कर्नल सुशील तंवर की कहानी ‘चॉकलेट’

चिल्लाती भीड़ के उग्र रूप पर इसका कोई असर नहीं पड़ा था। तीनों ने गाड़ी के अंदर अपने आप को बंद कर लिया। मंजूर ने अपने हाथ सीट के नीचे छुपे हथियारों की तरफ बढ़ाए ही थे कि सुरेश ने उसको इशारे से मना कर दिया।

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सांकेतिक तस्वीर

कर्नल सुशील तंवर की कहानी ‘चॉकलेट’। कई ऐसा होता है कि हम कुछ अच्छा सोच कर कोई काम करते हैं, लेकिन मामला उल्टा पड़ जाता है। पर, समझदार वही होता है जो एकबार दांव उल्टा पड़ने के बाद उससे सबक ले ले। मगर, हर कोई सही सबक ले ले ये कतई जरूरी नहीं। हवलदार सुरेश के साथ भी एक ऐसा ही वाकया पेश आया था…

वो बहुत मासूम सा चेहरा था। हिमालय की पावन बर्फ़ की तरह बिलकुल सफेद गोरा सा और उस पर नीली-नीली प्यारी आंखें, जैसे कोई नन्ही सी परी ज़मीन पर उतर आई हो। उसकी उम्र दस-ग्यारह साल की होगी। वो सड़क किनारे चुप-चाप खड़ी थी, जब हवलदार सुरेश ने उसको पहली बार देखा था और उसे देखते ही सुरेश को निम्मी की याद आ गई थी।

निम्मी यानी सुरेश की नन्ही बेटी जो आजकल कोल्हापुर में थी, अपनी मां के साथ। एक साल पहले कश्मीर में पोस्टिंग होने के बाद सुरेश ने अपने परिवार को कोल्हापुर में ठहरा दिया था। वहां उसे सरकारी मकान मिल गया था और आसपास कुछ रिश्तेदार भी थे।

वैसे भी एक फौजी की जिदंगी का सबसे मुश्किल पहलू है अपने परिवार से दूर रहना और हर दो तीन साल बाद एक जगह से दूसरी जगह तबादला होना। इससे तकलीफ तो बहुत होती है, लेकिन इसके अलावा कोई चारा भी तो नहीं है। सुरेश की पोस्टिंग कश्मीर की इंटेलिजेंस यूनिट में हुई थी।

वैसे तो उनका हेडक्वार्टर श्रीनगर में था, लेकिन एक छोटी सी इकाई गांदरबल में तैनात थी। सुरेश को उसके कमांडिंग अफसर कर्नल विपिन शर्मा ने बहुत सोच-समझ कर वहां भेजा था। उनकी नज़रों में सुरेश मेहनती और बुद्धिमान होने के अलावा काफी जिम्मेदार भी था। सुरेश ने उनको निराश नहीं किया।

लोगों से वक्त-बेवक्त मिल कर उनसे हर तरह की बात करने में काफी सक्षम था सुरेश। दिन भर वो गांदरबल और आसपास के इलाक़े में घूमता और आतंकियों की खबर हासिल करने की कोशिश करता। एक साल में उसने कश्मीर में बहुत दोस्त भी बना लिए थे। लेकिन इतना मशगूल रहने के बावजूद भी दिन में दो-तीन बार वो अपने घर वालों से ज़रूर बात करता था। खासकर अपनी लाड़ली बेटी निम्मी से।

उस दिन वो अपने साथियों के साथ बांदीपोरा जा रहा था, जब उसकी नजर पहली बार उस बच्ची पर पड़ी थी। सद्रकुट गांव के पास वाले मोड़ पर। उसके बाद भी वहां से आते-जाते अपनी गाड़ी की खिड़की से दो चार बार और देखा था सुरेश ने उसको। वहीं सड़क के किनारे। कभी अकेले खड़े हुए और कभी यूं ही बेपरवाह खेलते हुए। उसके पहनावे से साफ ज़ाहिर होता था कि वो किसी बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखती है।

गांदरबल से बांदीपोरा जाने के लिए बस एक मुख्य सड़क थी जिसके दोनों तरफ कहीं पर घर और कहीं छोटे-छोटे बाज़ार बसे हुए थे। ऐसे मसरूफ रास्ते पर सफ़र करते हुए उनका ज्यादा ध्यान आसपास के इलाकों पर और वहां आते-जाते लोगों पर ही रहता था।

