आनंद बक्शी: एक ऐसा गीतकार जिसने हिंदी सिनेमा के लिए एक से एक बेहतरीन और सदाबहार गाने लिखे

मुंबई में आनंद बख्शी मुलाकात फिल्म ‘बड़ा आदमी’ (1956) के निर्देशक भगवान दादा से हुई, जो गीतकार ढूँढ़ रहे थे और उन्होंने आनंद (Anand Bakshi) से कहा कि वह उनकी फिल्म के लिए गीत लिख दें। इसके लिए वह उनको रुपए भी देने को तैयार हैं। लेकिन उन्हें तब तक गीतकार के रूप में संघर्ष करना पड़ा जब तक सूरज प्रकाश की फिल्म ‘मेहंदी लगी मेरे हाथ’ (1962) और ‘जब-जब फूल खिले’ (1965) परदे पर नहीं आई।

Anand Bakshi आनंद बख्शी

Anand Bakshi Birth Anniversary II आनंद बख्शी जयंती

आनंद बख्शी (Anand Bakshi) वह नाम है जिसके बिना आज तक बनी बहुत बड़ी-बड़ी म्यूजिकल फिल्मों को शायद वह सफलता न मिलती, जिनको बनाने वाले आज गर्व करते हैं। वह उन गीतकारों में से एक हैं जिन्होंने एक के बाद एक, और लगातार साल-दर-साल बहुचर्चित और दिल लुभानेवाले यादगार गीत लिखे।

आनंद बख्शी (Anand Bakshi) का जन्म 21 जुलाई, 1920 को रावलपिंडी में हुआ जब वह महज 10 साल के थे, तभी उनकी माँ का निधन हो गया। विभाजन के बाद उनका परिवार 1947 में भारत चला आया। 15 नवंबर, 1947 को वह कोर ऑफ सिग्नल्स’ की सेवा में शामिल हुए और जबलपुर में प्रशिक्षण हासिल किया। इसके बाद स्विच बोर्ड ऑपरेटर के तौर पर उन्होंने काम किया। बचपन से ही फिल्मों का शौकीन होने के कारण उनका मन इस काम में नहीं लगा और वह अपनी किस्मत आजमाने बंबई पहुँचे। आनंद बख्शी (Anand Bakshi) ने एक यही सपना देखा था कि बंबई (मुंबई) जाकर पार्श्व (प्लेबैक) गायक बनना है।

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इसी सपने के पीछे दौड़ते-भागते ही वह बंबई आ गए और उन्होंने आजीविका के लिए जलसेना (सेवा), कराची के लिए नौकरी की, लेकिन किसी उच्च पदाधिकारी से कहा-सुनी के कारण उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी। इसी बीच भारत-पाकिस्तान बँटवारा हुआ और वह लखनऊ में अपने घर आ गए। यहाँ वह टेलीफोन ऑपरेटर का काम कर तो रहे थे लेकिन गायक बनने का सपना उनकी आँखों से कोहरे की तरह छैंटा नहीं और वह एक बार फिर बंबई को निकल पड़े। बंबई जाकर उन्हें ठोकरों के अलावा कुछ नहीं मिला। फिर वह दिल्ली तो आ गए और एक कंपनी में मोटर मकैनिक की नौकरी भी करने लगे, लेकिन दीवाने के दिल को चैन नहीं आया और फिर वह भाग्य आजमाने बम्बई लौट गए।

बॉलीवुड में आनंद बख्शी (Anand Bakshi) के सुहाने सफर की शुरुआत

इस बार बार उनकी मुलाकात भगवान दादा से हुई, जो फिल्म ‘बड़ा आदमी’ (1956) के लिए गीतकार ढूँढ़ रहे थे और उन्होंने आनंद बख्शी (Anand Bakshi) से कहा कि वह उनकी फिल्म के लिए गीत लिख दें। इसके लिए वह उनको रुपए भी देने को तैयार हैं। लेकिन उन्हें तब तक गीतकार के रूप में संघर्ष करना पड़ा जब तक सूरज प्रकाश की फिल्म ‘मेहंदी लगी मेरे हाथ’ (1962) और ‘जब-जब फूल खिले’ (1965) परदे पर नहीं आई। ‘परदेसियों से न अंखियाँ मिलाना’ और ‘यह समा है प्यार का’ जैसे लाजवाब गीतों ने उन्हें बहुत लोकप्रिय बना दिया। बॉलीवुड में उस समय हसरत जयपुरी, साहिर लुधियानवी और शैलेंद्र जैसे गीतकारों का बोलबाला था। ऐसे में अपने लिए जगह बनाना बख्शी के लिए आसान नहीं था उन्हें सही मायने में सफलता सुनील दत्त और नूतन अभिनीत फिल्म ‘मिलन’ से मिली। इस फिल्म के ‘सावन का महीना’ और ‘राम करे ऐसा हो जाए’ जैसे गीत इस कदर हिट हुए कि उनकी गाड़ी चल निकली। उसके बाद तो वह गीतकारों की श्रेणी में सबसे ऊपर आ गए। अब ‘सावन का महीना’, ‘बोल गोरी बोल’, ‘राम करे ऐसा हो जाये’, ‘मैं तो दीवाना’ और ‘हम-तुम युग-युग’ यह गीत देश के घर-घर में गुनगुनाए जा रहे थे।

