‘जिंदगी का सफर, है ये कैसा सफर, कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं…’- ऐसी थी धुनों से कल्याणजी की कलाकारी

कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji–Anandji) ने धीरे-धीरे पश्चिम भारत के पारम्परिक लोकसंगीत को भी अपनी खास शैली से सैंवार कर अपनी फिल्मों में जगह देना शुरू कर दिया था। ‘मदारी’ के शीर्षक गीत के दूसरे भाग ‘जमीं पर चाँद का नूर देखो’ (लता, मुकेश) में तो राजस्थानी लोकशैली और अरबी संगीत शैली दोनों के ही रिद्मों का बहुत सुंदर मित्रण उन्होंने प्रस्तुत किया है।

Kalyanji

Kalyanji Birth Anniversary

भारतीय हिन्दी फ़िल्मों की प्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी ‘कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji)’ में से एक थे। कल्याणजी ने हेमंत कुमार के सहायक के तौर पर फ़िल्मी दुनिया में कदम रखा था और वर्ष 1954 में आई फिल्म ‘नागिन’ के गीतों के कुछ छंद संगीतबद्ध किए थे। भारतीय फ़िल्मों में इलेक्ट्रॉनिक संगीत की शुरुआत करने का श्रेय कल्याणजी को ही जाता है। वर्ष 1992 में संगीत के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया था।

एक गलत धारणा यह है कि मुकेश ने सबसे ज्यादा गीत शंकर-जयकिशन के लिए गाए। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि मुकेश के गानों में कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) के स्वरबद्ध किए गीतों की संख्या सबसे अधिक है और यह बात और भी उल्लेखनीय हो जाती है जब हम पाते हैं कि इन गीतों की फिल्मों में राज कपूर की अभिनीत मात्र दो फिल्में हैं। शंकर-जयकिशन मुख्यतः राज कपूर के लिए ही मुकेश की आवाज़ लेते थे, पर कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) ने अन्य कई अभिनेताओं के लिए मुकेश की आवाज़ चुनी। मुकेश के कंठ की विशेषताओं को देखते हुए खास तौर से इस द्वय द्वारा गीतों की संरचना की जाती थी और इन गीतों को गाते हुए पर्दे पर न सिर्फ राज कपूर बल्कि धर्मेन्द्र (दिल भी तेरा हम भी तेरे, पूर्णिमा), राजेश खन्ना (राज़, मर्यादा), फिरोज़ खान (सफर, धर्मात्मा) भी उतने ही स्वाभाविक लगते थे। मनोज कुमार के लिए कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) ने मुकेश और महेन्द्र कपूर की आवाजें तय-सी कर ली थीं (उपकार, पूरब और पश्चिम) और यह दुर्भाग्य रहा कि मनोज कुमार और कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) का साथ कुछ व्यक्तिगत कारणों से छूट गया। मनोज कुमार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की तरफ मुड़ गये। उन्होंने मुकेश और महेन्द्र कपूर को तो न छोड़ा पर कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) से विमुख हो गए।

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कल्याणजी का जन्म 30 जून, 1928 को कच्छ के कुंदरोडी में हुआ था। कल्याणजी और उनके अनुज आनंदजी वीरजी शाह नामक एक कच्छी गुजराती व्यवसायी के पुत्र थे। पिता गिरगाम, बम्बई इलाके में दुकान चलाते थे। कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) को संगीत का शौक बचपन से ही रहा जो ग्राम की गलियों में बढ़ा।

बहुत पहले की बात है जब कल्याणजी संगीतकार नहीं बने थे। एक बार माटुंगा में स्थित अरोड़ा सिनेमा के पास की सड़क पर पत्थर गिरने की आवाज़ से प्रेरणा ली कि पत्थरों से भी सुरीले नोट्स निकाले जा सकते हैं और इस कला में भी पारंगत हो गए। उन्होंने पत्थर सांग नाम का कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया था। कल्याणजी ने असंख्य वाद्य बजाने की उस्तादी हासिल की और उन्होंने अपना ऑरकेस्ट्रा ग्रुप भी बनाया और स्टेज शो भी गिज़इसी रूप में कल्याणजी आरम्भ में हेमंत कुमार के सहायक बने थे।

