पुण्यतिथि विशेष: शहनाई के साधक थे भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, शास्त्रीय संगीत को संपूर्ण विश्व में स्थापित किया

बिस्मिल्लाह खान (Bismillah Khan) ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अकेले ही शहनाई को प्रसिद्धि दिलाई। 1937 में उन्होंने जब कोलकाता में हुए अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में शहनाई वादन किया, तो उनकी इस कला को लोगों ने अत्यंत पसंद किया।

Bismillah Khan उस्ताद बिस्मिल्लाह खान

Bismillah Khan Death Anniversary II उस्ताद बिस्मिल्लाह खान पुण्यतिथि विशेष

Remembering Ustad Bismillah Khan: वर्ष 1947 के अगस्त महीने की बात है। देश आजाद होनेवाला था 15 अगस्त, 1947 को देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को लाल किले से तिरंगा फहराना था। लाखों हिंदुस्तानियों के लिए यह गर्व का लम्हा था आजादी के इस पल को देखने के लिए कितनी क्रांतियां हुई थीं, कितने आंदोलन हुए थे। कितने शहीदों ने अपने प्राणों की बलि दी थी। कितने जेल गए थे। कितनों को लाठियां खानी पड़ी थीं। काफी संघर्ष और बलिदान के बाद यह घड़ी आने वाली थी।

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15 अगस्त, 1947 के कार्यक्रम की तैयारियां चल रही थीं। इससे ठीक पहले पंडित नेहरू के दिमाग में एक विचार आया। तय किया गया कि लाल किले से उनके झंडा फहराने के बाद संगीत का एक कार्यक्रम होगा। इसके लिए उन्होंने उस कलाकार के बारे में भी सोच लिया, जिसे कार्यक्रम पेश करना था। उस कलाकार के पास प्रधानमंत्री का न्योता भेज दिया गया। न्योते में कहा गया कि प्रधानमंत्री चाहते हैं कि आजाद भारत के पहले सूरज का स्वागत शहनाई से किया जाए। यह कलाकार कोई और नहीं बल्कि ‘भारत रत्न’ से सम्मानित शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान (Bismillah Khan) थे। प्रधानमंत्री ने इतने बड़े ऐतिहासिक लम्हे पर कार्यक्रम पेश करने की रजामंदी दे दी।

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान (Bismillah Khan) बनारस से ट्रेन से दिल्ली पहुंचे। तय तारीख यानी 15 अगस्त, 1947 को प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने तिरंगा फहराया, भाषण दिया और उसके बाद शुरू हुआ उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का शहनाई वादन। उस वक्त बिस्मिल्लाह खां की उम्र करीब 30 साल थी। उनकी आंखें नम थीं। वे बस शहनाई बजाते रहे।

क्या आप जानते हैं कि उस रोज उस्ताद बिस्मिल्लाह खान (Bismillah Khan) ने कौन सा राग बजाया था? वह राग था- ‘राग काफी’। आजाद हिंदुस्तान के पहले सूरज का स्वागत उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने राग काफी से किया था।

बिस्मिल्लाह खान (Bismillah Khan) का जन्म 21 मार्च 1916 को पैगम्बर खान और मिट्टन बी के घर में हुआ था, जो कि भांग की गली, डुमरांव, बिहार में रहते थे। उन्होंने इनका नाम अपने बड़े पुत्र शम्सुद्दीन से मिलाते हुए कमरुद्दीन रखा। उनके दादा रसूलबख्श खान ने नवजात शिशु को देखकर बिस्मिल्लाह कहा जिससे कि उनका नाम बिस्मिल्लाह पड़ गया। उनके पूर्वज भोजपुर के राजा के नक्कारखाना के संगीतज्ञ थे। बिस्मिल्लाह खान के पिता डुमरांव के महाराजा केशव प्रसाद के दरबार में शहनाई वादक थे। 6 साल की उम्र में बालक बिस्मिल्लाह अपने नाना के घर वाराणसी में गंगा घाट के पास आकर रहने लगे। उन्होंने शहनाई वादन का तालीम अपने मामा अली बख्श ‘विलायती’ से प्राप्त की। अली बख्श वाराणसी के विश्व प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर में शहनाई वादक थे।