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कर्नल सुशील तंवर

इसलिए सुरेश ने कभी ये जानने की कोशिश नहीं की थी कि वो कौन है और वो वहां अक्सर क्यूं दिखाई देती है? बस उसको देख कर उसे अपनी बेटी निम्मी की याद आ जाती थी और वो वापस पहुंच कर एक दम उससे फोन पर बात करता था।

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तब मार्च का दिलकश महीना था। ऊपर पहाड़ों पर बर्फ पिघलने लगी थी। वादी की बेमिसाल खूबसूरती में बसंत के आगमन से चार चांद लगने का वक्त आ गया था। सुबह के दस बजे होंगे जब सुरेश अपने दो साथियों के साथ बांदीपोरा जाने के लिए तैयार हुआ, अपनी सफेद मारुति जिप्सी में।

हालंकि, वो अक्सर सिविल कपड़ों में ही सफर करता थे लेकिन अपनी सुरक्षा के लिए हथियार भी साथ में ज़रूर रखते थे। उस दिन उन्होंने रोज़ की तरह एक एके-47 और दो पिस्तौल साथ में ले लिए थे।

उस दिन कोई खास काम नहीं था। मानसबल में राष्ट्रीय राइफल्स की पोस्ट से मेल-मिलाप कर इलाक़े के ताज़ा हालत की जानकारी देनी थी। इसके अलावा बांदीपोरा शहर मे पुलिस और बाकी दस्तों से मुलाक़ात भी करनी थी।

सब काम निबटाने में उन्हें पूरा दिन ही लग गया था। चार बजे के करीब उन्होंने वापस सफर शुरू किया। एक घंटा तो लगता ही था बांदीपोरा से गांदरबल जाने में। उस सड़क पर अच्छा खासा ट्रैफिक भी होता था। लेकिन वो किसी तरह शाम होने से पहले ही वापस गांदरबल पहुंचना चाहते थे।

सड़क पर हमेशा की तरह भीड़-भाड़ थी। गाड़ियों की आवाजाही की वजह से उनकी रफ्तार काफी धीमी थी। जैसे ही वो सद्रकुट गांव के पास पहुंचे तो सुरेश को फिर वही लड़की दिखाई दी। लेकिन आज हर बार की तरह वो उस बच्ची को देख कर नजरअंदाज नहीं कर पाया था।

उसने अपने साथी सिपाही मुरुगन को गाड़ी रोकने को कहा। मुरुगन थोड़ा आश्चर्य चकित ज़रूर हुआ था। लेकिन उसने कहे अनुसार जिप्सी को धीरे-धीरे एक किनारे लगा दिया। वैसे भी बाज़ार में भीड़ थी और चारों तरफ गाड़ियों का जमघट था। ऐसे में सुरेश वहां क्यों रुका था इसका कारण न मुरुगन को समझ में आया था और न पीछे बैठे हुए नायक मंजूर हुसैन को।

‘बस दो मिनट… वो बच्ची खड़ी है ना, उसको कुछ पैसे दे देता हूं और ये चॉकलेट भी।’

इससे पहले वो दोनों कुछ समझ पाते सुरेश ने इशारे से उस बच्ची को अपने पास बुला लिया था। वो बच्ची थोड़ा सा संकुचित हुई और फिर धीरे-धीरे उनकी गाड़ी के पास आ गई।

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‘ये लो बेटा, चॉकलेट…और ये पैसे भी ले लो, इनसे टॉफी ले लेना। और आप स्कूल भी जाती हो या नहीं?’

