हिंदी सिनेमा के स्तंभ बिमल रॉय: यथार्थवादी और समाजवादी फिल्मों को लोकप्रिय बनाने वाले पहले फिल्मकार

हिंदी फिल्मों में नायक केंद्रित कथानकों का ही जोर रहा है, लेकिन ‘बिमल दा’ ने उसे भी खारिज कर दिया और नायिकाओं को केंद्रित कर बेहद कामयाब फिल्में बनाई। ऐसी फिल्मों में मधुमती’, ‘बंदिनी’, ‘सुजाता’, ‘परिणीता’, ‘बेनजीर’, ‘बिराज बहू’ आदि शामिल हैं। सामाजिक समस्याओं से रू-ब-रू कराते हुए भी बिमल रॉय  (Bimal Roy) भारतीय मूल्यों और परंपराओं को भूलते नहीं दिखते।

Bimal Roy बिमल रॉय

बिमल रॉय जयंती II Bimal Roy Birth Anniversary

हिदी सिनेमा में प्रचलित यथार्थवादी और व्यावसायिक धाराओं के बीच की दूरी को पाटते हुए लोकप्रिय फिल्में बनाने वाले बिमल रॉय  (Bimal Roy) बेहद संवेदनशील और मौलिक फिल्मकार थे। सिनेमा की भाषा, तकनीक और अभिनय के व्याकरण से पूरी तरह वाकिफ बिमल रॉय (Bimal Roy) ने ऐसी फिल्में बनाई जिनकी प्रासंगिकृता आज भी बरकरार है।

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उदाहरण के लिए उनकी कालजयी फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ को लिया जा सकता है। करीब 55 साल पहले प्रदर्शित इस फिल्म में गाँवों से शहरों में रोजगार की तलाश में आए खेतिहर मजदूरों की पीड़ा का मार्मिक वर्णन है। बलराज साहनी और निरूपा राय अभिनीत इस फिल्म के एक दृश्य में रिक्शा खींच रहे श्रमिक को अधिक पैसे कमाने के लिए कार से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। यह मजदूरों की ऐसी अमान्वीय तसवीर है जो आज भी प्रासंगिक है, खासकर ऐसे वक्त में जब बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। फिल्म देखने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि बिमल रॉय  (Bimal Roy) को बहुत पहले ही भविष्य में विकास और उद्योग के नाम पर सीमांत किसानों और खेतिहर मजदूरों पर गहराते संकट का अहसास हो गया था।

बिमल रॉय  (Bimal Roy) ने अपनी फिल्मों में सामाजिक समस्याओं को तो उठाया ही, उनके समाधान का भी प्रयास किया और पर्याप्त संकेत दिए कि उन स्थितियों से कैसे निबटा जाए। बंदिनी’ और ‘सुजाता’ फिल्मों का उदाहरण सामने है, जिनके माध्यम से वह समाज को संदेश देते हैं।

देशभक्ति और सामाजिक फिल्मों से अपना सफर शुरू करने वाले बिमल रॉय  (Bimal Roy) की कृतियों के विषय का फलक काफी व्यापक रहा और वह किसी एक इमेज में बंधने से बच गए। एक और वह सामाजिक बुराई का संवेदना के साथ चित्रण कर रहे थे तो दूसरी ओर उनका ध्यान स्त्रियों के सम्मान और उनकी पीड़ा की तरफ भी था।

बिमल रॉय (Bimal Roy) ने शुरू किया नायिका प्रधान फिल्मों का ट्रेंड

हिंदी फिल्मों में नायक केंद्रित कथानकों का ही जोर रहा है, लेकिन ‘बिमल दा’ ने उसे भी खारिज कर दिया और नायिकाओं को केंद्रित कर बेहद कामयाब फिल्में बनाई। ऐसी फिल्मों में मधुमती’, ‘बंदिनी’, ‘सुजाता’, ‘परिणीता’, ‘बेनजीर’, ‘बिराज बहू’ आदि शामिल हैं। सामाजिक समस्याओं से रू-ब-रू कराते हुए भी बिमल रॉय  (Bimal Roy) भारतीय मूल्यों और परंपराओं को भूलते नहीं दिखते।

उनकी एक और बेहद् सफल और चर्चित फिल्म ‘देवदास’ में यह बात साफ तौर पर उभरकर सामने आई है। ‘देवदास’ में नायक के लिए पारो भले ही बेवफा हो, लेकिन उसके लिए रीति-रिवाजों के परंपरागत भंवर में फँसना ही आदर्श है। इसकी रक्षा के लिए वह जीवन भर देवदास के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाती। इसके साथ ही चंद्रमुखी का भी चरित्र है, जो तमाम विपरीत स्थिति के बावजूद मन से गंगा की तरह पवित्र है।

12 जुलाई 1909 को पैदा हुए बिमल रॉय  (Bimal Roy) के मानवीय अनुभूतियों के गहरे पारखी और सामाजिक मनोवैज्ञानिक होने के कारण उनकी फिल्मों में सादगी बनी रही और उनमें कहीं से भी जबरदस्ती थोपी हुई या बडबोलेपन की झलक नहीं मिलती। इसके अलावा सिनेमा तकनीक पर भी उनकी मजबूत पकड़ थी, जिससे उनकी फिल्में दर्शकों को प्रभावित करती हैं और दर्शकों को अंत तक बाँधकर रखने में सफल होती हैं।

शायद यही वजह रही कि जब उनकी फिल्में आईं तो प्रतिस्पर्धा में दूसरे निर्देशक नहीं ठहर सके उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए सात बार ‘फिल्मफेयर पुरस्कार’ मिले। इनमें दी बार तो उन्होंने हैट्रिक बनाई। उन्हें 1953 में ‘दो बीघा जमीन के लिए’ पहली बार यह पुरस्कार मिला। इसके बाद 1954 में ‘परिणीता’, 1955 में ‘बिराज बहू’ के लिए यह सम्मान मिला। दो साल के अंतराल के बाद 1958 में ‘मधुमती’, 1959 में ‘सुजाता’ और 1960 में परख के लिए उन्हें यह पुरस्कार मिला। इसके अलावा 1963 में ‘बैंदिनी’ के लिए उन्हें ‘सर्वश्रेष्ठ निर्देशन’ का ‘फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। बिमल रॉय  (Bimal Roy) ‘चैताली’ फिल्म पर काम कर ही रहे थे, लेकिन 1966 में 7 जनवरी को विधाता ने उन्हें हमसे छीन लिया। बिमल रॉय  (Bimal Roy) भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उन्होंने फिल्मों की जो भव्य विरासत छोड़ी है, वह सिने जगत के लिए हमेशा अनमोल रहेगी।

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