लाल आतंक के गढ़ में कैसे लिखी जा रही विकास की इबारत, पढ़ें ‘सरकारी अफसरों का गांव’ की कहानी…

छत्तीसगढ़ का बस्तर इलाका लाल आतंक का गढ़ रहा है। दशकों से यह इलाका नक्सलियों (Naxalites) की दहशत के साए में है। यहां के कई इलाके ऐसे हैं जहां लोगों तक शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नहीं पहुंच पाई हैं।

Naxalites

ऐसे दुरूह इलाके में भी एक गांव ऐसा है, जिसने फर्श से अर्श तक का सफर तय किया है। यह गांव है नक्सल प्रभावित सुकमा जिले का एर्राबोर।

छत्तीसगढ़ का बस्तर इलाका लाल आतंक का गढ़ रहा है। दशकों से यह इलाका नक्सलियों (Naxalites) की दहशत के साए में है। यहां के कई इलाके ऐसे हैं जहां लोगों तक शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नहीं पहुंच पाई हैं। लेकिन ऐसे दुरूह इलाके में भी एक गांव ऐसा है, जिसने फर्श से अर्श तक का सफर तय किया है। यह गांव है नक्सल प्रभावित सुकमा जिले का एर्राबोर।

Naxalites
विकास की नई इबारत लिखता नक्सल प्रभावित सुकमा जिले का एर्राबोर गांव।

नक्सलियों ने 34 लोगों की कर दी थी हत्या: साल 2006 में नक्सलियों (Naxalites) ने गांव में हमला किया था और 34 लोगों की निर्मम हत्या कर दी थी। नक्सलियों ने पूरे गांव को जला कर राख कर दिया था। लेकिन आज यह गांव विकास की नई इबारत गढ़ रहा है। इस गांव में स्कूल, अस्पताल, सड़क, बिजली जैसी सुविधाएं पहुंच चुकी हैं। इतना ही नहीं बैंक और इंटरनेट की सुविधा भी इस गांव में है।

हर परिवार का एक सदस्य सरकारी नौकरी में: इस गांव की आबादी पांच हजार है और करीब 700 परिवार इस गांव में रहते हैं। यह गांव ‘सरकारी अफसरों के गांव’ के नाम से जाना जाता है। वजह यह है कि गांव के ज्यादातर परिवार का एक सदस्य सरकारी नौकरी में है। गांव में करीब 480 लोग सरकारी नौकरी में हैं।

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15 साल की मेहनत का नतीजा: सुकमा के एसपी शलभ सिन्हा बताते हैं कि एर्राबोर में पहले सड़क बनाई गई। पढ़ने-लिखने के लिए तो बच्चे तैयार थे ही, उन्हें रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए गए। 15 साल की मेहनत का नतीजा है कि आज हर घर में सरकारी नौकरी वाले लोग हैं। साढ़े तीन सौ से ज्यादा लोग पुलिस की नौकरी में हैं। इसके अलावा लोग शिक्षा, डाक, बिजली और पंचायत विभाग में भी पदस्थ हैं। नई पीढ़ी मेडिकल और इंजीनियरिंग तक की पढ़ाई कर रही है।

सोयम सुनकू हैं गांव के आदर्श: सोयम सुनकू इस गांव के आदर्श हैं। सुनकू के पिता सोयम लच्छा गांव के सरपंच थे। साल 2005 में नक्सलियों (Naxalites) ने उनकी हत्या कर दी थी। लेकिन सुनकू ने बीएससी पूरी की और फिर ऑर्डिनेंस फैक्ट्री सर्विस में उनका चयन हुआ। आज सुनकू केंद्रीय रक्षा मंत्रालय में डिप्टी डायरेक्टर के पद पर कार्यरत हैं।

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सभी के पास इंटरनेट सुविधा: गांव की महिला सिपाही संगीता बताती हैं कि 15 साल पहले यह गांव अंधेरे में डूबा था, स्कूल-अस्पताल नहीं थे। लोग झोपड़ियों में रहते थे। पर आज यहां पक्के मकान, अस्पताल, स्कूल, बैंक हैं। सभी के पास इंटरनेट सुविधा है। गांवों की युवतियां मोपेड-स्कूटर चला रही हैं। इतने पिछड़े इलाके में किसी ने इतनी जल्दी बदलाव की कल्पना नहीं की थी।

गांव वालों ने लिया नक्सलवाद से लड़ने का संकल्प: गांव के उपसरपंच सोयम भद्रा बताते हैं कि तब मैं 24 साल का था। यहां सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं था। सिर्फ हम थे, वो भी अनपढ़। वह मुश्किल समय था, लेकिन हमले के बाद गांव वालों ने संकल्प लिया कि अब नक्सलियों (Naxalites) से डरना नहीं है, क्योंकि खोने के लिए कुछ भी नहीं बचा था। गांव ने शिक्षा को नक्सलियों से लड़ने का हथियार बना लिया। चिमनी की रोशनी में यहां के बच्चों ने पढ़ाई की।

बस्तर के एर्राबोर के विकास के सफर की यह कहानी उन सभी इलाकों के लिए मिसाल है जो लाल आतंक के दहशत में हैं। सरकार और प्रशासन की कोशिशों के साथ-साथ आम लोगों भी यदि इसी तरह हिम्मत दिखाएं तो नक्सलवाद (Naxalism) का खात्मा तय है।

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