‘सम्राट चंद्रगुप्त’ की धुनों में चित्रगुप्त की मेलोडियस शैली का असर भी दिखता है। पर जो भी हो गीत बेहद मधुर बने थे-‘चाहे पास हो चाहे दूर हो मेरे सपनों की तुम तस्वीर हो, “भर मर आई अँखियाँ, ‘जा तोसे नहीं बो (लता, रफी) या फिर दत्ताराम बीट्स वाला ‘ये समाँ मेरा दिल जब (लता, मन्ना डे)। उनकी आरंभिक फिल्मों में ‘तुम्हें याद होगा कभी हम मिले ये (लता, हेमंत-सट्टा बाज़ार), राग किरवानी पर आधारित नींद न मुशको आए (लता, हेमंत-पोस्ट बाक्स 999’, 1958) ‘दूर कहीं तू चल’ (लता, रफी-वेदर्द ज़माना क्या जाने 1959), दत्ताराम बीट्स की छाप लिए ‘मैं यहाँ तू कहाँ मेरा दिल तुझे पुकारे (लता, रफी-बेदर्द जमाना क्या जाने, 1959), ‘ये वादा करें जहाँ भी रहे (लता, मुकेश-दिल भी तेरा हम भी तेरे’ 1960) दिल ले के जाते हो कहाँ (सुबीर सेन, कमल बारोट-‘ओ तेरा क्या कहना’, 1959) जैसे गीत भारतीय और पश्चिमी ऑरकेस्ट्रा के सुंदर संयोजन से संबारे तेज रिम वाले गीत थे जो गली-गली में गुनगुनाए जाने वाले रूमानी युगल गीतों के रूप से प्रचलित हुए। कानों में मिश्री घोलते “मुझे देख चाँद शरमाए’ (लता), ‘कल कल छल छल बहती जाऊँ (लता) या ‘रंगीले मोरे राजा’ (लता, कोरस) जैसे ‘सम्राट चंद्रगुप्त’ के ही गीत भी बेहद कर्णप्रिय बने थे। ‘पोस्ट बॉक्स 99’ का मैं तो गिरी रे गिरी रे (लता) तो बिलकुल अलग ढंग की कम्पोज़ीशन्स की। ‘चंद्रसेना’ (1959) की रचना ‘दिल झूम झूम लहराए’ और ‘ज़रा-सा मुस्करा दूं (लता) भी कम्पोज़ीशन के हिसाब से बेहद

आकर्षक थीं। शंकर-जयकिशन की तरह ही भैरवी पर आधारित ये ‘सम्राट चंद्रगुप्त के ‘ऐ दिलदार आ जा’ और ‘कल कल छल छल’ जैसे लता के गीत। पर साथ ही कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) द्वारा विशुद्ध लोकसंगीत की भारतीय पुनों और संगीत संयोजन के साथ अलग प्रयोग भी इस समय से ही कुछ गानों में करना शुरू कर दिया गया था। राग सोहनी की छाया लिए ‘नैना हैं जादू भरे ओ गोरी तोरे (मुकेश-बेदर्द जमाना क्या जाने’, 1959), “दिल लूटने वाले जादूगर अब मैंने तुझे पहचाना है (लता, मुकेश-‘मदारी’, 1959), ‘अकेली मोहे छोड़ न जाना’ (लता, कमल बारोट-‘मदारी’, 1959), ‘आज आज कि दिल को तेरी याद आई (लता-ओ तेरा क्या कहना, 1959) आदि भारत की मिट्टी में रची-बसी धुनें हैं जो आज भी प्रिय लगती हैं। ‘चंद्रसेना (1959) के लता, साथियों के गाए में क्या जाने काहे लागे ये सावन मतवाला रे में लोकसंगीत के उल्लास की छाप स्पष्ट उभरती है। ‘मदारी’ के ही प्यार मेरा मजबूर परदेसी सैंया’ और ‘कोई कहे रसिया भी लता के स्वर में बड़ी मीठी लगती हैं।

