था। व्यक्तिगत जीवन के लिए कोई मायने नहीं थे। परिवार और बच्चों का कोई भविष्य नहीं था। जब से मुख्य धारा में लौटा हूंए बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और पारिवारिक जीवन बेहतर हो गया है। सरेंडर के बाद पत्नी को भी नौकरी मिली है। वह भी खुश है।” वे कहते हैं, “कल्पना भी नहीं की थी कि इतने सारे प्रमोशन मिलेंगे। लेकिन जैसे-जैसे काम करते गए सफलता मिलती गई। गोली पहले भी चलाते थे, अब भी चलाते हैं। लेकिन फर्क सिर्फ इतना है कि पहले बंदूक की नली इस तरफ तानते थे अब जनता की सुरक्षा के लिए नक्सलियों की तरफ तानते हैं।”

कोरोना के इलाज में कारगर साबित हो रही है एड्स-मलेरिया की दवाएं, दुनियाभर में बढ़ी मांग

जुड़ूम के दौरान जुड़े नक्सली संगठन से: संजय बताते हैं कि जब नक्सली संगठन (Naxal Organizations) से जुड़ा तब जुड़ूम का दबाव चल रहा था। माओ या उसके सिद्धांत के बारे में कुछ नहीं जानता था। बस संगठन में जुड़े तो नक्सली (Naxali) बनकर काम करते चले गए। अब भी ज्यादातर लोग नहीं जानते हैं। संगठन में जो चीजें कही जाती हैं वह व्यवहार में संभव नहीं है।

सरेंडर कैडर की वजह से नक्सलियों को हुआ काफी नुकसान: संजय के मुताबिक, अगर बस्तर से नक्सलवाद (Naxalism) खत्म हुआ तो बस्तर भी बाकी जगहों की तरह समृद्ध हो जाएगा। नक्सलवाद (Naxalism) के कारण न तो लोग बाजार जा पा रहे हैं, और न ही अपना कामकाज सामान्य ढंग से कर सकते हैं। आधी पीढ़ी डर के बीच जी रही है। उनका मानना है कि सरेंडर कैडर की वजह से नक्सलियों  को काफी नुकसान पहुंचा है। नई भर्तियां नहीं हो पा रही हैं। पहले हार्डकोर नक्सलियों की संख्या बहुत ज्यादा थी। अब घटकर 200 से भी कम हो गई है। टीसीओसी में सारे जगह के नक्सली मिलकर बड़ी घटना को अंजाम दिए तब कहीं कसालपाड़ जैसी घटना हो सकी।

Sukma Naxal Encounter: नक्सलियों ने मारे गए 3 साथियों की तस्वीर जारी की…

सरकार की पहुंच से नक्सली पड़ेंगे कमजोर: संजय मानते हैं कि अंदरूनी इलाकों में सड़क, पुल-पुलिए बनने और नए कैंपों की स्थापना से नक्सली (Naxalites) कमजोर पड़े हैं। पूर्वी बस्तर डिवीजन लगभग खत्म हो चुका है। दक्षिण बस्तर डिवीजन काफी कमजोर पड़ चुका है। माड़ डिवीजन व पश्चिम-दक्षिण डिवीजन ही फिलहाल मजबूत है। इन इलाकों में मेन रोड से 40 किमी के दायरे में जैसे-जैसे सड़कें बनेंगी और फोर्स के कैंप लगेंगे लोग प्रशासन व फोर्स का साथ देने लगेंगे। सरकार की पहुंच इन गांवों तक होगी तो अपने आप नक्सली कमजोर पड़ते जाएंगे।

खुद सुरक्षित रहते हैं बड़े नक्सली: संजय बदरू नक्सली संगठनों (Naxal Organizations) की असलियत बताते हुए कहते हैं, “संगठन में आंध्र के नक्सलियों (Naxalites) का ही दबदबा है। डीवीसी के ऊपर सभी लोग आंध्र मूल के हैं। हर डिवीजन में आंध्र का एक-एक नक्सली बैठा है जो लड़ते नहीं हैं सिर्फ प्लानिंग कर साथियों को फोर्स से लड़ाने का काम करते हैं। खुद सुरक्षित जगहों पर बैठे रहते हैं। बस्तर के स्थानीय नक्सलियों को संगठन चलाने की जिम्मेदारी नहीं दी जाती है। स्थानीय नक्सली हिड़मा को अगर डीवीसी की जिम्मेदारी मिली भी है तो सिर्फ लड़ाका होने की हैसियत से संचालन के लिए नहीं।”

Hindi News के लिए हमारे साथ फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, यूट्यूब पर जुड़ें और डाउनलोड करें Hindi News App

यह भी पढ़ें