राष्ट्रहित बनाम निजताः जरूरी क्या है?

स्नूपिंग का रोना रोने वालों के लिए ये जान लेना जरूरी है कि दुनिया के ज्यादातर देशों में स्नूपिंग को लेकर जैसे मानक प्रॉसिजर हैं उसके मुकाबले हमारे कायदे और नियम बहुत कठोर हैं। अमेरिका समेत दुनिया के ज्यादातर देशों में सरकारी स्तर पर जितनी स्नूपिंग होती है, उसके मुकाबले हम कहीं नहीं टिकते।

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अपनी पर्सनल लाइफ और पर्सनल स्पेस सब पोशीदा रखना चाहते हैं। कौन चाहता है कि उसकी जाति ज़िंदगी में कोई बेरोक-टोक ताक-झांक करे। पर ये हमेशा हमारे हाथ में तो होता नहीं कि हम जैसा चाहते हैं, सब-कुछ वैसा ही और उसी तरीके से हो।

इसी से जुड़ा एक विमर्श देश में शुरू हुआ है। इसका आधार है 20 दिसंबर, 2018 को गृह मंत्रालय द्वारा जारी वह अधिसूचना जिसके तहत देश की 10 एजेंसी को जासूसी का लाइसेंस मिल गया। इन एजेंसियों को ये लाइसेंस आईटी एक्ट, 2000 के तहत मिला है। ये एजेंसियां किसी भी कंप्यूटर सिस्टम की जानकारी को इंटरसेप्ट, मॉनिटर या डिक्रिप्ट कर सकती हैं। फिर चाहे वो सिस्टम पर स्टोर की गई जानकारी हो या भेजी व रिसीव की गई जानकारी।

एजेंसियों की इस फेहरिस्त में ना सिर्फ आईबी, ईडी, डीआरआई, सीबीआई, एनआईए, रॉ, डायरेक्टरेट ऑफ सिग्नल इंटेलिजेंस शामिल हैं बल्कि सीबीडीटी और दिल्ली के पुलिस कमिश्नर भी शामिल हैं। अब जेहन में ये सवाल आना लाजिमी है कि आखिर ऐसी कौन सी इमरजेंसी आ गई है, जिसके चलते ये सब किया जा रहा है?

जब इस बात को लेकर पब्लिक डोमेन में बहस तूल पकड़ने लगी कि सरकार निजता का हद से ज्यादा हनन करने लगी है, तो केंद्र सरकार की तरफ से साफ किया गया कि उन्होंने कोई नया कानून नहीं बनाया है। यह कानून पहले से चला आ रहा है। उन्होंने बस उन एजेंसियों को सूचीबद्ध कर दिया है जो ये काम कर सकती हैं। अब ये पूरा प्रसंग निजता बनाम राष्ट्रहित का हो गया है। यानी क्या राष्ट्रहित के लिए निजता को दांव पर लगाया जा सकता है और किस हद तक।

इसको समझने के लिए हमें बेसिक्स की बात करनी होगी। तो कहानी ये है कि आप मानें या ना मानें संप्रभुता हमेशा से ही सत्ता का लोभ बिंदु रहा है। आप ये कह सकते हैं कि हमारे हाथ में वोट की ताकत है, लेकिन ये सिर्फ आपकी खुशफहमी हो सकती है क्योंकि सियासत की मतलब ही है कब्जा, एकाधिकार। इसका अपने हक़ में इस्तेमाल करना सत्ता अपना हुक़ूक़ समझती है ताकि अपने आधिपत्य को कायम रखा जा सके। आधिपत्य और हुक़ूक़ के इसे खेल में हथियार बनती हैं ‘इनसाइडर इन्फॉर्मेशन’ यानी जासूसी के जरिए हासिल गोपनीय जानकारी।

