आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में कुछ इस तरह खत्म किया गया माओवादी मूवमेंट, सामने आईं कई चुनौतियां

हम आपको बताएंगे कि किस तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में माओवादियों (Maoists) के खिलाफ बड़ी सफलता मिली है। माओवादियों से संबंधित अपराधों में भारी कमी आई है।

Maoists

सांकेतिक तस्वीर

2010-11 में ठेकेदार इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स लेने से डरते थे क्यों वे माओवादियों (Maoists) से दुश्मनी नहीं ले सकते थे और हर समय माओवादियों का डर बना रहता था।

नई दिल्ली: माओवादियों (Maoists) के खिलाफ हर उस राज्य में अभियान चलाया जा रहा है, जहां माओवादियों का प्रभाव है। ऐसे में हम आपको बताएंगे कि किस तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में माओवादियों के खिलाफ बड़ी सफलता मिली है।

यूनीफाइड आंध्र प्रदेश में 2011 से और विभाजन के बाद 2014 से, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में माओवादियों से संबंधित अपराधों में भारी कमी आई है। फिर भी, इन हिस्सों में ग्रेहाउंड और पुलिस जैसी नक्सल विरोधी इकाइयों ने शायद ही कभी अपने गार्ड्स को कम किया है।

अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, एक अधिकारी ने बताया कि हम अलर्ट रहते हैं क्योंकि जब भी छत्तीसगढ़ और ओडिशा में एंटी माओवादी ऑपरेशन चलाया जाता है तो ये माओवादी तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भाग आते हैं। यहां वे अपने पुराने साथियों के साथ आसानी से छिप जाते हैं। जब हम उन्हें रोकते हैं, तो वे या तो आवश्यक आपूर्ति खरीद रहे होते हैं या कोरियर के रूप में काम कर रहे होते हैं।

तेलंगाना में हालही में जो गिरफ्तारियां हुई हैं, उनमें से ज्यादातर माओवादी (Maoists) छत्तीसगढ़ के हैं। अधिकारी ने बताया कि शरण लिए हुए माओवादी हिंसा में शामिल नहीं होते हैं।

एक सूत्र के मुताबिक, माओवादी (Maoists) ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि शरण लेते समय उनके पास बाकी कोई सुरक्षित स्थान नहीं होता है। इसलिए वे 2 राज्यों के सुरक्षाबलों को अपना दुश्मन नहीं बनाना चाहते। ऐसा करने पर उनके बचने की कोई संभावना नहीं बचती।

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अधिकारी ने बताया कि जो माओवादी छत्तीसगढ़ से भागकर आते हैं, वे तेलंगाना के भद्रादरी कोठागुदेम, खम्माम और मुलगू में छिपते हैं। इसके अलावा वे आंध्रप्रदेश के ईस्ट गोदावरी में शरण लेते हैं। जब ओडिशा में इन माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन चलता है तो वो विशाखापट्टनम के अराकू में जाकर छिपते हैं।

अधिकारी ने बताया कि 2010-11 में ठेकेदार इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स लेने से डरते थे क्यों वे माओवादियों से दुश्मनी नहीं ले सकते थे और हर समय माओवादियों का डर बना रहता था। लेकिन माओवादियों के हिंसक रवैये के 3 दशकों के बाद दिसंबर 2011 में यूनाइटेड आंध्र प्रदेश ने इन खतरों को दूर करने में सफलता पाई। इस साल पुलिस का कोई जवान हताहत नहीं हुआ और केवल 41 हिंसक केस सामने आए। 1980 के बाद से ये सबसे कम आंकड़ा था।

बता दें कि 1980 की शुरुआत में पीपुल्स वॉर ग्रुप बनाया गया था। ये हिंसा की शुरुआत का समय था। 1991 में ये हिंसा इतनी बढ़ गई थी कि स्थिति हाथ से निकल गई थी। इस साल 178 लोग मारे गए थे और 48 पुलिस के जवान शहीद हुए थे। इस साल माओवादियों की हिंसा के 953 केस सामने आए थे।

राज्य के 23 में से 21 जिलों में नक्सली हिंसा की वजह से 1990 में (145 मौतें), 1991 में (227 मौतें), 1992 में (212 मौतें), 1993 में (143 मौतें) हुई थीं। ये आंध्र प्रदेश के लिए बहुत बुरा दौर था।

इसके बाद समय आया इन बुरे दौर से निकलने का। राज्य प्रशासन ने अपनी पुलिस को मजबूत करना शुरू किया। 1989 में राज्य ने ग्रेहाउंड्स का गठन किया। ये ऐसी फोर्स थी जिसे माओवादियों से लड़ने से महारथ हासिल थी।

इस फोर्स के गठन के करीब 10 साल बाद 1999 में राज्य पुलिस भी हरकत में आने लगी। इसका नतीजा ये हुआ कि 2003 से 2012 के बीच 800 से ज्यादा नक्सली और 50 बड़े नक्सली नेता एनकाउंटर में मारे गए।

साल 2005 में 300 से ज्यादा कैडर, जिसमें टॉप 4 नेता शामिल थे, वह भी पुलिस एनकाउंटर में मारे गए। 2011 के बाद से आंध्र प्रदेश माओवादियों से मुक्त राज्य की दिशा में बहुत आगे बढ़ गया। यानी अब यहां माओवादियों की जड़ें बहुत गहरी नहीं हैं।

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