आजादी से पहले की फिल्मी गीतों में राष्ट्रीय भावना, जिसे सुनकर देशवासियों में जगी क्रांति की चिंगारी

आजाद हिंद फौज के प्रयाणगीत ‘कदम-कदम बढ़ाए जा खुशी के गीत गाए जा’ को सी. रामचंद्र ने’ समाधि’ में भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी थी। राष्ट्रभक्ति पूर्ण गीतों का सिलसिला यों तो 1947 के बाद के वर्षों में बनी कई फिल्म (Film) तक चला।

Film

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ब्रिटिश हुकूमत के समय भारत में बोलती फिल्मों  के निर्माण के साथ-साथ फिल्म-निर्माताओं को गीतों तथा कथानक के द्वारा राष्ट्रीय भावनाओं को व्यक्त करने का सुनहरा अवसर मिला। 1931 में जब पहली बोलती फिल्म (Film) ‘आलमआरा’ बनी, उस समय हमारे देश का राष्ट्रीय आंदोलन अपने यौवन पर था।

एक वर्ष पूर्व महात्मा गांधी नमक सत्याग्रह के द्वारा जन-जन में स्वदेश प्रेम की ज्वलंत भावना उद्दीप्त कर चुके थे। फिल्मी गीतकारों, गायकों और संगीत निर्देशकों ने भी अवसर आने पर अपनी कला के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना को जगाया।

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विदेशी दासता में जकड़े देशवासियों को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त नहीं थी, इसलिए पुराकालीन उपाख्यानों को रजत पट पर उतारकर उनके द्वारा आजादी की तड़प को जन-जन तक पहुंचाने के लिए फिल्मकार प्रयत्नशील रहे।

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जब वी. शांताराम ने 1933 में ‘महाभारत’ के एक पात्र कीचक के द्वारा राजा विराट के राजमहल में दासी के रूप में अज्ञातवास बिताने वाली द्रौपदी के अपमान की कथा लेकर फिल्म ‘सैरंध्री’ (दासी) बनाई, तो शासकों को यह भ्रांति हुई कि कहीं कीचक के अत्याचारों के बहाने ब्रिटिश सरकार के द्वारा निरीह भारतीय प्रजा पर किए जाने वाले अत्याचारों को तो नहीं दिखाया गया है।

बोलती  फिल्मों (Film) के इस पहले दौर में ‘नवभारत’ (1934), ‘वीर भारत’ (1934) तथा ‘जयभारत’ (1936) जैसे शीर्षकों वाली फिल्में बनीं, जिसमें देशभक्ति के स्वर मुखर हुए थे। 1936 में बॉम्बे टॉकीज ने ‘जन्मभूमि’ नायक फिल्म बनाई, जिसके गीत देशभक्ति तथा राष्ट्र प्रेम के भावों से परिपूर्ण थे।

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इसमें मुख्य भूमिकाएँ अशोक कुमार तथा देविका रानी की थीं। गीतकार थे जमुना स्वरूप कश्यप। ‘नातवां’ जिनकी लेखनी से ‘गांव की माटी मात हमारी’, ‘गई रात आया प्रभात हम निद्रा से जागे’ और ‘सेवा के हम व्रतधारी सेवा से नहीं हटेंगे’ जैसे गांधीवादी आदर्शों से अनुप्राणित गीत निकले।

राष्ट्रवाद की भावना को अभिव्यक्ति देने में बॉम्बे टॉकीज की भूमिका प्रमुख रही। 1940 में बनी लोकप्रिय फिल्म (Film) ‘बंधन’ का गीत ‘चल चल रे नौजवान’ नवयुवकों को आजादी की संघर्षमयी डगर पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता था।

‘रुकना तेरा काम नहीं, चलना तेरी शान’ जैसी पंक्ति के लेखक प्रदीप राष्ट्र प्रेम से ओतप्रोत गीतों की रचना करने वाले कवियों की अग्रिम पंक्ति में थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पढ़ाई खत्म कर वे ताजे-ताजे फिल्म लाइन में आए ही थे। गीत के जिन बोलों ने नौजवानों में उत्साह की लहर पैदा की, वे थे-

तू आगे बढ़े जा आफत से लड़े जा,

आंधी हो या तूफान,

रुकना तेरा काम नहीं, चलना तेरी शान।

इस गीत को श्रोताओं ने इतना पसंद किया कि दिल्ली के एक छविगृह में इस गीत के गाए जाने के बाद हॉल देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा। फिर वंस मोर का स्वर गूंजने लगा। जनता की इस मांग पर रील को दोबारा चालू किया गया और गायक सुरेश, अशोक कुमार व साथियों की ओजस्वी स्वर लहरी गूंज उठी। जब प्रभात फेरियां निकाली जातीं तो आजादी की लड़ाई के सैनिक इस गीत को बार-बार गुनगुनाते थे।