एक और बेहद खूबसूरत मेलोडी जो दुर्भाग्य से बहुत हिट नहीं हुई फिल्म ‘मदारी में ही लता के स्वर में है-तुम्हारे प्यार का नशा हमारे दिल पे छा गया। पर छठे दशक के गीतों की चर्चा में यदि कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) के सर्वश्रेष्ठ गीत को चुनना हो तो मैं चर-पर की बात (1959) के गीत ‘ये समा ये खुशी कुछ बोलो जी बोलो जी’ को ही चुनुंगा लता-मुकेश के मधुरतम युगल गीतों में से एक इस गीत में लता की आवाज की मुलायमियत बेमिसाल है और शब्दों को अपनी आवाज़ के स्वर माधुर्य से जो भाव लता ने दिया है उसने इस बेहतरीन धुन को अलौकिक बना दिया है। संगीत-विशेषज्ञ बता सकेंगे कि यह कौन-सा राग है क्या यह बागेश्वरी है या और कुछ?

1960 कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) के संगीत के लिए बेहद सफल वर्ष रहा। मनमोहन देसाई की निर्देशित प्रथम फिल्म ‘छलिया’ में ‘डम डम डिगा डिगा’ की जौनपुरी के साथ पूरा देश झूम उठा। मुकेश को एक नए अंदाज़ में पेश करने का श्रेय भी मिला। कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) ने अपने गानों से सिद्ध किया कि शास्त्रीय रागों के सरल लोकप्रिय प्रयोग में वे शंकर-जयकिशन से कम नहीं थे। कुछ समीक्षकों का मानना है कि लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, जो इस समय कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) के सहायक थे, ही इस गीत के असली रचयिता थे क्योंकि तबला और अन्य वाद्यों ने इस गीत में जिस तरह का लय बाँचा है वह लक्ष्मी प्यारे की ही शैली थी।

जो विरकती ताल हो या ‘तेरी राहों में खड़े हैं दिल थाम के’ की भावानात्मक धुन, भैरवी आधारित ‘छलिया मेरा नाम का वाय-संयोजन हो या ‘मेरी जान कुछ भी कीजिए मेरे टूटे हुए दिल से कोई तो आज ये पूछे’ में तबले पर मुकेश के स्वर के साथ अनूठे लय-ताल का मेल हो, यह निर्विवाद है कि इस फिल्म से कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) फिल्म-संगीत में एक भी हो, “छलिया का लगभग हर गीत हिट है और ‘बाजे पायल छुन-छुन’ का चौंकाने वाली चुनौती के साथ उभरे थे। ‘दिल भी तेरा हम भी तेरे’ (1960) ने इस चुनौती को और मजबूत किया। भैरवी के सुरों में बाँधा गया ‘मुझको इस रात की तन्हाई में आवाज न दो मुकेश की ‘बोरिंग’ आवाज़ और बाँसुरी की प्रयोग के तादात्मकता से और क्या बुरा किया है? “छेड़ न सजना’ (सुमन, साथी) की धुन तो फिर जौहर महमूद इन गोवा’ में दुहरा कर कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) ने खूब हिट कराई थी। इसी प्रकार ‘दिल्ली जंक्शन’ (1960) में लता का ‘ज़ालिम जमाने ने इतना सताया है की धुन इतनी प्रांजल है कि इसे लता के लिए कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) द्वारा सृजित किए सर्वश्रेष्ठ गानों में से एक भी माना गया है।

