कल्याणजी पुण्यतिथि विशेष: जिनके गाने के गुलदस्ते में तमाम ऐसे हिट गीत हैं, जो आज भी गुनगुनाए जाते हैं

कल्याणजी वीरजी शाह का जन्म- 30 जून, 1928, कच्छ, गुजरात में हुआ था। वो हिन्दी सिनेमा के प्रसिद्ध संगीतकार थे। वे भारतीय हिन्दी फ़िल्मों की प्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी ‘कल्याणजी आनंदजी’ में से एक थे।

Kalyanji कल्याणजी आनंदजी

Legendary music composer Kalyanji and Anandji II भारतीय संगीतकार कल्याणजी आनंदजी

भारतीय हिन्दी फिल्मों की प्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी ‘कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji)’ में से एक थे। कल्याणजी ने हेमंत कुमार के सहायक के तौर पर फिल्मी दुनिया में कदम रखा था और वर्ष 1954 में आई फिल्म ‘नागिन’ के गीतों के कुछ छंद संगीतबद्ध किए थे। भारतीय फिल्मों में इलेक्ट्रॉनिक संगीत की शुरुआत करने का श्रेय कल्याणजी को ही जाता है। वर्ष 1992 में संगीत के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया था।

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एक गलत धारणा यह है कि मुकेश ने सबसे ज्यादा गीत शंकर-जयकिशन के लिए गाए। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि मुकेश के गानों में कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) के स्वरबद्ध किए गीतों की संख्या सबसे अधिक है और यह बात और भी उल्लेखनीय हो जाती है जब हम पाते हैं कि इन गीतों की फिल्मों में राज कपूर की अभिनीत मात्र दो फिल्में हैं। शंकर-जयकिशन ज्यादातर राज कपूर के लिए ही मुकेश की आवाज लेते थे, लेकिन कल्याणजी-आनंदजी ने दूसरे अभिनेताओं के लिए मुकेश की आवाज चुनी। मुकेश के कंठ की विशेषताओं को देखते हुए खास तौर से उनके अनुरूप गीतों की रचना की जाती थी और इन गीतों को गाते हुए पर्दे पर न सिर्फ राज कपूर बल्कि धर्मेन्द्र (दिल भी तेरा हम भी तेरे, पूर्णिमा), राजेश खन्ना (राज, मर्यादा), फिरोज खान (सफर, धर्मात्मा) भी उतने ही स्वाभाविक लगते थे।

मनोज कुमार के लिए कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) ने मुकेश और महेन्द्र कपूर की आवाजें तय-सी कर ली थीं (उपकार, पूरब और पश्चिम) और यह दुर्भाग्य रहा कि मनोज कुमार और कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) का साथ कुछ व्यक्तिगत कारणों से छूट गया। मनोज कुमार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की तरफ मुड़ गये। उन्होंने मुकेश और महेन्द्र कपूर को तो न छोड़ा पर कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) से विमुख हो गए।

कल्याणजी का जन्म 30 जून, 1928 को कच्छ के कुंदरोडी में हुआ था। कल्याणजी और उनके अनुज आनंदजी वीरजी शाह नामक एक कच्छी गुजराती व्यवसायी के पुत्र थे। पिता गिरगाम, बम्बई इलाके में दुकान चलाते थे। कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) को संगीत का शौक बचपन से ही रहा जो ग्राम की गलियों में बढ़ा।

बहुत पहले की बात है जब कल्याणजी संगीतकार नहीं बने थे। एक बार माटुंगा में स्थित अरोड़ा सिनेमा के पास की सड़क पर पत्थर गिरने की आवाज से प्रेरणा ली कि पत्थरों से भी सुरीले नोट्स निकाले जा सकते हैं और इस कला में भी पारंगत हो गए। उन्होंने पत्थर सांग नाम का कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया था। कल्याणजी ने असंख्य वाद्य बजाने की उस्तादी हासिल की और उन्होंने अपना ऑरकेस्ट्रा ग्रुप भी बनाया और स्टेज शो भी किये। उसी दौरान कल्याणजी हेमंत कुमार के सहायक बने थे।