1941 में बॉम्बे टॉकीज ने ‘नया संसार’ नामक एक फिल्म (Film) बनाई। इसमें हरिजनों के उत्थान के लिए किए गए महात्मा गांधी के प्रयत्नों को दिखलाया गया था। इसमें एक नृत्य गीत को उस काल की प्रसिद्ध नर्तकी अजूरी ने पेश किया, जिसमें दलित वर्ग की बालिका के मनोभावों को कवि प्रदीप ने शब्द दिए थे। नायक अशोक कुमार तथा नायिका रेणुका देवी ने एक अन्य गीत गाया, जिसमें स्वतंत्र देश का स्वप्न देखा गया था-

एक नया संसार बसा लें, एक नया संसार।

ऐसा इक संसार कि जिसमें धरती हो आजाद,

कि जिसमें जीवन हो आजाद,

कि जिसमें भारत हो आजाद

जनता का हो राज जगत में जनता की सरकार,

जागे देश की गली-गली में नवयुग का त्योहार।

एक नया संसार बसा लें…

वह जमाना द्वितीय महायुद्ध का था। देश के स्वतंत्र होने में अभी काफी बरस बाकी थे। उस दारुण दासता के युग में जनता के राज और जनता की सरकार की कल्पना करना दुष्कर था, लेकिन गीतकार प्रदीप ने अपने गीत में इसे मूर्त रूप दिया था।

इसके बाद आया 1942 का साल, जब गांधीजी ने ‘अंग्रेजों, भारत छोड़ो’ का नारा दिया। ठीक एक साल बाद बॉम्बे टॉकीज ने ज्ञान मुखर्जी के निर्देशन में फिल्म (Film) ‘किस्मत’ बनाई। मुमताज शांति और अशोक कुमार की इस फिल्म ने बेहिसाब शोहरत पाई थी।

1943 में बंगाल में भयंकर दुष्काल पड़ा था, जब एक मुट्ठी अन्न के लिए भूखों ने अपनी संतानों को बेच दिया तथा बहू-बेटियों की लज्जा को चावल के चंद दानों के लिए दांव पर लगाया गया। विदेशी शासन के इस क्रूर तांडव को देखकर कवि की आत्मा कराह उठी और तब गीत में गीतकार का आक्रोश इस प्रकार फूट पड़ा-

जी चाहता है संसार में मैं आग लगा दूं।

अनिल बिस्वास के सशक्त संगीत निर्देशन में यह गीत गाया गया था।

1941 में मिनर्वा मूवीटोन के बैनर तले सोहराब मोदी ने ‘सिकंदर’ फिल्म (Film) बनाई। इसमें एक प्रभावशाली सैनिक प्रयाण गीत था-

जिदगी है प्यार से प्यार में लुटाए जा।

हुस्न के हुजूर में अपना सिर झुकाए जा।

गीत में आए ‘प्यार’ शब्द को देशप्रेम के अर्थ में लेना अधिक उपयुक्त है, क्योंकि यहां देश के सिपाही अपनी विजय यात्रा पर निकले हैं। इस गीत की आगे की पंक्तियां और भी सार्थक एवं व्यंजना प्रधान हैं-

जिंदगी है इक जुआ दूर से देखता है क्या,

आगे बढ़कर अपनी जान दांव पर लगाए जा।

हंस के मात खाए जा…

गीतकार का भाव है कि जब जिंदगी ही एक जुआ है, जिसमें हार-जीत, सफलता असफलता अनिश्चित रहती है तो क्यों नहीं देश के लिए हम अपनी इस जिंदगी को ही दांव पर लगा दें। अहिंसा के पालन के द्वारा अत्याचारी के दमन को सहने का भाव ‘हंस के मात खाए जा’ में व्यक्त हुआ है। जब नेताजी सुभाष ने दूसरे महायुद्ध के दौरान आजाद हिंद फौज का गठन किया तो ‘सिकंदर’ के उपर्युक्त गीत की तर्ज पर उन्होंने निम्न प्रयाणगीत को स्वीकृत किया था-

कदम कदम बढ़ाए जा खुशी के गीत गाए जा,

यह जिंदगी है कौम की तू कौम पे लुटाए जा ।

लाहौर के दिलसुख पंचोली पिक्चर्स ने 1943 में ‘पूंजी’ शीर्षक से एक फिल्म (Film) बनाई। इसमें एक स्वर्गगता माता की तस्वीर के आगे उसकी तीन पुत्रियों द्वारा गाया गया एक गीत रखा गया था, जिसके बोल थे-

