भारत के महान वायलिन वादक हैं एम.एस. गोपालकृष्णन, इनके लिये तो पूरा विश्व ही एक मंच है और आकाश अनंत

एम.एस.जी. (M S Gopalakrishnan) चाहे कर्नाटक संगीत के रसिकों के लिए श्री त्यागराज की ‘कृति’ बजाएं या हिंदुस्तानी संगीत-प्रेमियों के लिए मस्तीखानी गत बजाएं, वे और उनके सुनने वाले लोग आपस में इस कदर एक हो जाते हैं कि पूरा माहौल संगीतमय बन जाता है। यही गोपालकृधान की लोकप्रियता का मुख्य कारण है।

M S Gopalakrishnan

M S Gopalakrishnan birth anniversary

भारत के महान वायलिन वादक एम.एस. गोपालकृष्णन (M S Gopalakrishnan) का जन्म 10 जून, 1931 को हुआ। उनका लोकप्रिय नाम एम.एस.जी. है। उनके पिता प्रो. पाखर सुंदरम् अय्यर एक महान वॉयलिन वादक थे, जिन्हें उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय (कर्नाटकी) दो भारतीय शास्त्रीय शैलियों में महारत हासिल थी। एम.एस.जी. ने अपने पिता और गुरु पारूर से दोनों शैलियों को शिक्षा ली। एम.एस.जी.ने 8 वर्ष की उम्र में अपने पिता के साथ वायलिन की पहली परफॉरमेंस दी थी।

आज एम.एस.जी. (M S Gopalakrishnan) टॉप क्लास के सिंगल और समूह वॉयलिन वादक हैं। उन्हें हिंदुस्तानी और कर्नाटक दोनों संगीत शैलियों में महारथ हासिल है। एम.एस.जी. ने वायलिन वादक तकनीक पर गहरा शोध किया है और अपनी नई अनूठी शैली ‘पारूर शैली’ विकसित की।

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एम.एस.जी. (M S Gopalakrishnan) एक क्रियेटिव वायलिन कलाकार हैं जो उंगलियों की खास तकनीक, गति, लय, ताल, ठहराव और अपनी अद्भुत स्वरावली के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं। उनके वायलिन की धुन इतने स्पष्ट होते हैं कि सुनने वाले सरगम को बड़ी आसानी से पकड़ सकते हैं। उनके विशिष्ट संगीत योगदान के लिए उन्हें अनगिनत अवॉर्ड और सम्मान मिले हैं, जिनमें पद्मश्री, कलाइमामानी, संगीत कलानिधि और संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड’ मुख्य हैं।

गोपालकृष्णन (M S Gopalakrishnan) ने तमाम बंधनों को तोड़ते हुए कर्नाटक संगीत को पूरे भारत में ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय फलक पर भी पहचान दिलाई है। उनके पिता बंबई विश्वविद्यालय संगीत के प्रोफेसर थे, बेटे के वायलिन के प्रति झुकाव को उन्होंने बढ़ावा दिया और एम एस जी को कर्नाटक और हिंदुस्तानी दोनों संगीत पारंगत किया।

जब युवा गोपालकृष्णन (M S Gopalakrishnan) संगीत के क्षितिज पर धूमकेतु की तरह चमके तो पं. ओंकारनाथ ठाकुर और पं. पलुस्कर जैसे हिंदुस्तानी संगीत के उस्तादों ने भी उनके साथ मंच साझा किया। इन दिग्गजों का साथ पाकर गोपालकृष्णन को फिर कभी पीछे मुड़कर देखने का मौका नहीं मिला। अपनी स्पष्ट स्वर-लहरी से भरपूर कर्नाटक वंश परंपरा, श्रुति-भाव का संवेदनात्मक प्रभाव, हिंदुस्तानी गायकी की अंतर्दृष्टि – इन सबके घाल मेल से उन्होंने खुद की एक अनूठी शैली विकसित की। उन्होंने नए-नए प्रयोग भी किए और वायलिन को एक उंगली से या कह सकते हैं, एक तार वाली वॉयलिन बजाने की शैली विकसित की।

यहूदी मेनुहिन ने उनके इस क्रियेटिव आइडिया को देखकर कहा था कि, “अपने सफर के दौरान मैंने ऐसी किसी वायलिन के बारे में नहीं सुना। यह युवक हमारे यंत्र को कितनी खूबसूरती से बजाता है!

एम.एस.जी. (M S Gopalakrishnan) चाहे कर्नाटक संगीत के रसिकों के लिए श्री त्यागराज की ‘कृति’ बजाएं या हिंदुस्तानी संगीत-प्रेमियों के लिए मस्तीखानी गत बजाएं, वे और उनके सुनने वाले लोग आपस में इस कदर एक हो जाते हैं कि पूरा माहौल संगीतमय बन जाता है। यही गोपालकृधान की लोकप्रियता का मुख्य कारण है।

हॉलैंड में एक बार अपने श्रोताओं को ‘बीथोवन’ का एक ‘पीस’ सुनाकर उन्होंने अचंभित कर दिया था। उनके जैसे सीमाहीन कलाकार के लिए तो पूरा विश्व ही एक मंच है और आकाश अनंत। एक बार यहूदी मेनुहिन ने सुना कि एम.एस.जी. (M S Gopalakrishnan) ने ‘कल्याणी अट्टा वरुण’ को केवल एक उंगली से बजाया है तो उन्होंने सभी जगह इसका गुणगान किया कि “एक आदमी ने इसे ‘जी स्ट्रिंग’ (एक उंगली से) से बजाया, उसका नाम भी ‘जी’ अक्षर से शुरू होता है।”

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