20 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उनका बड़ा नाम हो चुका था। अप्रैल 1936 में लखनऊ में हुए उनके एक कार्यक्रम की खूब चर्चा होती है। खान साहब बाद में बहुत सालों तक आजादी के पहले दिन बजाए अपने ‘राग काफी’ का किस्सा सुनाया करते थे। इस कहानी के साथ ही राग काफी की चर्चा करते हैं।

1981 में एक फिल्म आई थी ‘चश्मे बद्दूर’। सई परांजपे द्वारा निर्देशित इस फिल्म में एक बेहद लोकप्रिय गाना था ‘ काली घोड़ी द्वार खड़ी’। फिल्म के संगीतकार राजकमल ने इस गाने को राग काफी में ‘कंपोज’ किया था। इसके अलावा भी कई सुपरहिट गाने इस राग में ‘कंपोज ‘ किए गए हैं।

1952 में आई फिल्म ‘जाल’ का गाना-‘ये रात ये चांदनी फिर कहां सुन जा दिल की दास्तां, 1955 में आई फिल्म ‘मुनीमजी’ का गाना- ‘घायल हिरनिया’, 1963 में रिलीज फिल्म ‘गोदान’ का गाना ‘बिरज में होली खेलत नंदलाल’, 1966 में आई फिल्म ‘सवाल’ का गाना ‘लट उलझी सुलझा जा बालमा’ और 1979 में आई फिल्म ‘मनोकामना’ का गाना- ‘तुम्हारा प्यार चाहिए मुझे जीने के लिए’ अब भी खूब सुना जाता है। |

दरअसल राग काफी को चंचल किस्म का राग माना जाता है। इस राग में छोटा खयाल और ठुमरियां खूब गाई जाती हैं। राग काफी में गाई जाने वाले ज्यादातर ठुमरियों में ब्रज की होली का जिक्र रहता है। राग काफी की ठुमरियों को फागुन के महीने में ज्यादा गाया जाता है, इसीलिए राग काफी को मौसमी राग भी कहा जाता है।

फिल्मी गीतों के साथ-साथ राग काफी में जगजीत सिंह की गाई एक गजल भी काफी लोकप्रिय हुई थी। सईद राही की लिखी यह गजल पढ़िए-

तुम नहीं, गम नहीं, शराब नहीं

ऐसी तन्हाई का जवाब नहीं

गाहे-गाहे इसे पढ़ा कीजिए,

दिल से बेहतर कोई किताब नहीं

जाने किस-किस की मौत आई है

आज रुख पे कोई नकाब नहीं

वो करम उंगलियों पे गिनते हैं

जुल्म का जिनके कुछ हिसाब नहीं।

बिस्मिल्लाह खान (Bismillah Khan) ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अकेले ही शहनाई को प्रसिद्धि दिलाई। 1937 में उन्होंने जब कोलकाता में हुए अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में शहनाई वादन किया, तो उनकी इस कला को लोगों ने अत्यंत पसंद किया। इस वाद्ययंत्र पर उनका पूर्ण एकाधिकार था। वास्तव में उस्ताद ने शहनाई को शास्त्रीय संगीत के सबसे पसंदीदा वाद्ययंत्र के रूप में स्थापित कर दिया।  जब वह शहनाई बजाते वे तो उसमें ऐसी लय पैदा करते थे कि उसके कारण वातावरण में एक शांति व जादू सा फैल जाता था, और श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान (Bismillah Khan) साहब को शहनाई-वादन की कला को श्रेष्ठतम स्तर तक ले जाने का श्रेय प्राप्त है। भारत सरकार ने 2001 में उस्ताद को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया है।

उस्ताद बिस्मिल्ला ने बतौर शहनाई-वादक के रूप में जो कुछ कमाया था वो सब लोगों की मदद और अपने बड़े परिवार के भरण-पोषण में खर्च कर दिया। एक समय तो ऐसा भी आया जब बिस्मिल्लाह तंगहाली के कगार पर खड़े हो गये, तब भारत सरकार ने उनकी आर्थिक मदद की थी।

जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर बिस्मिल्लाह खान (Bismillah Khan) ने इंडिया गेट के सामने शहनाई बजाने की ख्वाहिश जाहिर की थी लेकिन उनकी ये इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकी। 21 अगस्त 2006 को 90 साल की उम्र में शहनाई का ये जादूगर अपना शरीह त्यागकर हमेशा-हमेशा के लिए अपने अनंत यात्रा पर चले गये। उनके इंतकाल के समय उन्हें सम्मान देने के लिए साथ में एक शहनाई भी दफ्न की गई थी।

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