फर्ज कीजिए, एक ऐसा देश जहां डेटा पर सबका समान रूप से अधिकार है, फिर वहां किस सियासी दल को चुनाव में फायदा मिलेगा? इसी फायदे के लिए हर सरकार डेटा पर कब्जा करना और उसे बरकरार रखना चाहती है। यानी, जासूसों की फौज को अपनी टीम प्लेयर के रूप में इस्तेमाल करती है। इसी को उदारवादी तबका सरकार द्वारा निजता का हनन बताता है। अगर ध्यान दें तो इन कथित ‘उदारवादियों’ का खेल भी अजीब है, ये बाकायदा अपनी सहूलियत के हिसाब से अपना स्टैंड तय करते हैं। चाहें तो ‘टुकड़े गैंग्स’ पर इनकी राय आप गूगल कर सकते हैं। संक्षेप में ये समझिए कि फ्री स्पीच के नाम पर पत्थरबाजों का समर्थन और उनकी पत्थरबाजी में शहीद जवान के नाम पर सन्नाटा। ऐसे में इनकी या इनके समर्थकों की पहचान जाहिर करने या उन पर नज़र रखने में क्या बुराई है? आखिर देश की आंतरिक सुरक्षा भी कोई चीज़ होती है कि नहीं?

उधर, मेन स्ट्रीम मीडिया की हालत किसी से छिपी नहीं। ब्लैक एंड व्हाइट की लाइन तय करने में इसे बिल्कुल भी वक्त नहीं लगता। ऐसा लगता है कि इसके लिए मध्यमार्ग नाम की कोई चीज़ बची ही नहीं है। हासिल ये होता है कि या तो कोई हीरो है या खलनायक। हीरो है तो जयकारे लगाओ और खलनायक है तो उसकी बखिया उधेड़ दो। अब, बाहर खड़ी उन्मादी भीड़ को लिंचिंग से रोक कर दिखाइए। दरअसल बात ये है कि हम हिंदुस्तानी बेहद भावुक होते हैं। ऐसे में, जब तक आप देश के माहौल को नियंत्रित नहीं करेंगे, तब तक देश में उन्मादी भीड़ की हिंसा जारी रहेगी। कुछ ऐसे ही, हमारा हास्य बोध भी आला दर्जे का है। हमें हंसने को नहीं मिलता तो हम खिल्ली उड़ाना शुरू कर देते हैं। यह बेहद खतरनाक स्थिति है, इसे यथाशीघ्र बदलने की जरूरत है।

बात ये है कि फ्री स्पीच कभी भी हमारी मुख्य धारा के भारतीय दर्शन का हिस्सा रहा ही नहीं। इसकी तस्दीक के लिए आप इतिहास के पन्नों को पलट सकते हैं। अब सच्चाई ये है कि सच कड़वा होता है। ऐसे में पाखंड पसंदों की बहुलता वाले इस देश में लोगों को सच से दिक्कत होना लाजिमी है। फलस्वरूप, रचनात्मक अराजकता को छोड़ दें तो कानून और कोर्ट दोनों अनिवार्य रूप से रचनात्मक आलोचना पर नियंत्रण के पक्ष में आ जाएंगे, आते रहे हैं।

अब अगर हम जासूसी को लेकर रूढिवादी रवैया अपनाएंगे, तो सवाल ये है कि ऐसे किसी कानून को जज करने का मानदंड क्या होगा? जवाब साफ है। अगर हम इस बात से सहमत होते हैं कि सरकार जासूसी करवाए तो हम ये भी चाहेंगे कि ये काम पारदर्शी तरीके से हो। कायदों का पूरी ईमानदारी से पालन किया जाए। दरअसल, यही बात तो कोर्ट भी कहती आई है।

कानून की बात करें तो इंडियन टेलीग्राफ एक्ट और इंडियन टेलीग्राफ रूल्स जैसे पुरातन कानून राज्य व केंद्र सरकार को संदेशों को इंटरसेप्ट करने की इजाजत देते हैं। ऐसे ही, इंडियन पोस्टल एक्ट भी राज्य और केंद्र सरकार को शांति कायम रखने और आपात स्थितियों में आम जनता के हित के लिए संदेशों को इंटरसेप्ट करने की इजाजत देता है।

