पश्चिम बंगाल से लेकर बिहार तक, जानें कैसे राज्यों ने कसी माओवादियों पर नकेल

अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, छत्तीसगढ़ और झारखंड, माओवादियों (Maoists) को रोकने के लिए अभी भी लगातार संघर्ष कर रहे हैं।

Maoists

फाइल फोटो

नई दिल्ली: माओवादी (Maoists) इस देश की एक बड़ी समस्या हैं लेकिन फिर भी इन पर नकेल कसने में काफी सफलता मिली है। गृह मंत्रालय के मुताबिक, साल 2000 के दौरान जहां 200 जिले माओवादियों की हिंसा की चपेट में थे, वहीं आज ये संख्या केवल 90 जिलों पर सिमट गई है। इनमें भी 30 जिले ही ऐसे हैं, जहां माओवाद ज्यादा है।

अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, छत्तीसगढ़ और झारखंड, माओवादियों को रोकने के लिए अभी भी लगातार संघर्ष कर रहे हैं। वहीं आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और बाकी के राज्यों ने बढ़ते माओवाद को काफी हद तक रोका है। यहां पढ़िए राज्यों का ब्यौरा-

पश्चिम बंगाल

1967 में पहली बार यहां बड़ा माओवादी (Maoists) मूवमेंट हुआ। लेकिन इसे जल्दी ही खत्म कर दिया गया। 1990 में एक बार फिर विद्रोह  हुआ और फिर इसके बाद साल 2000 में राज्य के 18 जिलों में माओवादियों ने अपना प्रभाव बना लिया। 

इस बीच CPM कैडरों को निशाना बनाते हुए राज्य सरकार ने पुलिस को मजबूत बनाया और एक स्पेशल काउंटर माओवादी फोर्स बनाई। इस फोर्स को स्टार्को नाम दिया गया।

इस बारे में पश्चिम बंगाल कैडर के एक पुलिस अधिकारी ने जानकारी दी। उन्होंने बताया कि माओवादी गतिविधियों की खुफिया जानकारी पाने के लिए पश्चिम बंगाल पुलिस ने फोन इंटरसेप्शन का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया था। सीपीएम के पास गांवों में मजबूत नेटवर्क था। 2000 के आखिर में पुलिस ने बंगाल में भाकपा (माओवादी) के लगभग हर दलम में घुसपैठ की थी।

इसके बाद जब ममता बनर्जी सत्ता में आईं और उन्होंने विद्रोहियों को मुख्यधारा में शामिल करना शुरू कर दिया। कई कार्यकर्ताओं ने टीएमसी भी ज्वाइन कर ली। इसके बाद साल 2011 में माओवादी नेता किशनजी को मारकर पुलिस ने एक बड़ा काम किया।

साल 2010 में जहां इस राज्य ने माओवाद (Maoists) से जुड़ी 341 घटनाएं और 252 मौतें देखी थीं, वहीं साल 2014 में हिंसा का ये आंकड़ा जीरो रह गया। यानी हिंसा का एक भी मामला सामने नहीं आया।

ओडिशा

1990 के करीब ओडिशा में माओवाद की समस्या चरम पर थी। 30 जिलों में से 22 जिलों में माओवादी अपने पैर जमा चुके थे। यहां तक ​​कि सरकार के खिलाफ एक आदिवासी आंदोलन भी उभर रहा था।

इसके बाद साल 2008 में माओवादियों ने कोरोपुट में नयागढ़ आर्मरी को निशाना बनाया और 1200 बंदूकें लूट लीं। इनमें 400 इंसास रायफल्स और 20 AK-47 थीं। इस दौरान माओवादियों ने 15 पुलिस के जवानों की हत्या कर दी थी।

साल 2008 ओडिशा के लिए काफी बुरा साबित हुआ था। मलकानगिरी में एंबुश की वजह से इसी साल 37 कमांडो शहीद हुए थे। इसके बाद राज्य ने स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप बनाया, जिसने माओवादी नेताओं को मार गिराया। इस दौरान आदिवासियों को भी SPO बनाया गया, जिससे माओवादी गतिविधियों के बारे में जानकारी मिलती रहे। सरकार ने सरेंडर पॉलिसी शुरू की और आदिवासियों के बीच भूमि पट्टे भी बांटे।

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इससे पिछड़े इलाकों में इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास हुआ और सुरक्षाबलों का हमला करने में मदद मिली। कुछ साल पहले, गुरुप्रियो ब्रिज पूरा हुआ। इससे ओडिशा के वो इलाके भी आपस में जुड़ पाए, जो हमेशा से अलग-थलग थे।

जहां इस राज्य में साल 2008 में 101 लोग हताहत हुए थे, वहां साल 2020 में यहां केवल 9 लोगों की मौत माओवादियों की वजह से हुई है।

महाराष्ट्र

महाराष्ट्र ने अपने 90 के दशक के शुरुआती सालों में गोंदिया, चंद्रपुर और गढ़चिरौली के विदर्भ जिलों में माओवादी संकट देखा। लेकिन महाराष्ट्र ने ना केवल C-60 टीम का गठन किया, बल्कि लोकल आदिवासियों की भर्ती की और पुलिस की क्षमताओं को बढ़ाया। बीते दशक में राज्य में 500 माओवादियों ने सरेंडर किया है और साल 2020 में केवल 30 माओवादी घटनाएं हुई हैं, जिसमें 8 लोगों की मौत हुई है।

बिहार

बिहार में एक समय में माओवादियों ने नेपाल की सीमा से लगे कई इलाकों समेत दक्षिण-पश्चिम में भी अपना प्रभाव जमा लिया था। लेकिन बीते कुछ सालों में माओवादियों के खिलाफ कई अहम नतीजे सामने आए हैं। नीतीश कुमार की सरकार ने भी कई लाभकारी योजनाएं चलाई हैं, जिसका फायदा माओवाद को खत्म करने में मिला है। बिहार में माओवादियों की हार के कारण कुछ हद तक वो खुद भी रहे हैं क्योंकि दलम में जातियों को लेकर काफी मतभेद पनप रहे थे। आज माओवादी बिहार के गया और उसके आस-पास के इलाकों में ही सिमट कर रह गए हैं। साल 2020 में बिहार मे 26 माओवादी (Maoists) घटनाएं सामने आई थीं, जिसमें 8 आम नागरिकों की मौत हुई थी।

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