माता अब जाग उठे हैं हम कुछ करके दिखा देंगे।

ए मां ओ मां ओ मां तेरे कदमों में आकाश झुका देंगे।

निश्चय ही जन्म देने वाली हाड़-मांस-मज्जा वाली मां के आगे आकाश को झुका देने की बात का कोई अर्थ नहीं है। ये उद्गार भारत माता के लिए ही प्रकट हुए हैं, क्योंकि आगे की पंक्तियों में भी ऐसे ही भाव स्पष्ट रूप से आए हैं-

वो राज जो तेरा था वो ताज जो तेरा था,

गैरों ने जो छीना था वो हम छीन के ला देंगे।

यहां तो शक की कोई गुंजाइश ही नहीं है, क्योंकि भारत माता के तख्तो-ताज को छीनने वालों का यहां स्पष्ट संकेत है।

1944 में रणजीत मूवीटोन ने फिल्म (Film) ‘भंवरा’ बनाई, जिसके गीत स्व. केदार शर्मा ने लिखे थे, जो एक सफल गीतकार के अलावा सफल निर्माता तथा निर्देशक भी थे। ‘भंवरा’ में सैगल का गाया एक गीत था-

ठुकरा रही है दुनिया हम हैं कि सो रहे हैं।

बरबाद हो चुके थे बरबाद हो रहे हैं।

सहमी हुई हैं देखो इस बाग की बहारें

फूलों को रौंदकर हम कांटों को बो रहे हैं।

गीत के ये शब्द देश की दुर्दशा को ही संकेतित करते हैं। अन्योक्ति के द्वारा कवि (गीतकार) ने बाग की बहारों के सहमने तथा फूलों के रौंदने का उल्लेख कर भारत की अधोगति को उभारा है। आगे चलकर गीतकार हमें उद्बोधन तथा चेतावनी देता है-

यह वक्त है कि मिलकर बिगड़ी हुई बना लें,

यह वक्त कीमती है हम झगड़े में खो रहे हैं।

देशवासियों की परस्पर फूट तथा सांप्रदायिक उपद्रवों की दर्दनाक तस्वीर को गीतकार ने साफ उभारा है। लेकिन इसके लिए हम किसे दोषी ठहराएं? क्या हमारा ही यह दोष नहीं है कि हम आपस में लड़कर देश की नौका को डुबो रहे हैं-

गैरों से ना शिकायत कड़ियों से न गिला है।

हिंदुस्तान की नाव हिंदी डुबो रहे हैं।

इससे अधिक स्पष्टोक्ति क्या हो सकती है, जब गीतकार ने देश की दुर्दशा के लिए यहां के वासियों को ही उत्तरदायी ठहराया।

आजादी के पहले की फिल्मों में राष्ट्रीय भावना, देश की अधोगति तथा आजादी की ललक को ध्वन्यात्मक शैली में ही प्रस्तुत किया जाता रहा। यह उचित भी था, क्योंकि यदि साफ तौर पर कोई बात कही जाती तो सरकार का कोप भाजन बनना पड़ता। तभी तो सोहराब मोदी द्वारा मुगल बादशाह जहांगीर के न्याय को लेकर बनाई गई फिल्म (Film) ‘पुकार’ में पराधीन देश के जीवन की उस वाद्य यंत्र (साज) से उपमा दी गई है, जो बज तो रहा है किंतु जिससे कोई आवाज नहीं निकलती-

जिंदगी का साज भी क्या साज है,

 बज रहा है और बेआवाज है।

सच है कि पराधीनता के पाशों में जकड़ा देश अपनी व्यथा-कथा को सुनाने में भी असमर्थ था।

1945 में शौकत हुसैन रिजवी (मलिका-ए-तरन्नुम के खिताब से नवाजी गई गायिका-अभिनेत्री नूरजहां के पति) ने मुसलिम सामाजिक जीवन को उजागर करने वाली फिल्म (Film) ‘जिनत’ का निर्माण किया। इसमें नारी के अभिशाप-ग्रस्त जीवन को दर्शाने वाली पंक्तियां निम्न गीत में आईं

बुलबुलो मत रो यहां आंसू बहाना है मना।

इस कफस के कैदियों को मुसकराना है मना।

लेकिन नारी की गुलामी वाली जिंदगी को साकार करने वाली ये पंक्तियां पराधीनता के पिंजरों में बंद गुलाम देशों के नागरिकों की पीड़ा को भी व्यक्त करती हैं, जहां न तो आंसू बहाने की इजाजत है और न सिर उठाने की।

चालीस के दशक के अंतिम वर्ष 1940 में ‘हिंद का लाल’, ‘हिंदुस्तान हमारा’ और ‘जय स्वदेश’ जैसी फिल्मों का एक साथ बनना यह सूचित करता है कि फिल्म निर्माता अपनी कला सृष्टि को राष्ट्र जागरण के लिए समर्पित कर रहे थे। आजादी के लिए लगातार जूझते हुए भी जब देशवासी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते तो उनकी दृष्टि सहज ही परमात्मा की ओर उठ जाती है-

डगमग डोले देश की नैया, पार लगाओ कृष्ण कन्हैया। – (‘हिंद का लाल’)।

‘हिंदुस्तान हमारा’ के गीतकार आरजू थे। उन्होंने देशवासियों की मनोदशा को इस प्रकार चित्रित किया-

तुम्हें क्या बताएं कि क्या चाहते हैं?