बदलते दौर के साथ तरीके भी बदलते हैं। जब कम्यूनिकेशन कागजों से निकल कर कंप्यूटर तक पहुंचा, तो संदेशों को इंटरसेप्ट, मॉनिटर और डिक्रिप्ट करने का पुराना प्रावधान आईटी एक्ट, 2000 में शामिल हो गया। इस तरह, आईटी एक्ट की धारा 69 कहती है, “भारत की संप्रभुता और अखंडता की रक्षा, देश की सुरक्षा, दूसरे देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, पब्लिक ऑर्डर के लिए या फिर इससे संबंधित किसी संज्ञेय अपराध को उकसाने से रोकने या किसी अपराध की जांच-पड़ताल इसका इस्तेमाल किया जा सकता है”।

इसके तहत, लिखित में बिना समुचित कारण बताए किसी की निजता का हनन नहीं किया जा सकता। रिकॉर्ड्स को इंटरसेप्ट करने, उसे हैंडल करने, उसका इस्तेमाल करने, साझा करने, उसकी कॉपी बनाने, उसे जमा करने या उसको नष्ट करने संबंधी मानक ऑपरेटिंग प्रॉसिजर, इन्फोर्समेंट एजेंसीज़ को गृह मंत्रालय द्वारा जारी किए गए हैं। इसी तरह डिपार्टमेंट ऑफ टेलिकॉम यानी डॉट ने कानूनी तौर से इंटरसेप्ट करने के लिए टेलिकॉम सर्विस प्रोवाइडर्स के लिए मानक ऑपरेटिंग प्रॉसिजर्स जारी किए हैं।

अब सिस्टम संबंधी विफलताओं और खामियों को एक पल के लिए छोड़ दें तो जासूसी संबंधी हालिया अधिसूचना ऐसी कोई बेलगाम कार्टे ब्लांश (पूर्णाधिकार पत्र) नहीं है, जिसका इस्तेमाल करके वो हमारी ज़िंदगी में ताक-झांक कर सकते हैं। हमें ये भी जानना चाहिए कि उचित कायदों का पालन किए बिना सर्विलांस का इस्तेमाल करने वाले सरकारी अधिकारियों के खिलाफ आईटी एक्ट, 2000 की धारा 66 के तहत केस किया जा सकता है। इसके तहत दोषी अधिकारी को तीन साल की सजा और 5 लाख रुपए के हर्जाने का प्रावधान है।

और हां, स्नूपिंग का रोना रोने वालों के लिए ये जान लेना जरूरी है कि दुनिया के ज्यादातर देशों में स्नूपिंग को लेकर जैसे मानक प्रॉसिजर हैं उसके मुकाबले हमारे कायदे और नियम बहुत कठोर हैं। अमेरिका समेत दुनिया के ज्यादातर देशों में सरकारी स्तर पर जितनी स्नूपिंग होती है, उसके मुकाबले हम कहीं नहीं टिकते। यहां उन मुल्कों की बात नहीं हो रही है जिनकी कमान तानाशाहों के हाथ में है।

और रही बात उस प्रसंग की, तो भारत जैसे विषमताओं, विविधताओं और चुनौतियों से जूझते शैशव राष्ट्र में, जो लगातार ऐसी बाहरी और अंदरुनी शक्तियों से संघर्षरत है, जिनका मकसद किसी भी हाल में भारत को कमजोर बनाना है, निजता बनाम राष्ट्रहित की बहस काफी बेमानी सी हो जाती है।

वो कहते हैं ना नज़र बदलिए नजारे बदल जाएंगे। जरूरत है हमें अपने सोच के दायरे को थोड़ा विस्तार देने की। गूगल, फेसबुक या ऐसे तमाम डिजिटल डेमोन्स कैसे हमारे डेटा के साथ खेल रहे हैं हमें पता तक नहीं। ऐसे में क्या ये विचार संतोषजनक नहीं है कि कम से कम हमें पता तो है कि हमारी जासूसी कर कौन रहा है और उसका उद्देश्य किसी का निजी नुकसान नहीं बल्कि देश की संप्रभुता और अखंडता की रक्षा करना है।

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