उस लड़की ने शरमाते हुए सुरेश के हाथ से पचास रूपए का नोट और चॉकलेट ले लिया था। अब उसके चेहरे पर एक अनोखी मुस्कान थी। सुरेश भी उसकी मुस्कान से खुश हो गया था। उसने मुरुगन को गाड़ी शुरू करने के लिए बोला ही था कि एक बड़ा सा पत्थर उन पर आ कर पड़ा।

‘पकड़ो इन सालों को… हमारी बच्ची को अगवा करने की कोशिश कर रहे हैं हरामजादे।’

किसी ने ज़ोर से आवाज़ लगाई थी और अचानक से एक भीड़ उनकी गाड़ी के चारों तरफ जमा हो गई।

एकदम से आए इस तूफान को देख कर वो तीनों घबरा ज़रूर गए थे, लेकिन सुरेश ने थोड़ा हिम्मत दिखाते हुए भीड़ से मुखातिब होने की कोशिश की।

‘जनाब मैं तो इसकी मदद कर रहा था… आप लोग ग़लत समझ रहे हैं।’

लेकिन चिल्लाती भीड़ के उग्र रूप पर इसका कोई असर नहीं पड़ा था। तीनों ने गाड़ी के अंदर अपने आप को बंद कर लिया। मंजूर ने अपने हाथ सीट के नीचे छुपे हथियारों की तरफ बढ़ाए ही थे कि सुरेश ने उसको इशारे से मना कर दिया।

मंजूर ने बोला भी कि दो-चार फायर हवा में करके गाड़ी को भगा लेते हैं, लेकिन सुरेश जानता था कि इससे हालात और खराब हो सकते हैं। भीड़ धीरे-धीरे और ज्यादा बढ़ रही थी। किसी ने नारा-ए-तदबीर अल्लाह हू अकबर… का नारा लगाया और फिर तो लोग और भी ज्यादा जोश में आ गए।

उन तीनों को लगा कि आज ये भीड़ उन्हें पक्का मार डालेगी। बचने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। उनकी कमज़ोर सी जिप्सी भला कब तक उस जमघट का भार सह सकती थी। लेकिन उनकी किस्मत अच्छी थी कि पास की पुलिस चौकी से इंस्पेक्टर अर्शद चंद सिपाहियों को लेकर तुरंत वहां पहुंच गया।

अर्शद की इलाक़े में बड़ी ठोस पकड़ थी। वैसे किसी भी भीड़ को काबू करना बहुत मुश्किल है, खासकर कश्मीर में। लेकिन अर्शद ने किसी तरीके से बहला-फुसला कर भीड़ को थोड़ा शांत किया।

उसकी पहली प्राथमिकता थी उन तीनों सैनिकों को सुरक्षित वहां से निकालना और इसलिए वो उनको सीधा थाने ले गया। लोग शांत तो हो गए थे, लेकिन कुछ शरारती तत्वों के लिए ये एक सुनहरा मौका था। धीरे-धीरे भीड़ थाने के बाहर भी इकट्ठा हो गई। किसी ने आजादी का नारा लगाया, तो किसी ने सेना के खिलाफ आवाज उठाई। हालात की नाजुकता को ध्यान में रखते हुए पुलिस और सेना के आला अफसर भी आ गए चौकी पर।

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उन्होंने लोगों को यकीन दिलाया कि पूरे वाकये की अच्छे तरीके से जांच होगी और अगर तीनों को किसी ग़लत काम का दोषी पाया गया तो सख्त कारवाई की जाएगी। इसके साथ ही थाने में रपट भी दर्ज कर ली गई। तब कहीं जाकर भीड़ वापस अपने-अपने घर गई।

अंधेरा हो चुका था। सुरेश ने सभी पुलिस और सेना के अधिकारियों को अपने बेकसूर होने का भरोसा दिला कर अपनी बात समझाने की कोशिश की।

‘सर, इस भरे बाज़ार में कौन ऐसे किसी को भी अगवा कर सकता है? ये मेरी बेटी की उम्र की है। मैं तो इंसानियत के नाते कुछ मदद करने की कोशिश कर रहा था। बस एक चॉकलेट ही तो दी थी।’

अब तक सब को ज़ाहिर हो चुका था कि उन तीनों ने कोई ग़लत हरकत नहीं की थी। बाज़ार में किसी ने या तो जानबूझ कर या अनजाने में उन पर शक किया और उसके बाद लोगों ने आगे कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं समझी। फिर भी पुलिस की जांच ज़रूरी थी। न सिर्फ सच का पता लगाने के लिए बल्कि लोगों को तसल्ली दिलाने के लिए भी।

रात भर पुलिस चौकी में रहने के बाद वो तीनों वापस गांदरबल आ गए थे। कमांडिंग अफसर कर्नल विपिन शर्मा भी सुबह-सुबह वहां पहुंच गए। वो खुद तीनों से बात करके उस पूरे किस्से का सही जायजा लेना चाहते थे।