इसी फिल्म में लता, साथियों के स्वर में लोकशैली में खानगी भरी मेलोडी ‘नाम तेरा ले के मोहे छेड़े है जमाना’ भी बड़ा आकर्षक लगता है। प्यासे पंछी (1961) के गाने भी मकबूल हुए-प्यासे पंछी नीलगगन में गीत मिलन के गाएँ (मुकेश), ‘वड़ा खुशनसीव हैं जिसे तू नसीब है (मुकेश), जो इंदीवर और कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) के वर्षों रहनेवाले साथ का शुरुआती गीत है, और सबसे बढ़कर सुमन और हेमंत का वही अभिलक्षक कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) शैली का तेज रिद्म का राग किरवानी पर सजाया युगल गीत ‘तुम्हीं मेरे गीत हो तुम्हीं मेरी प्रीत हो।

कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) के संगीत की एक प्रमुख विशेषता थी गलियों और सड़कों की प्रचलित, पहचानी बीट्स को लेकर बनाए गीत। इस संगीत में एक तरह की अनौपचारिकता और सहजता थी जिसके साथ श्रोता आसानी से जुड़ सकते थे। प्रचलित पद्धतियों को अपनाने में कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) को कभी कोई हिचक नहीं हुई। वे हमेशा ज़माने और जनता के साथ चलने वाले संगीतकार रहे। चाहे उनके मूल निवास कच्छ का पारम्परिक गरबा जैसा लोकसंगीत हो (‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस-सरस्वतीचंद्र और ‘मीठे मधु से सिमटी’-प्रियंका जन्माष्टमी के त्योहार के उल्लास को प्रकट करते सुर हो (गोविंदा आला रे-क्लफ मास्टर), मिट्टी में रची बसी लोक गंध हो (काहे तू बीन बजाए रे सपेरे’-‘सहेली’, ‘मोहे लागे रे लागे रे’-‘सुहाग रात’, विना बदरा के बिजुरिया कैसे चमके-बंधन’, ‘पुरवा सुहानी आई पूरब और पश्चिम, या फिर शहरों का विरकता आधुनिक संगीत हो-इन सभी की ताल के साथ-साथ कल्याणजी के कई गीत बने जो आज तक याद किए जाते हैं।

दरअसल कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) ने धीरे-धीरे पश्चिम भारत के पारम्परिक लोकसंगीत को भी अपनी खास शैली से सैंवार कर अपनी फिल्मों में जगह देना शुरू कर दिया था। ‘मदारी’ के शीर्षक गीत के दूसरे भाग ‘जमीं पर चाँद का नूर देखो’ (लता, मुकेश) में तो राजस्थानी लोकशैली और अरबी संगीत शैली दोनों के ही रिद्मों का बहुत सुंदर मित्रण उन्होंने प्रस्तुत किया है। Compact ऑरकेस्ट्रेशन उनके संगीत का दूसरा बहुत प्रभावशाली गुण था ऑरकेस्ट्रा का उपयोग ‘फिलर’ की तरह न होकर संगीत का मूल तत्त्व उभारने के लिए किया जाता था। कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) अपनी कानों में कर्णप्रियता पर बहुत अधिक ध्यान देते थे। इसीलिए अपवादों को छोड़कर उनकी धुनों complex नहीं होती थी, धुनों की इसी सरलता और प्रचलित बीट्स के उपयोग के कारण ही उनके हिट गीतों की संख्या बहुत ज्यादा है, और उनके गीत सहज ही श्रोताओं की जुबान पर आ जाते थे। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की तुलना में उनके द्वारा बीट्स की मिक्सिंग बहुत कम की गई है। ढोलक का इस्तेमाल उन्होंने भरपूर किया है याद कीजिए. फिल्म ‘हीरा’ के ‘देर ना करो’ (लता) में ढोलक का अद्भुत उपयोग। नागिन में क्लेवॉयलिन बजा कर मशहूर होनेवाले कल्याणजी ने इसी क्लेवायलिन से बीन का प्रभाव ‘मदारी”, ‘सुनहरी नागिन’, ‘सहेली’ जैसी कई फिल्मों में उत्पन्न किया आधुनिक ‘वावा पेडल’ का इस्तेमाल भी कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) की एक विशेषता थी। ‘रफ्ता-रफ्ता देखो आँख मेरी लड़ी है इसका एक प्रशस्त उदाहरण है। बाँसुरी और वायलिन ग्रुप का alternation भी कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) की कई कृतियों में मिलता है-‘तमन्ना (1969) के लता के गाए ‘इक झोंका पवन का आया’ इसका एक सुंदर प्रतिनिधि उदाहरण है।

कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji–Anandji) की खूबी यह भी थी कि उन्होंने कई नए गायक-गायिकाओं को अवसर दिया और साथ ही पुरानी मुला दी गई गायिकाओं से भी गीत गाए। जैसे मनहर को ‘विश्वास’ और ‘यादगार’ में, कृष्णा कल्ले को ‘पूर्णिमा’ और ‘राज’ में, उषा तिमोथी को ‘बिरजू उस्ताद’ (1964), ‘हिमालय की गोद’ (1965), ‘मेरा मुन्ना’ (1967) व ‘विश्वास’ (1969) में, हेमलता को ‘विश्वास’ और ‘घर घर की कहानी’ में, कमल बरोट को ‘गंगू’ (1961), ‘फूल बने अंगारे’ (1963), ‘सुनहरी नागिन’ (1963), ‘दूल्हा-दुलहन’ में आदि। कमल बारोट से कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) ने कुछ बड़े सुंदर गैरफिल्मी गीत भी गवाए और आज भी ‘पिया रे प्यार’, ‘पास आओ कि मेरी’ जैसे गीतों का अपना अलग आकर्षण है। बाद के दौर में कंचन को ‘धर्मात्मा’, ‘पाप और पुण्य’, ‘कुर्बानी’ आदि में और साधना सरगम को तो नर्वे दशक की कई फिल्मों में उन्होंने गवाया। पुरानी गायिकाओं में मुबारक बेगम से ‘सरस्वतीचंद्र’ में ‘वादा हमने किया’, ‘जुआरी’ में नींद उड़ जाए तेरी’, चट्टान सिंह (1974) में ‘बालमा तू हर वादे करना है नया ही वादा’ गीत बड़ी खूबसूरती से गाया तो शमशाद बेगम से ‘जौहर महमूद इन हाँगकाँग’ (1975 ) में ‘नवनिया हाले बड़ा मज़ा आए’ गवा कर एक भूली बिसरी हस्ती को वापस लाने की कोशिश की। सुमन कल्याणपुर से भी – क्या है इस बाँसुरिया में जो मुझमें नही साँवरिया (गीत’ 1970), ‘मन मेरा तुझको माँगे (पारस, 1971) जसे सुंदर गीत वे गवाते रहे।

पाश्चात्य म्यूजिकल बीट्स का भारतीय संस्कृति के हिसाब से adaptation का उनका एक एलबम ‘Bombay the hardly भी निकला, पर अधिक चर्चित न रहा। पर यह भी अजीब विडम्बना है कि कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) को पद्मश्री 1997 में तब मिला जब वे फिल्मों से लगभग अलग ही हो चुके थे अपने स्टेज शो के कारण भी कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji –Anandji) अकसर चर्चित रहे।

अगस्त, 2000 में कल्याणजी की मृत्यु के बाद आनंदजी ने कुछ विशिष्ट संगीत एलबम निकाले-इनमें फिल्मों से अलग, भारतीय संगीत की सांस्कृतिक आत्मा की खोज करनेवाले स्वरों और अलंकारों का सुंदर परिचय था आनंदजी अभी भी कुछ स्टेज शो और बच्चों के अपने संगीत विद्यालयों में मसरूफ रहते हैं।

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