‘सम्राट चंद्रगुप्त’ की धुनों में चित्रगुप्त की मेलोडियस शैली का असर भी दिखता है। पर जो भी हो गीत बेहद मधुर बने थे- ‘चाहे पास हो चाहे दूर हो मेरे सपनों की तुम तस्वीर हो, भर भर आई अंखियां, ‘जा तोसे नहीं बोलें (लता, रफी) या फिर दत्ताराम बीट्स वाला ‘ये समां, मेरा दिल जब (लता, मन्ना डे)। उनकी आरंभिक फिल्मों में ‘तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे (लता, हेमंत- सट्टा बाजार), ये वादा करें जहां भी रहे (लता, मुकेश-दिल भी तेरा हम भी तेरे) दिल ले के जाते हो कहां (सुबीर सेन, कमल बारोट- ओ तेरा क्या कहना) जैसे गीत भारतीय और पश्चिमी ऑरकेस्ट्रा के सुंदर संयोजन से संवरे तेज रिम वाले गीत थे, जो गली-गली में गुनगुनाए जाने वाले रूमानी युगल गीतों के रूप से प्रचलित हुए। कानों में मिसरी घोलते “मुझे देख चांद शरमाए’ (लता), ‘कल कल छल छल बहती जाऊं (लता) या ‘रंगीले मोरे राजा’ (लता, कोरस) जैसे ‘सम्राट चंद्रगुप्त’ के ही गीत भी बेहद कर्णप्रिय बने थे।

शंकर-जयकिशन की तरह ही भैरवी पर आधारित ये ‘सम्राट चंद्रगुप्त के ‘ऐ दिलदार आ जा’ और ‘कल कल छल छल’ जैसे लता के गीत। पर साथ ही कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) द्वारा विशुद्ध लोकसंगीत की भारतीय धुनों और संगीत संयोजन के साथ अलग प्रयोग भी इस समय से ही कुछ गानों में करना शुरू कर दिया गया था। राग सोहनी की छाया लिए ‘नैना हैं जादू भरे ओ गोरी तोरे (मुकेश- बेदर्द जमाना क्या जाने), दिल लूटने वाले जादूगर अब मैंने तुझे पहचाना है (लता, मुकेश- मदारी) आदि भारत की मिट्टी में रची-बसी धुनें हैं जो आज भी प्रिय लगती हैं। ‘मदारी’ के ही प्यार मेरा मजबूर परदेसी सैंया’ और ‘कोई कहे रसिया भी लता के स्वर में बड़ी मीठी लगती हैं।

1960 कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) के संगीत के लिए बेहद सफल वर्ष रहा। मनमोहन देसाई की निर्देशित पहली फिल्म ‘छलिया’ में ‘डम डम डिगा डिगा’ के धुनों के साथ पूरा देश झूम उठा। मुकेश को एक नए अंदाज में पेश करने का श्रेय भी मिला। कल्याणजी-आनंदजी अपने गानों से सिद्ध किया कि शास्त्रीय रागों के सरल लोकप्रिय प्रयोग में वे शंकर-जयकिशन से कम नहीं थे। कुछ समीक्षकों का मानना है कि लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, जो इस समय कल्याणजी-आनंदजी के सहायक थे, वे ही इस गीत के असली रचयिता थे क्योंकि तबला और अन्य वाद्यों ने इस गीत में जिस तरह का लय बंधा है वह लक्ष्मी-प्यारे की ही शैली थी।

कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) के संगीत की एक प्रमुख विशेषता थी गलियों और सड़कों की प्रचलित, पहचानी बीट्स को लेकर बनाए गीत। इस संगीत में एक तरह की अनौपचारिकता और सहजता थी जिसके साथ श्रोता आसानी से जुड़ सकते थे। प्रचलित पद्धतियों को अपनाने में कल्याणजी-आनंदजी को कभी कोई हिचक नहीं हुई। वे हमेशा जमाने और जनता के साथ चलने वाले संगीतकार रहे। चाहे उनके मूल निवास कच्छ का पारम्परिक गरबा जैसा लोकसंगीत हो (‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस- सरस्वतीचंद्र) या फिर जन्माष्टमी के त्योहार के उल्लास को प्रकट करते सुर हो (गोविंदा आला रे आला…),  ‘पुरवा सुहानी आई…, या फिर शहरों का विरकता आधुनिक संगीत हो, इन सभी की ताल के साथ-साथ कल्याणजी के कई गीत बने जो आज तक याद किए जाते हैं।