वह शक्ति सामंत, राज खोसला, सुभाष घई, यश चोपड़ा जैसे कई बड़े निर्देशकों की पहली पसंद बन गए। प्रसिद्ध संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत निर्देशनवाली फिल्मों में तो वह स्थायी गीतकार बन गए। दोस्ती को छोड़कर बाकी जितनी भी फिल्मों के लिए लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला, उसके गीत बख्शी ने ही लिखे थे यह सुनहरा दौर था जब गीतकार आनंद बख्शी (Anand Bakshi) ने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ काम करते हुए ‘फर्ज’ (1967), ‘दो रास्ते’ (1969), ‘बॉबी’ (1973), ‘अमर अकबर एंथोनी’ (1977), ‘इक दूजे के लिए’ (1981) के लिए गीत दिए।

पंचम दा के नाम से मशहूर आर.डी. बर्मन के साथ भी उनकी जोड़ी खूब जमी और दोनों ने एक से बढ़कर एक गीतों से श्रोताओं को अपना दीवाना बनाया। राहुल देव बर्मन के साथ ‘कटी पतंग’ (1970), ‘अमर प्रेम’ (1971), ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ (1971) और ‘लव स्टोरी’ (1981) फिल्मों में अमर गीत दिए। फिल्म ‘अमर प्रेम’ (1971) के ‘बड़ा नटखट है किशन कन्हैया’, ‘कुछ तो लोग कहेंगे’, ‘ये क्या हुआ’, और ‘रैना बीती जाए’ जैसे उत्कृष्ट गीत हर दिल में धड़कते हैं और सुननेवाले के दिल की सदा में बसते हैं। अगर फिल्म निर्माताओं के विषय में चर्चा की जाए तो राज कपूर के लिए ‘बॉबी’ (1973), ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ (1978), सुभाष घई के लिए ‘कर्ज’ (1980), ‘हीरो’ (1983), ‘कर्मा’ (1986), ‘राम-लखन’ (1989), ‘सौदागर’ (1991), ‘खलनायक’ (1993), ‘ताल’ (1999) और ‘यादें (2001) और यश चोपड़ा के लिए ‘ चाँदनी’ (1989), ‘लम्हे’ (1991), ‘डर’ (1993), ‘दिल तो पागल है’ (1997) आदित्य चोपड़ा के लिए ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे’ (1995), मोहब्बतें (2000) फिल्मों में सदाबहार गीत लिखे। बक्शी साहब ने फिल्म ‘मोम की गुड़िया’ (1972) में गीत ‘बागों में बहार आई’ लता जी के साथ गाया था। इसके अलावा ‘शोले’ (1975), ‘महाचोर’ (1976), ‘चरस’ (1976), ‘विधाता’ (1982) और ‘जान’ (1996) में भी पार्श्व (प्लेबैक) गायक रहे। आनंद साहब का फिल्म जगत् में योगदान यहीं सीमित नहीं रहा, ‘शहंशाह’ (1988), ‘प्रेम प्रतिज्ञा’ (1989), ‘मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी’ (1994), और ‘आरजू’ (1999) में बतौर एक्शन डायरेक्टर भी काम किया, सिर्फ यही नहीं ‘ पिकनिक’ ( 1966) में अदाकारी भी की।

अपने फिल्मी कॅरियर में 4000 से अधिक गीतों की रचना करने वाले बख्शी की खासियत यही थी कि इतने गीतों की रचना करने के बावजूद वह हर नए गीत में नया रंग भर देते थे। ए.आर. रहमान का संगीतबद्ध किया फिल्म ‘ताल’ का यह गीत साबित करता है कि हर पीढ़ी के संगीतकारों के साथ पैठ बिठाने में बख्शी साहब को कभी परेशानी नहीं हुई।

सिगरेट के अत्यधिक सेवन की वजह से वह फेफड़े तथा दिल की बीमारी से ग्रस्त हो गए। आखिरकार 82 साल की उम्र में अंगों के काम करना बंद करने के कारण 30 मार्च, 2002 को उनका निधन हो गया।

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