Bastar: देश ही नहीं विदेशों में भी है बस्तर की आदिवासी संस्कृति की पहचान

बस्तर (Bastar) को लोग वैसे तो छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में लाल आतंक के गढ़ के तौर पर जानते हैं। लेकिन इस इलाके की संस्कृति कितनी समृद्ध रही है, ये बात शायद बहुत कम लोग ही जानते हैं। यहां कि आदिवासी संस्कृति की पहचान देश ही नहीं विदेशों में भी है।

Bastar

फाइल फोटो।

राजधानी रायपुर में भी आदिवासियों के बस्तर (Bastar) का अहसास किया जा सकता है। देश-दुनिया में अपनी कला और संस्कृति के लिए पहचाने जाने वाले बस्तर की एक झलक रायपुर में भी देखी जा सकती है।

बस्तर (Bastar) को लोग वैसे तो छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में लाल आतंक के गढ़ के तौर पर जानते हैं। लेकिन इस इलाके की संस्कृति कितनी समृद्ध रही है, ये बात शायद बहुत कम लोग ही जानते हैं। यहां कि आदिवासी संस्कृति की पहचान देश ही नहीं विदेशों में भी है। कभी छत्तीसगढ़ की आन-बान और शान रहे बस्तर के राजघरानों के वजूद को समेटे बस्तरवाड़ा अपनों से ही हो रही जंग हार चुका है।

अब यह सांस्कृतिक धरोहर सिर्फ इतिहास और सरकारी दस्तावेजों में ही दर्ज होकर रह गई है। दशकों से नक्सलियों के आतंक की मार झेल रहा यह संभाग अपनी धरोहर को सहेजने में विफल होता गया। हालांकि, शोध के माध्यम से इसे समेटने की पूरी कोशिश हो रही है।

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राजधानी रायपुर में भी आदिवासियों के बस्तर (Bastar) का अहसास किया जा सकता है। देश-दुनिया में अपनी कला और संस्कृति के लिए पहचाने जाने वाले बस्तर की एक झलक रायपुर में भी देखी जा सकती है। यहां के चौक-चौराहों, सड़कों के आसपास की बाउंड्री पर बस्तर की भित्तिकला, चित्रकला से लेकर मंदिरों में मूर्तिकला भी बस्तरिया हैं।

यहां तक कि छात्र-छात्राओं का अनुसंधान भी वनवासियों पर चल रहा है। राजधानी के पं. रविशंकर शुक्ला विश्वविद्यालय की मानव विज्ञान अध्ययनशाला में पिछले 10 सालों से बस्तर के आदिवासियों पर शोध किया जा रहा है। राज्य में सांस्कृतिक विरासत, नैसर्गिक संपदा और जनजातियों की बहुलता वाले बस्तर की पहचान विदेशों तक पहुंची है।

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विश्वविद्यालय में हो रहे अध्ययन के मुताबिक, प्रदेश में सर्वाधिक गोंड़ जनजातियां हैं। उनकी संख्या तीस लाख से ज्यादा है। इसके बाद कंवर, उरांव, हलवा और भतरा हैं, जिनकी जनसंख्या तीन से पांच लाख तक है। इस तरह जनजातियों के बीच काफी अंतर है।

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सबसे दिलचस्प बात यह है कि शेष जनजातियां ऐसी हैं, जिनकी संख्या एक लाख से भी कम है। पंडित रविशंकर शुक्ल विवि के मानव विज्ञान विभाग सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ. मिताश्री मित्रा बताती हैं कि आदिवासियों की ओर से किए जा रहे कई देशज उपचार के तरीके और जड़ी-बूटियों को उन्होंने खोजा है।

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