दरअसल कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) ने धीरे-धीरे पश्चिम भारत के पारम्परिक लोकसंगीत को भी अपनी खास शैली से संवार कर अपनी फिल्मों में जगह देना शुरू कर दिया था। ‘मदारी’ के शीर्षक गीत के दूसरे भाग ‘जमीं पर चांद का नूर देखो’ (लता, मुकेश) में तो राजस्थानी लोकशैली और अरबी संगीत शैली दोनों के ही रिद्मों का बहुत सुंदर मित्रण उन्होंने प्रस्तुत किया है। कॉम्पैक्ट ऑरकेस्ट्रेशन उनके संगीत का दूसरा बहुत प्रभावशाली गुण था। ऑरकेस्ट्रा का उपयोग ‘फिलर’ की तरह न होकर संगीत का मूल तत्त्व उभारने के लिए किया जाता था।

कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) अपनी कानों में कर्णप्रियता पर बहुत अधिक ध्यान देते थे। इसीलिए अपवादों को छोड़कर उनकी धुनों कॉम्पलेक्स नहीं होती थीं। धुनों की इसी सरलता और प्रचलित बीट्स के उपयोग के कारण ही उनके हिट गीतों की संख्या बहुत ज्यादा है और उनके गीत सहज ही श्रोताओं की जुबान पर आ जाते थे।

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की तुलना में उनके द्वारा बीट्स की मिक्सिंग बहुत कम की गई है। ढोलक का इस्तेमाल उन्होंने भरपूर किया है याद कीजिए, फिल्म ‘हीरा’ के ‘देर ना करो…’ (लता) में ढोलक का अद्भुत उपयोग। नागिन में क्लेवॉयलिन बजा कर मशहूर होनेवाले कल्याणजी ने इसी क्लेवायलिन से बीन का प्रभाव ‘मदारी”, ‘सुनहरी नागिन’, ‘सहेली’ जैसी कई फिल्मों में उत्पन्न किया। आधुनिक ‘वावा पेडल’ का इस्तेमाल भी कल्याणजी-आनंदजी की एक विशेषता थी। ‘रफ्ता-रफ्ता देखो आंख मेरी लड़ी है…, इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। बांसुरी और वायलिन ग्रुप का अलट्रनेशन भी कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) की कई कृतियों में मिलता है- ‘तमन्ना (1969) के लता के गाए ‘इक झोंका पवन का आया…’ इसका एक सुंदर उदाहरण है।

कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji–Anandji) की खूबी यह भी थी कि उन्होंने कई नए गायक-गायिकाओं को अवसर दिया और साथ ही पुरानी भुला दी गई गायिकाओं से भी गीत गवाये। जैसे मनहर को ‘विश्वास’ और ‘यादगार’ में, कृष्णा कल्ले को ‘पूर्णिमा’ और ‘राज’ में, उषा तिमोथी को ‘बिरजू उस्ताद’ (1964), ‘हिमालय की गोद’ (1965), ‘मेरा मुन्ना’ (1967) व ‘विश्वास’ (1969) में, हेमलता को ‘विश्वास’ और ‘घर घर की कहानी’ में, कमल बरोट को ‘गंगू’ (1961), ‘फूल बने अंगारे’ (1963), ‘सुनहरी नागिन’ (1963), ‘दूल्हा-दुलहन’ में आदि।

कमल बारोट से कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) ने कुछ बड़े सुंदर गैरफिल्मी गीत भी गवाएं और आज भी ‘पिया रे प्यार…’, ‘पास आओ कि मेरी…’ जैसे गीतों का अपना अलग आकर्षण है। बाद के दौर में कंचन को ‘धर्मात्मा’, ‘पाप और पुण्य’, ‘कुर्बानी’ आदि में और साधना सरगम को तो नब्बे के दशक की कई फिल्मों में उन्होंने गवाया।

पाश्चात्य म्यूजिकल बीट्स का भारतीय संस्कृति के हिसाब से एडॉप्शन का उनका एक एलबम ‘Bombay the hardly भी निकला, पर अधिक चर्चित न रहा। लेकिन ये भी अजीब विडम्बना है कि कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) को पद्मश्री 1997 में तब मिला जब वे फिल्मों से लगभग अलग ही हो चुके थे। अपने स्टेज शो के कारण भी कल्याणजी-आनंदजी अकसर चर्चित रहे।

24 अगस्त, 2000 में कल्याणजी की मृत्यु के बाद आनंदजी ने कुछ विशिष्ट संगीत एलबम निकाले- इनमें फिल्मों से अलग, भारतीय संगीत की सांस्कृतिक आत्मा की खोज करने वाले स्वरों और अलंकारों का सुंदर परिचय था। आनंदजी अभी भी कुछ स्टेज शो और बच्चों के अपने संगीत विद्यालयों में मसरूफ रहते हैं।

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