सुरेश इस सबसे बहुत परेशान था। उसने कर्नल साहब के आगे अपनी बेकसूरी की फिर गुहार की। कर्नल विपिन को वैसे इस बात से ज्यादा सुकून था कि उनके जवानों ने भीड़ के सामने भी अपना धैर्य नहीं खोया और किसी के जान-माल का कोई नुकसान नहीं हुआ। हां, ये ज़रूर था कि कश्मीर जैसे संजीदा इलाक़े में इस तरह किसी लड़की से बात करना कोई खास समझदारी का काम नहीं था। शायद यही गलती की थी सुरेश और उसके साथियों ने।

कर्नल विपिन ने पुलिस से बात की और बेफिक्र हो कर निष्पक्ष जांच करने को कहा। किसी ने सुझाव दिया कि बच्ची के घर वालों को पैसे दे कर मामला रफा-दफा किया जाए। लेकिन विपिन और पुलिस का यही मानना था कि जब तक किसी ग़लत कार्यवाही का कोई सबूत नजर नहीं आए तब तक ऐसा कुछ करना उल्टा पड़ सकता है। दो-तीन दिन और तफ्तीश चली लेकिन कोई भी चश्मदीद गवाह सामने नहीं आया।

फिर दो दिन बाद मानो एक नया बम फट गया, जब किसी स्थानीय रिपोर्टर ने इस पूरे किस्से को अखबार में छाप दिया। उसके बाद ट्विटर, फेसबुक और पूरे भारत के कई चैनल और अख़बार में ये खबर इस तरह पेश की गई कि जैसे भारतीय सेना के तीन जवानों को पुलिस ने एक नाबालिग बच्ची को अगवा और रेप करने की कोशिश में गिरफ्तार किया था।

श्रीनगर से दिल्ली तक हड़कंप मच गया। इल्ज़ाम बहुत संगीन था। हालंकि, सबको सच का पता था, लेकिन मीडिया में इस तरह बात को उछाले जाने से सबके ऊपर एक नया दबाव आ गया था। अलगाववादियों को भी जैसे एक नया हथियार मिल गया और उन्होंने इस पूरे मामले को ज्यादा तूल देने की कोशिश की।

इस सबका असर बेचारे सुरेश और उसके साथियों पर सबसे ज्यादा हुआ। हर कोई उनसे सवाल पूछता। हर कोई उन्हें नए सुझाव देता। मगर उनकी यूनिट ने सुरेश का पूरा साथ दिया और धीरे-धीरे मामला ठंडा होता गया। इस बीच सुरेश को छुट्टी भेज दिया गया। इतने मानसिक दबाव में रहने के बाद उसे अपने परिवार की सख्त ज़रूरत थी।

कोल्हापुर पहुंचने के बाद सुरेश को कुछ चैन की सांस महसूस हुई थी। पूरे किस्से को किसी बेहद खराब ख्वाब की तरह भूल जाना चाहता था वो। वैसे भी छुट्टी के दौरान रिश्तेदारों से मिलने और घर का सामान खरीदने जैसे हजारों काम थे उसे मशरूफ रखने के लिए।

उस दिन शाम को वो बाज़ार से वापस आ रहा था जब उसकी गाड़ी चौराहे वाली ट्रैफिक लाइट पर रुकी। गाड़ी के थमते ही पता नहीं कहां से एक बच्ची भाग कर आई और खिड़की के पास खड़ी हो गई। वो देखने में बेहद मासूम और गरीब थी।

अभी बत्ती को हरा होने मे थोड़ा वक्त था। सुरेश ने अपने सामान में से निम्मी के लिए खरीदी हुई चॉकलेट निकाली। उस बच्ची की आंखों में एक चमक आ गई थी। सूरज ने अपनी खिड़की का शीशा हल्का सा नीचे करना शुरू ही किया था कि उसे जैसे कुछ याद आ गया।

बत्ती हरी हो गई थी। सुरेश ने चॉकलेट को सीट पर ही फेंक दिया और उस बच्ची के फैलाए हुए हाथों को नजरअंदाज करते हुए अपनी कार की रफ्तार तेज कर दी।

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