दुखी है दुखों की दवा चाहते हैं।

महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए खादी व चरखे के आंदोलन ने देशवासियों को स्वदेशी वस्तुओं को प्रयोग में लाने की प्रेरणा दी। गीतकार आरजू ने चरखे की महिमा का गीत लिखा –

चर्खा चल के काम बनाए,

चर्खा आए गरीबी जाए,

निकले चर्खे से जब तार।

इप्टा (इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसिएशन) ने 1946 में ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में फिल्म (Film) ‘धरती के लाल’ बनाई। सामाजिक चेतना व समाजवाद के विचारों से अनुप्राणित इस फिल्म को सच्चे अर्थों में जनवादी फिल्म कहा जा सकता है। इसकी गायिका मुमताज शांति अपने विचारों को प्रकट करने की स्वतंत्रता की वकालत करती है-

अब न जबां पर ताले डालो,

जी का हाल सुनाने दो।

1946 तक आते-आते देश के राजनैतिक क्षितिज पर छाया कुहासा दूर हो रहा था और आजादी की मंजिल करीब आ रही थी। गीतकारों में आत्मविश्वास बढ़ रहा था और वे निर्भीक होकर जन भावनाओं को गीतों के द्वारा प्रकट कर रहे थे। 1948 में फिल्मिस्तान की फिल्म (Film) ‘शहीद’ बनी, जिसका संगीत गुलाम हैदर ने तैयार किया था।

इसमें देश के लिए जान की कुर्बानी देने वाले नायक के जनाजे के दृश्य में गाए जाने वाले गीत की करुणापूर्ण पंक्तियों ने 70 वर्ष पहले के दर्शकों की आंखों को तो गीला किया ही, आज भी इसे सुनकर हमारे नेत्र बरबस अश्रुसिक्त हो उठते हैं। मोहम्मद रफी, खान मस्ताना व साथियों ने सम्मिलित रूप में इसे गाया था।-

वक्त की राह में वतन के नौजवां शहीद हो।

पुकारते हैं ये जमी और आसमां शहीद हो। वतन की राह में…

बसंत देसाई के संगीत निर्देशन में ‘हिंदुस्तान हमारा’ शीर्षक फिल्म 1950 में बनी। इसमें डॉ. इकबाल के प्रसिद्ध गीत ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ का भव्य प्रस्तुतीकरण किया गया। देश की आजादी के थोड़ा पहले नेताजी द्वारा गठित आजाद हिंद फौज के सेनानायकों और सिपाहियों को गिरफ्तार कर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया।

फिल्म (Film) ‘समाधि’ के गानों पर अंग्रेजों ने लगा दिया था बैन

आजाद हिंद फौज की वीरता के कारनामों को फिल्मिस्तान ने फिल्म (Film) ‘समाधि’ में चित्रित किया। इसमें मुख्य भूमिका अशोक कुमार तथा नलिनी जयवंत की थीं। इसके संगीतकार सी. रामचंद्र अच्छे निर्देशक होने के साथ-साथ अच्छे गायक भी थे, जो चितलकर के नाम से यदा-कदा गाते भी थे।

आजाद हिंद फौज के प्रयाणगीत ‘कदम-कदम बढ़ाए जा खुशी के गीत गाए जा’ को सी. रामचंद्र ने ‘समाधि’ में भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी थी। हालांकि फिल्म समाधी का ये गीत 1944 में ही तैयार हो गया था और इस गीत के बोल ने भारतीयों के मन में ऐसी चिंगारी लगाई की उससे पूरी ब्रिटिश हुकूमत थर्रा गई। इस गाने और फिल्म पर अंग्रेजों ने बैन लगा दिया जो आजादी मिलने के बाद 1950 में रिलीज किया गया। 

राष्ट्रभक्ति पूर्ण गीतों का सिलसिला यों तो 1947 के बाद के वर्षों में बनी फिल्मों तक चला, लेकिन उनमें वैसी ऊष्मा, भावों की गहराई और अदाकारी के वैसे जौहर कम दिखाई पड़े, जो 1950 तक के राष्ट्रभक्ति पर गीतों में पाए गए थे।

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